- विशाल सूर्यकांत शर्मा-
हमारी सोसायटी में, शक्ल और सूरत के इतने मायने हैं कि अच्छे नैन-नक्श का, कोई दिख जाए तो फिर हमें उस इंसान की सीरत देखने का मन ही नहीं करता। आम इंसान की ख्वाहिश रहती है कि अपना चेहरा-मोहरा अच्छा हो । जब फोटो खिंचवाएं, तो वो चेहरे से भी ज्यादा खूबसूरत निकल आए। आम आदमी हो या फिर कोई नेता। सबके लिए फोटो खिंचवाना किसी रोमांचकारी काम से कम नहीं। टाई में, सूट-बूट में, मस्ती के मूड में फोटो ना जाने कितनी अलग-अलग शैलियों में फोटो। अगर चिंतनशील व्यक्तित्व नहीं भी हैं तो भी आपके एलबम में एक फोटो जरूर ऐसा होगा जो आपकी चिंतनशील छवि को उजागर करे।एलबम में पड़ी बरसों पुरानी फोटो देखकर आप अपना बचपन याद कर सकते हैं या फिर जवानी का गुज़रा जमाना...। कुछ फोटो, ऐसी होती है जो अचानक आपके सामने आ जाए तो अतीत के कई भूले-बिसरे पल अपनी गुमशुदगी छोड़, आंखों के सामने आ जाते है। हम हिन्दुस्तानी लोग, खुद के प्रति इतना प्रेम रखते हैं, खुद के प्रति इतनी दया भावना रखते हैं कि हमें अपनी गलतियां तो नजर ही नहीं आती। लेकिन... हां, ये शर्तिया बात हैं कि आप चाहे कितने भी आत्ममुग्ध हों, मगर दूसरों को अपनी फोटो दिखाते वक्त खुद ही अपनी खामियां पहले बताते चलते हैं ...ताकि आपकी फोटो देख रहे शख्स के हिस्से में मजबूरन आपकी तारीफ करने का ही विकल्प बच जाए। मन को टटोलिए और बताइए, मेरी इस बात में, सच्चाई हैं कि नही !!!
हमें खुद से ज्यादा अपनी फोटो से प्यार इसीलिए हो जाता है क्योंकि वो हमारे सुनहरे अतीत की कहानी कहता है। हमारे यहां चलन नहीं है कि हम दुख के वक्त में फोटो लें। हमारे यहां फोटो हमेशा सुकाल में खिंचाई जाती है। दुखियारा सा चेहरा भी फोटो खिंचवाते वक्त अच्छा-खासा कॉन्शियस होकर हंसमुख बन जाता है। अब अपनी फोटो लेने के लिए 'सेल्फी' शब्द अपना लिया गया है। पहले लगता था कि सेल्फी का चलन सिर्फ कॉलेज गोइंस स्टुडेंट्स और टीन एजर में ही था। मगर जब से मोदी जी ने सेल्फी को 'राष्ट्रीय आयोजन' बना दिया है तब से लोगों की सेल्फी लेने में हिचक ज़रा कम हो गई है। बच्चों के साथ, छोटे और बड़ों के साथ हर मौक़े-बेमौक़े पर '' फोटों-खिंचाई '' धीरे-धीरे दिनचर्या का हिस्सा बन रही है।
आजकल तो मोबाईल की शक्ल में एक कैमेरा हमेशा साथ चलता है। खुशी या गम,जो भी मिला वो जिंदगी के अनुभवों के साथ-साथ एक क्लिक पर आपके मोबाइल फोल्डर में भी सेव होते रहे है। जिंदगी के अनुभवों की तुलना में यहां आपके पास ये सुविधा है कि आप अनुभव को बदल नहीं सकते लेकिन अपने अतीत का फोटो, जब चाहें तब जरूर एडिट कर सकते हैं। फोटो खिंचवाने का चलन बंद फोटो स्टूडियों से सरकते हुए सेल्फी के जमाने तक आ पहुंचा है।
हम आम लोगों की जिंदगी में फोटो और राजनीति में फोटो खिंचवाने के अलग-अलग मायने है। हम लोग अपनी खुशियां जताने फोटो खिंचवाते हैं मगर नेतागिरी में फोटो खिंचवाने और उसे लगाने का मतलब है अपनी पहचान को बढ़ाना और अपने मुस्कुराते मुखौटों की मानिंद लगे फोटो को भी वोट हासिल करने का जरिया बनाना।
"फोटो- खिंचाई" की ये राम कहानी इसीलिए गढ़ी है क्योंकि अभी टीवी में देखा कि सरकारी विज्ञापनों में नेताओं की फोटो लगने पर पाबंदी लग गई है। देश की सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया है कि प्रधानमंत्री,राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के अलावा देश भर में किसी भी संवैधानिक संस्था के ओहदेदार बने नेता की फोटो सरकारी विज्ञापनों में नहीं लगेगी। मतलब ये कि आजादी के इतने सालों तक सरकारी खर्च पर अपने चेहरे का नूर दिखाते घूम रहे नेताओं पर अब लगाम लग गई है। नेताओं के ''बे-वजह मुस्कुराते चेहरे'' सरकारी विज्ञापनों में अब आपको देखने नहीं मिलेंगे।
सुप्रीम कोर्ट की ओर से प्रधानमंत्री के पद को इन आदेशों से अलग रखा गय है । मतलब, सारे देश को सेल्फी का चस्का लगवाने वाले मोदी साहब तो बच गए लेकिन उनके अलावा सारे मंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल, बोर्ड-निगमों के चैयरमेन, पॉलिटिकल अवॉइन्टमेंट वाले लालबत्ती धारी सब के नूरानी चेहरे सुप्रीम कोर्ट के फैसले की जद में आ गए। देश में अब तक चुनाव आयोग की आचार संहिता के अलावा तो कोई ऐसा मौक़ा नहीं था जब सरकारी कार्यक्रमों के विज्ञापन में नेताजी की फोटो लगाने पर रोक हो। लेेकिन अब बारहमासी रोक लगा दी गई है। नेताओं के सामने दिक्कत तो ये है कि कोर्ट के निर्देशों पर किस दलील के साथ एतराज करें ...??? क्योंकि ये उनका हिडन एजेंडा होता है कि सरकारी विज्ञापनों के बहाने अपना फोटो भी लग जाएगा।

नेताओं की महत्वाकांक्षाओं पर लगाम कसने के मामले में सुप्रीम कोर्ट का ये फ़ैसला एतिहासिक होगा ! ये कहना ज़रा जल्दबाजी नहीं कर सकते.... क्योंकि जमात तो नेताओं की ठहरी... यहां से नहीं... तो वहां से, सरकार नहीं तो कार्यकर्ता और दानदाताओं के हवाले से अपने फोटो वाला विज्ञापन कहीं ना कहीं से तो छपवा ही देंगे। सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला तभी मुफीद है जब ये अखबारों तक नहीं बल्कि सरकारी बेवसाइट्स और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में जारी सरकारी अपीलों पर भी लागू हो।
ये सच हैं कि तमाम आदेशों के बावजूद भी किसी बहाने नेताजी चेहरा दिखाए बिना नहीं मानेंगे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी विज्ञापनों में नेताओं के चेहरे दिखाने पर रोक लगाकर, सरकारी खर्च पर निजी प्रचार की मंशा पालने वाले नेताओं को आईना जरूर दिखाया है। ये फ़ैसला सरकारी ओहदों और सिस्टम में बढ़ते व्यक्तिवाद पर सीधा और करारा प्रहार है। हमारे देश को विज्ञापनों में मुस्कुराते मुखौटे नहीं, जमीन पर काम करने वाले जनप्रतिनिधियों की ज्यादा ज़रूरत है। - शुक्रिया सुप्रीम कोर्ट !!!
विशाल सूर्यकांत शर्मा
Contact- +919001092499
Email - contact_vishal@rediffmail.com
- vishal.suryakant@gmail.com
- vishal.sharma@firstindianews.com
लेखक पत्रकार-फर्स्ट इंडिया न्यूज़ में हैड, इनपुट हैं।
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