सोमवार, 11 मई 2015

केजरीवाल को भी पसंद मीडिया की मिठास ....

                                           
                 
 विशाल सूर्यकांत शर्मा
पुरानी कहावत है -  मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कडवा थू ... । मीडिया के साथ बर्ताव की ये नीति बरसों पुरानी है लेकिन मीडिया की पतवार के सहारे सियासत में उतरे नए-नवेले नेता अरविन्द केजरीवाल भी इस नीति पर चल पडेंगे, इसकी उम्मीद ज़रा कम थी। एक सर्कुलर निकाल कर अरविन्द केजरीवाल ने सारी मीडिया को घेरने की जुगत लगाई है, उसमें गंभीरता कम, बचकानापन ज्यादा लग रहा है। केजरीवाल शायद नए नेता हैं इसीलिए तो मीडिया पर सीधा अटैक कर बैठे है। क्योंकि बाकी नेता तो किसी ना किसी बहाने मीडिया को अपने डंडे से हांक ही लेते है। जिसे सोसायटी का वॉच डॉक करार दिया गया है वो मीडिया सबको तभी पसंद आता है, जब वो अच्छी, पॉजेटिव या मिठास भरी खबरें दिखाता रहे। दांत दिखाने वाला मीडिया किसी को पसंद नहीं। ' नेिंदक नियरे राखिए' की बात अभी भी हमारे कल्चर में किताबी ज्ञान से बाहर नहीं निकल पाई है। हर कोई चाहता है कि वो काम करता रहे और पीछे एक दो पिठ्ठू उसकी सोंच को निराली कहते फिरें और जब मीडिया इस शैली को अपनाने लगे तो फिर और क्या चाहिए।  पिठ्ठू बन जाओ तो विज्ञापन और नियामतें न्यौछावर होती चली जाएंगी। रसूखदार लोग चाहते हैं कि सोसायटी के वॉच डॉग सिर्फ उनकी पहरेदारी करे, उन्हें खुश रखें। वो इसे आस-पास भी इसीलिए रखना चाहते हैं ताकि दूसरी ताकतों से अपना बचाव होता रहे। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जो किया वो नई बात नहीं है। अक्सर सरकारें और नेता अपनी पसंद और नापसंद के मुताबिक मीडिया डिलिंग करती आई है। मीडिय़ा की मिठास के तलबगारों की जमात में केजरीवाल भी शामिल थे। बस दिक्कत ये हो गई कि जब वो क्रांतिवीर की भूमिका में थे तब जमकर मीडिया की पब्लिसिटी मिली और खूब छपे, खूब दिखे। अब जब वो प्रशासन बन गए... तो पब्लिसिटी की जाजम सरक गई और अब कडवी दवाओं का दौर शुरु हो गया। 


उन्हें सत्ता विरोधी शख्स के रूप में जो प्रचार मिला जब सत्ता में बैठ गए तो वो ही प्रचार सवालों की शक्ल में आगे-पीछे घूमने लगा। केजरीवाल ही नहीं, किसी भी नए नवेले नेता के लिए ये ट्रांजिशन गले नहीं उतरता । केजरीवाल के लिए कोढ़ में खाज की स्थिति ये हो गई कि केजरीवाल उस दिल्ली के मुख्यमंत्री बन बैठे हैं जहां मीडिया रेटिंग्स के लिए सबसे ज्यादा टीआरपी मीटर्स लगे हैं। यहां तो एक गली में कुत्ता भी मर जाए तो देश भर के कुत्तों की मौत के मामले एक ही दिन में उठ सकते हैं। ये वो शहर हैं जहां बैठकर जिस तरह से नेता देश की नीति तय करते हैं, ठीक उसी तरह मीडिया में लोग देश भर के लोगों को आज क्या दिखाना है, ये तय करते हैं।

आज मीडिया के खिलाफ सर्कुलर निकालने वाले केजरीवाल की शख्सियत मीडिया के जरिए ही संवरी है। जब-तब उन्हें पब्लिसिटी का मीठा डोज मिलता रहा, उनके तेवर और बयानों का जिक्र होता रहा तब तक कोई सर्कुलर या नैतिकता की दुहाई नहीं दी गई। अन्ना आंदोलन में और उसके बाद मफलन मैन और ना जाने कितने नामों की उपाधियां उन्हें मीडिया के प्रचार-प्रसार से ही तो मिली थी। अपनी शुरुआत से लेकर अब तक अरविन्द जिस मीडिया की नैय्या पर ही सवार रहे अब उस नैय्या का समन्दर बदल गया है। दरअसल, अरवेिन्द केजरीवाल के साथ एक ज्यादती ये हो गई कि योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण के मामले पर पार्टी में दो फाड़ ,दिल्ली में जंतर-मंतर में एक शख्स की सरेआम फांसी के बावजूद केजरीवाल की सभा जारी रखने का फ़ैसला, कुमार विश्वास के चरित्र का मामला या कानून मंत्री की डिग्री का मामला, आईएएस को आनन-फानन में केन्द्र की सेवा में फिर भेजना का मामले एक के बाद सामने आ गए।  उन्हें लग रहा है कि मीडिया उनके पीछे पड़ गया है। जबकि हकीकत ये हैं कि मीडिया का ये चरित्र है कि वो अतिवादी भी तब ही होता है जब कुछ सतही पहलू सामने आते है।



सवाल ये हैं कि केजरीवाल क्या इसके जरिए मीडिया पर नकेल लगाना चाहते हैं ? क्या वो तय कर चुके हैं कि सच वो ही होगा जो उनके हिस्से की कहानी बताएगा?  मान लिया कि मीडिया बिकाऊ है तो क्या आप उसे नकार देंगे?  क्या वाकई किसी सर्कुलर की जद में लाकर नख-दंत विहिन बना सकते है ?  
 पहले मीडिया के दिल्ली सचिवालय में प्रवेश बंद करने का फैसला हुआ और अब ये सर्कुलर, आखिर क्या कहना चाहते हैं अरविन्द केजरीवाल ?  मीडिया पर रोक लगाने वाले वो पहले मुख्यमंत्री तो नहीं लेकिन हां, ऐसा खुला सर्कुलर जारी करने वाले तो शायद वो पहले मुख्यमंत्री होंगे मीडिया को नैतिकता के बंधन में बांधने के बजाए केजरीवाल ने कानूनी शिकंजा तैयार कर दिया।  मुद्दा तो बस इतना सा ही होगा कि मीडिया पर भी कुछ नैेतिक दबाव रहे ताकि कही-सुनी रिपोर्टिंग के बजाए तथ्यों के आधार पर मीडिया खबरें चलाए। इसके लिए ये रास्ता क्यों अपनाया गया ? बेहतर तो ये होता कि दिल्ली सरकार के विभाग, अपने विभाग की गलत रिपोर्टिंग करने पर पूरी मुस्तैदी से सरकारी बेवसाइट और सोशियल मीडिया पर अखबार या टीवी चैनलों की खबरों का नामजद खंडन जारी करते। मीडिया पर दबाव बनाए रखने के लिए ये ही तरीका काफी था कि  अगर कोई खबर गलत है और आपको लगता हैं कि मीडिया नाहक मुद्दा बना रहा है, दुष्प्रचार कर रहा है तो आप इसका जबाव दें। लोकतंत्र में आखिरकार  कोई कुछ भी कहे, कोई कुछ भी करें लेकिन जनता को ही तय करना है। चुनावों के वक्त साफ हो ही जाएगा कि केजरीवाल सहीं है या फिर मीडिया की टारगेटेड रिपोर्टिंग।
जिस तरह से केजरीवाल को खुद को सही साबित करने के लिए अगली बार फिर चुनाव जीतकर दिखाना होगा, ठीक उसी तरह ये मान कर चलिए , देश में मी़डिया पर भी ये नैतिक दबाव रहेगा कि उसके पास जनता की नज़रों में  विश्वसनीयता का तमगा है या नहीं। 
अक्सर आपने देखा होगा कि कई बार मीडिया के लाख पॉजेटिव जतन के बावजूद भी नेता चुनाव हार जाते हैं या बहुत नेगेटिव न्यूज के बावजूद चुनाव जीत जाते हैं। इन घटनाओं का मतलब क्या है ??? जो जनता अपना नेता चुनती है उसे आप इतना बेवकूफ नहीं मान सकते, वो भी तो मीडिया की  विश्वसनीयता की मूक कसौटी पर जनता मीडिया को भी अभी परख रही है। तभी तो सोशियल मीडिया इतनी तेजी से रफ्तार पकड रही है। 



मीडिया को लेकर बन रही सोच में एक बडी दिक्कत ये भी है कि कई बार ऐसे मौक़े भी बन जाते हैं कि कोई नेता या पूरी की पूरी सरकारें, एक के बाद एक घटनाक्रमों के झंझावातों में फंसती चली जाती है कि मीडिया को कवरेज दिखाती रहती है। चाहे-अनचाहे घटनाक्रम के रेफरेंस जु़डते चले जाते हैं।  वो दौर ऐसा होता है जब खबरों से ज्यादा परसेप्शन दर्शकों पर अपना असर दिखाता है। अगर ये परसेप्शन किसी के खिलाफ हो तो उसे सारी मीडिया अपने खिलाफ नजर आती है। लेकिन हकीकत में ऐसा होता नहीं है। ये कभी नहीं हो सकता कि सारी मीडिया बिरादरी एक टारगेट बनाकर काम करे। मेरा दावा है कि ये कभी संभव ही नहीं है। मीडिया में अंदरूनी प्रतिस्पर्धा और टीआरपी का खेल, ये काम कभी होने ही नहीं देगी। जो ऐसा सोचता है उसे मीडिया की बारिकियों को और गंभीरता से समझना होगा। 

  दरअसल, अरविन्द केजरीवाल ही क्यों देश का कोई नेता, सरकार या कंपनी नहीं चाहती कि मीडिया उनके लिए पॉजेटिव की रट छोडकर नेगेटिव बोले। कोई नहीं चाहता कि  मीडिया नेगेटिव डायरेक्शन में जाए। हर कोई चाहता है कि रिपोर्टर, उनके लिए एक अच्छे पब्लिक रिलेशन पर्सन की  मानिंद पेश आए। अच्छी बातें कहे, अच्छा लिखे और अच्छा दिखाए। इसीलिए तो मीठी बांतें, मीठे बोल और मीठी रिपोर्टिंग से विज्ञापन और रेवेन्यू का स्वाद और भी मीठा होता जा रहा है। हर मंत्री और नेता अपनी टेबल में रखी विज्ञापन फाइल पर साइन करने से पहले देखता है कि  किस मीडिया चैनल या अखबार ने अपने मामलों की रिपोर्टिंग में कितनी चाशनी चढ़ाई है ? जब से ये मीडिया में मिठास का चलन चल पड़ा है तब से और अच्छे पत्रकारों की धार कुंद होती चली गई। पत्रकारों की जिंदगी की बड़ी हकीकत ये हैं कि वो बड़ी खबरों के साथ ही औरों की तरह मासिक तनख्वाह का भी तलबगार है। इस पूरी स्थिति का फायदा वो लोग उठा रहे हैं जिनके पास विज्ञापन जारी करने के अधिकार हैं। देश में ये हकीकत है कि मीडिया से ज्यादा मीडिया के परजीवी सेक्टर ज्यादा कमाई कर रहे हैं। मसलन, विज्ञापन एजेंसियां, पब्लिक रिलेशन एजेंसियां। अच्छे-खासे नामचीन पत्रकार मीडिया की मेन स्ट्रीम छोड़कर मीडिया की मिठास में मशगुल हो रहे है। या खुलकर रहें तो मीडियाकर्मी तेजी से पीआर एजेंसियों और विज्ञापन एजेंसियों की कठपुतलियां बनते जा रहे है।  सब तरफ यही दौर चल रहा है लेकिन अभी ये वो अंतिम अवस्था नहीं आई कि हम इसे मीडिया के वजूद का निष्कर्ष मान लें, इन परिस्थितियों को अंतिम सत्य मान लें। 

मुझे लगता है कि ये संक्रमण का दौर चल रहा है। मीडिया के एथिक्स और कारोबार के बीच अनकही जंग चल रही है। लेकिन आखिरकार मीडिया को विश्वसनीयता और सत्यता की धार पर आना ही होगा क्योंकि अगर अब मीडिया ने ये कदम नहीं उठाया तो वो वक्त दूर नहीं जब लोगों की बढती समझ और लॉजिकल थिकिंग के आगे ट्रेडिशनल और इलेक्ट्रोनिक मीडिया इर्रीलिवेंट हो जाएगा।  अपने देश के दर्शकों को आप कडवी रिपोर्ट्स के साथ कुछ मीठी चाशनी भरी पीआर रिपोर्ट दिखा दो तो फिर भी चल जाएगा लेकिन किसी के हक में खबरों का खालिस मीठा पकवान परोसना मतलब, अपनी विश्वसनीयता और साख से समझौता करना है। जो चैनल ऐसा कर रहे है, उनके लिेए वो आत्मघात से कम नहीं है क्योंकि बाजार में अफवाहें उड़ाने के लिए ऐसे चैनल्स का सहारा लिया जाता है। कहां तो पैमाने ये थे कि घटनाक्रम की पुष्टि चैनल  से होती थी और कहां अफवाहों का केन्द्र बन गए चैनल्स और अखबार। बताइए क्या ये आत्मघाती कदम नहीं है ? 
दरअसल, देश के लोगों का मिजाज ये हैं कि दो सौ साल की गुलामी सहने वाले देश की जनता को सत्ता की सेवा कतई पसंद नहीं आती। हमें विरोध के स्वर ज्यादा सुहाने लगते हैं। इसीलिए ही सोशियल मीडिया तेजी से मुखर हो रहा है, यहां अभिवयक्ति की स्वतंत्रता यहां अपने असली स्वरूप में सामने आ रही है। सोशियल मीडिया, धीरे-धीरे  ट्रेडिशनल मीडिया और इलेक्ट्रोनिक मीडिया को निगलता जा रहा है। आप खुद ही देख लीजिए कि तमाम  नेता, कंपनियां, फिल्म स्टार, क्रिकेटर, आम पत्रकार सभी फेसबुक,ट्विटर, ब्लॉग में अपनी बात रखना शुरु कर चुके हैं और मीडियाकर्मी खुद फोलोवर्स की भीड़ में शामिल होकर उनके ट्विट चुराकर खबरें दिखा रहे हैं। रही-सही कसर टीआरपी के खेल ने पूरी कर रखी है। ये सच्चाई है कि अब खबर की ग्रेविटी, उनकी प्रमुखता के साथ नहीं बल्कि टीआरपी मीटर्स की मौजूदगी के साथ जुड रही है। ऐसे में मीडिया की विश्वसनीयता खतरे में है।

ये सारी चर्चा सिर्फ इसीलिए की जा रही है ताकि ये बताया जा सके कि देश की मीडिया के सामने केजरीवाल के सर्कुलर से भी ज्यादा कई बड़े खतरें मुंह बायें खड़े है। केजरीवाल के सर्कुलर से तो मीडिया की सेहत में ज्यादा असर नहीं पड़ने वाला, अलबत्ता, मिठास भरा मीडिया पसंद करने के शौक में केजरीवाल का सर्कुलर, कहीं खुद उनके लिए गले की फांस ना बन जाए. ये चिंता ज़रूर है । ये चिंता केजरीवाल या उनकी पार्टी आप को लेकर कतई नहीं है। लेकिन हां, उनके जरिए देश में जो वैकल्पिक और भ्रष्टाचार विरोधी राजनीति का माहौल एक लंबे दौर के बाद चैक एंड बेलेन्स की स्थिति में आया है। इस दौर को, इस माहौल को, इस राजनीति को यूं ही खत्म नहीं होने दिया जाना चाहिए। उम्मीद है केजरीवाल और उनके समर्थक, इस मर्म को समझेंगे।

 - विशाल सूर्यकांत शर्मा
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 लेखक पत्रकार- फर्स्ट इंडिया न्यूज में इनपुट हैड हैं। 

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