शनिवार, 2 मई 2015

मैंने इंसां को बूतों में ढ़लते देखा....


                        मैंने इंसां को बूतों में ढ़लते देखा....    

                                       

                                        - विशाल 'सूर्यकांत' शर्मा - 
इन दिनों मूर्तियों का गज़ब चलन चल पड़ा है। कहीं भी, किसी भी चौराहे पर देख लो या किसी भी मूर्ति बनाने वाले की दुकान में झांक लो आपको भगवान की कम और इंसानों की मूर्ति ज्यादा नज़र आएंगी। बताईए ज़रा,... अच्छे खासे जिंदा इंसान की तो ठीक से कद्र नहीं कर पाते हम ... और उसके गुजरने के बाद चल पड़ते हैं एक मूरत बनवाने । एक दौर था जब मूर्तिकार सिर्फ भगवान की मूरत बनाते दिखते थे लेकिन लगता है कि अब तो भगवान से ज्यादा कीमती हो चली है इंसान की मूरत। भगवान को किसने देखा, कोई भी नाक-नक्श बना दो, बस मनभावन मूरत होनी चाहिए लेकिन इंसानों में नाक-नक्शे का खास ख्याल नहीं रखा तो मुश्किल होगी। नेताजी के समर्थक गुस्से में आ सकते हैं, गुरूजी के चेले भड़क सकते है । मूर्तिकारों के लिए ये काम तलवार की नोंक पर चलने से कम नहीं है। ख़ैर ये तो बात सिर्फ मुद्दे की शुरूआत करने के लिए थी। 

हंसी-मजाक की बात में मुद्दा जरा गंभीर निकल गया है...आजकल वाकई इंसानों की मूर्तियां ज्यादा बन रही है। इसे राजनीति का रंग कहें या फिर किसी को लेकर सम्मान प्रकट करने का आसान रास्ता ... लेकिन इंसानी मूर्तियां ज्यादा बन रही है। इंसानी मूर्तियों की पूछ तो इंसान से भी ज्यादा है।  67 सालों की राजनीति ने देश का शायद ही कोई ऐसा प्रमुख चौराहा छो़ड़ा होगा जहां किसी नेता की मूर्ति नहीं लगी होगी। गांधी चौराहा, पटेल चौराहा, अम्बेडकर चौराहा। ये शुरुआती दौर था जब राजनीति सिर्फ राजनीति के गलियारों से होकर गुजरती थी। एक वक्त बाद, समाज और धर्म की सियासत शुरु हुई तो गली-चौराहों पर ऐसे संत-साधूओं और समाजसेवियों की मूर्ति लगने लग गई जो नेताओं की धार्मिक और सामाजिक राजनीति का जरिया बन सकें। लेकिन आपको इस बात का अंदाजा है कि अब मूर्तियां बनाने का शौक किस हद तक जा पहुंचा है ??? भगवान से महा
पुरूषों तक और फिर आम पुरुषों को महापुरुष साबित करने तक, हर कोई चाहता है अपनी मूर्ति का लगवाने का सम्मान। इस होड़ में परिवार के लोग भी पीछे नहीं है।  

  जो मैं अब लिख रहा हूं शायद वो पहलू अब तक अनकहा है लेकिन सच्चाई की बुनियाद पर है। राजनीति और धर्म के गलियारे से निकली मूर्तियां स्थापित करने की परम्परा शहीद परिवारों तक भी चल पड़ी है। मैं शहीद मूर्ति लगाने का विरोधी नहीं हूं लेकिन ये भी इस मामले का व्यावहारिक पक्ष ये भी हैं कि जिन परिवारों में शहीद हुए, उनके बीच में ही मूर्ति लगाने की अनचाहा और अनकहा कम्पिटिशन शुरु हो गया है। शहीद परिवारों में सामाजिक दबाव का ऐसा ताना-बाना बुना गया कि जिससे शहीद परिवार के लिए शहादत के बाद एक ऐसी रस्म बन गई हैं कि अगर मूर्ति नहीं लगी तो ना जाने शहादत का कितना बडा अपमान हो जाएगा  ???  परिवार में कोई शहीद हो गया तो मातम के साथ ये भी जरूरी है कि वो अपनी जमीन का एक बड़ा हिस्सा मूर्ति लगाने के लिए दें, शहीद परिवार के लोग शहीद की महंगी मूर्ति बनाएं और फिर उसके अनावरण में बड़े से बड़े नेता को बुलाकर अनावरण कार्यक्रम करें और लाखों खर्च करें। जिस शहीद की प्रतिमा का अनावरण, जितने बड़े नेता से हुआ, जितनी बड़ी जमीन पर स्मारक बना, जितना ज्यादा खर्च हुआ, उसे शहीद के सम्मान और परिवार की भावना से जोड़ दिया। इससे दुखद बात और क्या होगी कि जिन शहीद परिवारों के साथ गांव के, बिरादरी के रसूखदार नहीं जुटे, उनकी मूर्तियां सालों तक अनावरण के लिए नेताजी के आने का इंतजार करती रही। अखबारों में ये रिपोर्ट खुलकर नहीं आई लेकिन किसी शहीद परिवार से पूछिए तो ये सच्चाई खुलकर सामने आ जाएगी।
लगी हुई मूर्तियों की सियासत का अब तो ये आलम हैं कि लगता है कि सही सलामत मूर्ति लाख की और खंडित हो जाए तो सवा लाख की....मूर्ति में कोई मामूली टूट-फूट कोई कर दे तो शहर की सोई पड़ी सियासत करवट लेने लगती है...अक्सर अखबारों में पढने में आता है कि कोई सिरफिरा पत्थर की मूर्ति को खंडित कर गया तो पूरे शहर भर में बवाल खड़ा होने लगा। आज भी प्रतिमाएं के साथ टूट-फूट होती है तो जाति, समाज या पार्टी के नेता अपनी बिखरी सियासत को संवारने में जुट जाते हैं। नए नेताओँ के लिए तो टूटी-फूटी मूर्तियां सियासी जमीन तैयार कर रही है।  चलिए अब बात करते हैं कि कैसे जिंदा इंसान की अनदेखी होती है और कैसे उनकी मौत के बाद बूत लगाने की मांग होने लगती है। इसकी बानगी आप राजस्थान के दौसा जिले के गजेन्द्र सिंह की कहानी में देखिए। दिल्ली के जंतर-मंतर में सरेअाम फांसी पर लटकने वाले गजेन्द्र सिंह की जीते जी भले ही ना पूछ हुई हो लेकिन मौत के बाद चर्चा में आते ही मूर्तियां बननी शुरु हो गई। ये संवेदनाओं के राजनीतिक इस्तेमाल की चरम अवस्था है। गजेन्द्र सिंह की मौत को लाखों में तौलते हुए एक के बाद एक कई राजनीतिक दल और पार्टियां परिवार को चैक थमा गई। ऐसा लगा कि मानों दुख जताने नहीं बल्कि गजेन्द्र सिंह के नाम सियासत करने की ठेकेदारी की एवज में कुछ रकम देने आए हों। परिवार से मिलने के बाद गजेन्द्र के अपने तो घर में सिमट गए और गजेन्द्र सिंह के नाम की सियासत देश-दुनिया में चल पड़ी।  गजेन्द्र की मौत एक हादसा था, मगर सियासत का रंग देखिए कि एक इंसान की मौत का ऐसा तमाशा बना दिया कि हर किसी को मौत में अपनी मरी पड़ी सियासत में जिंदगी नजर आ रही है।
गजेन्द्र की मौत पर ऐसा खुला नाच तो कभी सामने नहीं आया। सब के सब आमादा थे कि कैसे गजेन्द्र की मौत को भुनाया जा सके। टीवी चैनल्स टीआरपी बढ़ा ले गए, भाजपा वाले आप पार्टी को घेर गए, आप पार्टी वाले दिल्ली पुलिस को जिम्मेदार बना गए और अपनी जमीन तलाश रही कांग्रेस दोनों को गरिया रही है। गजेन्द्र की मौत का शो ऐसा पॉपुलर हुआ कि अब उनकी मौत के बाद उनकी भी मूर्ति बनाने की होड़ शुरु हो गई है।
 राजनीति में पतन की शुरुआत तो ऊपर से ही होती है, अपनी मूर्तियां बनाने का शगल सारे नेताओं में रहता है लेकिन कार्यकर्ताओं की भावनाओं की दलील देकर काम होता है लेकिन मायावती ने तो मूर्तियों की सियासत ही बदल दी। बसपा की प्रमुख, जिन्होंनें लखनऊ में बने अम्बेडकर पार्क में एक दो नहीं बल्कि पूरे 1200 करोड़ की तो मूर्तियां ही लगा दी। इनमें से कुछ मूर्तियां तो अम्बेडकर और कांशीराम जी की थी तो बाकी सारी या तो उनकी खुद की या फिर उनके चुनाव चिन्ह हाथी की... । 
1200 करोड़ को मायावती की ओर से मूर्तियां लगाने का खर्च भर है। चुनाव आयोग को चुनावों के दौरान हर बार इन्हें ढ़कने के लिए और चुनावों के बाद फिर से साफ करने का जो खर्च करना पड़ेगा वो बिल्कुल अलग है।  

अब बताईए, जिस मूल्क में बुनियादी सुविधाओं के लिए बड़ी आबादी तरस रही हो, जहां बिजली,पानी,सड़क, शिक्षा,स्वास्थ्य, कुपोषण के हालात हों, जिस देश के समाज में  महिलाओं की दयनीय स्थिति हो, सिस्टम में भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे देश के विकास को चुनौती दे रहे हों वहां महापुुरुषों की बात महत्वपूर्ण हैं या फिर उनकी मूर्ति ??? 
जरूरी चीज़ क्या है ??? किसी शख्स की प्रतिभा का बखान या फिर प्रतिमाओं के जरिए पहचान ??? आजादी के बाद से कई मूरत लगा ली, इसका असर क्या हुआ ???  देश में डेमोक्रेसी के इस दौर में जीता जागता इंसान और उसकी बदहाली सियासती मुद्दा होना चाहिए ना कि कोई पत्थर की मूरत...। ज़रा एक पल के लिए सोंचिए कि ; गली-चौराहों पर जहां-तहां लगी मूर्तियों को एक दिन का जीवन फिर से मिल जाए तो क्या कुछ नहीं कहेंगी वो अपने नाम पर रचे जा रहे स्वांग पर, अपने नाम पर हो रही सियासत पर ??? 


मूर्तियों की इतनी पूछ हो क्यों रही है ??? ये सवाल जेहन में आया तो जबाव मिला कि इंसान और बूत परस्ती में बुनियादी फर्क ये हैं कि इंसान पलट कर जबाव देता है, वो सवाल पूछता है, वो समर्थन के साथ विरोध भी कर सकता है, वो सही और गलत की पहचान रखता है। वो अपने और बेगाने मिजाज को समझता है, वो साजिश और प्यार की बांतों को जानता है ...इसीलिए इंसान से ज्यादा बूत की पूछ है, इंसान से ज्यादा बूत की परस्ती होती है...। आजकल तो हालात ये हो गए हैं कि जीता जागता इंसान पसंद नहीं आता, बात दिलचस्प हैं कि सब चाहते हैं कि दूसरा शख्स उनके सामने बूत बन जाए। ऐसा बूत जिसे जब चाहो माला पहना दो, जब चाहो वीरानगी में छोड़ दो। इंसान की क्रिया और प्रतिक्रिया का हक़ छिनना एक तरह से उसे बूत बनाना ही तो है। 

वक्त मिले तो यूट्यूब का ये लिंक भी देखिएगा, जिसमें आपको मिलेगी इस मुद्दे पर मूर्तिकारों की दिलचस्प राय.... https://www.youtube.com/watch?v=J0L3_1Ombec

ख़ैर, हिन्दुस्तानी समाज में मूर्तिय़ों की ये परम्परा पुरानी है, कुछ विवाद या राजनीति हो रही है तो वो इस दौर की है, नहीं तो देश का इतिहास मूर्तियों की कलात्मकता की कहानियों से भरा पड़ा है। चलिए चलते, चलते.... मेरी बहुत पुरानी क्रिएशन यहां लिखना चाहता हूं, सिर्फ आप लोगों के लिए.... जो अपनी व्यस्तता के बावजूद इतनी देर से मेरी लिखी इबारत पढ़ रहे है....


जिंदगी को इस क़दर बदलते देखा
हमनें इंसा को बूतो में ढ़लते देखा 
ग़ैरों से गिले-शिकवे क्या करें कोई 
हमनें अपनों को गैरों में बदलते देखा। 

अपने बदले इन हवाओं की तरह 
महक बदलती इन फिजाओं की तरह 
सूरज तो वहीं खड़ा रहा अपनी जगह पर 
हमनें किरणों को तपिश बदलते देखा।। 

जिंदगी को इस क़दर बदलते देखा...
हमनें इंसा को बूतो में ढ़लते देखा 

नए थे तेरे शहर में नन्हें परिन्दों की तरह 
मालूम ना ये यहां लोग हैं दरिन्दों की तरह 
बस यूं ही उड़ चले थे अपने आसमान पर 
  मगर हवाओं को मेरे पर कतरते देखा ।।।  

जिंदगी को इस क़दर बदलते देखा...
हमनें इंसा को बूतो में ढ़लते देखा 

सभी हैरान हैं मेरे किरदार के क़द से ... 
नहीं मिला ये क़द, सिर्फ दुआओ में रब से 
फख्र नहीं कि आज आसमान हूं मैं, तेरी नजर में 
      मैनें अपनी जमीं को आसमान से मिलते देखा ।।।। 

जिंदगी को इस क़दर बदलते देखा...
हमनें इंसा को बूतो में ढ़लते देखा 
                                              - विशाल सूर्यकांत शर्मा ( जर्नलिस्ट) 


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