मंगलवार, 20 सितंबर 2022

राहुल गांधी हो चुका अहसास, दरकती दीवारों पर नहीं बनते किले ...


विशाल सूर्यकांत

याद कीजिए जब चुनाव के बाद राहुल गांधी ने नैतिकता की दुहाई देकर कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया. इस उम्मीद में, कि पूरे देश में कांग्रेस के लोग अपने पदों से इस्तीफे की पेशकश कर राहुल गांधी के पीछे खड़े हो जाएंगे. लेकिन उस वक्त की राजनीति का सच ये है कि ऐसा हुआ नहीं . तब सवाल राहुल गांधी के सामने यकीकन आया होगा कि ऐसा कैसे हुआ ? अध्यक्ष पद को छोड़ने का असर व्यापक होना चाहिए था. इसका अर्थ ये है कि राजनीतिक रुप से राहुल गांधी या गांधी परिवार को एक चेहरे के रूप में आगे कर कांग्रेस के भीतर एक अलग राजनीतिक खेल चल रहा है. जिसमें सारे नेता उन्हें आगे तो रख रहे हैं लेकिन उनके फैसलों पर अमल करना जरूरी नहीं समझ रहे. अंदरुनी रूप से पार्टी में हो रहे इस घटनाक्रम में कई लोग ग्रुप-23 जैसे समूहों का हिस्सा बन गए तो कुछ पार्टी छोड़कर भाजपा व अन्य पार्टियों में जा बैठे. राहुल गांधी कांग्रेस के संगठन में जो आमूलचूल परिवर्तन करना चाह रहे थे. उस पर सभी अपनी-अपनी सहूलियतों से अमल कर रहे थे. एक तरफ भाजपा का आक्रमण, दूसरी और विपक्षी खेमे की एकता में कांग्रेस की लीडरशीप को स्थापित करना, तीसरी और परिवारवाद का आरोप और चौथी और कांग्रेस की अंदरुनी खींचतान जिसमें सीनियर-जूनियर्स की महत्वाकांक्षाओं ने कांग्रेस को खोखला कर रखा है. बारिशों में जिस तरह कमजोर दीवारें ढह कर बंद कमरों को खुला कर देती है, ठीक वैसे ही एक के बाद एक जाते नेताओं की फेहरिस्त ने कांग्रेस के बंद कमरों की राजनीति को एक्पोज कर दिया.

चौतरफा घिरे राहुल गांधी की हालत ये हो गई कि सत्ता में लाना उनकी जिम्मेदारी लेकिन रणनीति और सिपाहेसालार तय करने का अधिकार नहीं . राहुल गांधी इसीलिए इस राजनीति से अलग होकर भारत यात्रा के रूप में अपनी राजनीतिक कड़ियां जोड़ने में लग गए. उन्हें पता है कि अगर वो चुनाव में खड़े होंगे तो उनके सामने कोई भी कद्दावर नेता नहीं आएगा, कांग्रेस के अंदरुनी खेमेबाजी फिर असर दिखाएगी. कहते हैं कि अगर आप आपकी ख्वाहिशें, सबके सामने आ जाएं तो दुनिया लाख चुनौतियां खड़ी कर देती है और अगर आप सारी ख्वाहिशें छोड़कर निवृत्ति दिखाएं तो सत्ता भी आपके चरणों में आ बिछती है. राहुल गांधी भी इसी राह पर हैं. जब पद पर थे तो कोई सुनता और समझना नहीं था और जब पद पर नहीं हैं तो उन्हें पदासीन करने के लिए एक के बाद एक कई प्रदेश कांग्रेस कमेटियां प्रस्ताव पास कर रही हैं. एक तरह से ये राहुल गांधी के लिए उनके नेतृत्व का लिटमस टेस्ट भी है और कांग्रेस के भीतर गुटबाजी को भांपने का अपना तरीका भी. ये राहुल गांधी भी जानते हैं कि उनका चुनाव लड़ना या न लड़ने के मुद्दे से कांग्रेस में फिलहाल तो उनके भविष्य पर असर नहीं डालेगा. हां अगर वो संगठन चुनाव नहीं लड़ कर नेता बने रहते हैं तो फिर एक तरह से कांग्रेस में उनकी वही मॉरल ऑर्थोरिटी स्थापित हो जाएगी जो कि सोनिया गांधी की है. याद कीजिए एक वक्त में सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए सारे कांग्रेसी एकजुट थे, सारी कोशिशें और कयासबाजियां शुरु हो गई लेकिन ऐन वक्त पर सोनिया गांधी ने पेशकश ठुकरा कर कांग्रेसियों के लिए त्याग की मिसाल कायम कर दी. कांग्रेस में गांधी परिवार के वफादार नेता राहुल गांधी के लिए कुछ ऐसी ही स्क्रिप्ट तैयार कर रहे हैं. ऐसी भूमिका जिसमें राहुल गांधी का अध्यक्ष बनना या न बनना गौण हो जाए, उनका नैतिक अधिकार इतना बड़ा हो जाए कि कम से कम उनके राजनीतिक काल में कोई ग्रुप 23 जैसा समूह तैयार न हो, कोई ऐसा नेता न हो जो उनकी मंशा की नाफरमानी कर सके. 

सोमवार, 7 दिसंबर 2020

#कृषि_बिल #kisan #bharatband

    कृषि बिल : सरकार का अरमान और किसानों का इम्तिहान..!

  

- विशाल सूर्यकांत

दरअसल, किसान मंडी में रखे तराजू में किसान अपनी फसल नहीं बल्कि पीढ़ियों के संबंध और भरोसा भी तोलता है। ऐसा नहीं है कि किसान मंडी कारोबारियों के रवैये से पूरी तरह से सन्तुष्ट रहता आया है। मंडी कारोबार में किसान के शोषण के किस्से दशकों से चले आ रहे हैं।  लेकिन देश में किसान और मंडी कारोबार दोनों साख, सौदा और संबंधों के पैमानों पर चलते हैं। कृषि कानून के समर्थन और विरोध से परे, देश में किसान और मंडी कारोबारियों के रिश्ते को समझना होगा । 

जहां बुवाई से पहले मंडी कारोबारी, एक सलाहकार भी बन रहा है, बुवाई के वक्त आर्थिक मददगार भी बन जाता है और फसल के मंडी में आने के बाद एक बेहद सख्त साहूकार भी बन रहा है। सहज संबंध और कम पैसों में ज्यादा फसल का सौदा...किसान और मंडी कारोबारी दोनों इस रिश्ते को जानते हैं, समझते हैं, झेलते भी हैं और निभाते भी हैं। इससे कतई इंकार नहीं कि मंडी कारोबार में किसानों का शोषण होता है, लेकिन इसके पीछे सिर्फ मंडी कारोबारी नहीं बल्कि सरकारों की नीतियां भी जिम्मेदार हैं। बजट घोषणाएं और अमल के बीच में किसान की जरूरत के व्यावहारिक पहलू सरकारी सिस्टम से गुम कर दिए गए हैं। किसान को अचानक जरूरत पड़ने पर मदद मिलने का कोई सिस्टम ठीक से विकसित ही नहीं हो पाया है। ज्यादा फसल हो तो सड़कों पर फेंकने की मजबूरी और कम फसल हो तो कर्ज भरने की दोहरी मार । इस सिस्टम से निजात दिलाने के लिए जो कुछ होना चाहिए था, क्या वाकई वो हो पा रहा है ?  आजादी के इतने सालों के बाद भी एक अदद पटवारी के भरोसे फसलों की बर्बादी की दास्तान सिर्फ 'आंखों देखे हाल' पर लिखकर किसान की किस्मत और मुआवजे की कीमत दोनों तय कर ली जाती है। कृषि कानून का विरोध कतई नहीं है, क्योंकि ये आज नहीं तो कल होना ही है, देश में कृषि की अर्थव्यवस्था बदलने के लिए नई व्यवस्था अवश्यमंभावी है। मगर मानवीय स्वभाव है कि अचानक कुछ अच्छा होता दिखे तो मन शंकाओं से घिर जाता है । धीरे-धीरे अच्छे वक्त का अहसास होता है...। हम मध्यमवर्गीय परिवारों को ही देख लीजिए, नई गाड़ी हो या मकान, हम पढ़े-लिखे होने के बावजूद सौदे से पहले और बाद में आशंकित रहते हैं कि कहीं सौदा गलत तो नहीं हो गया । सौदा करने वाले के हाव-भाव और उसकी बोली कैसी है,  ये सौदे की सबसे अहम कड़ी है । इस देश में रवायत रही है कि मीठी बोली से सौदों का रूख बदल जाया करता है, थोड़ा बहुत नफा-नुकसान भी बर्दाश्त कर लिया जाता है । 



"देश बदल रहा है, आगे भी बदलेगा । आज यह सरकार है तो कल किसी और की थी, आगे किसी और की होगी... यह तय है कि इस देश में कृषि कानून बरकरार रहेगा ...आज नहीं तो कल नई शक्ल में फिर सामने आएगा । ये देश की जरूरत भी है और जिम्मेदारी भी है कि अर्थव्यवस्था में कृषि को उसका वाजिब मुकाम दिलवाएं । " 

अभी देश की जीडीपी में सर्विस सेक्टर सबसे मुखर है...मगर 2008 की मंदी, नोटबंदी और कोरोनाकाल में सबसे ज्यादा लोगों को धोखा इसी सेक्टर ने दिया है। स्टार्ट अप्स तो खुद स्ट्रगल कर रहे हैं, कब देश की जीडीपी में हिस्सेदार बनेंगे यह भविष्य के गर्त में हैं । देश में एग्रीकल्चर सेक्टर ही इकलौता ऐसा सेक्टर है जो आजादी के बाद से अब तक बड़ी तादाद में आत्मनिर्भरता और आमदनी का जरिया बनता रहा लेकिन इसका दायरा वक्त के साथ सिमटता ही रहा है।

भारत में आजादी के वक्त, कृषि क्षेत्र का जीडीपी में  52 फीसदी से ज्यादा का योगदान था। अब यह सेक्टर घटकर 17 फीसदी से भी नीचे आ चुका है। खेत-खलिहानों से नई पीढ़ी दूर हो रही है। किसान का बेटा, अब खेतों में नहीं विदेशों में जाकर मजदूरी, कारोबार या नौकरी करना चाहता है। जो समझदार और पढ़े-लिखे या जमींदार किसान हैं उन्हें तो मालूम है कि कानून आए न आए, मंडी में जाना उनकी ज्यादा मजबूरी नहीं है। वो अपनी तरह से फसल भी तैयार कर लेते हैं और उसके लिए मुफीद बाजार भी खोज लेते हैं। असल मुद्दा तो छोेटे किसानों का है, जिन्होंनें खेत, गांव और मंडी से बाहर की कृषि जगत को देखा ही नहीं। 





एक तरफ बिल्कुल अनभिज्ञता और दूसरी तरफ अंतर्राष्ट्रीय स्तर की विशेषज्ञता...खेती क्या कोई भी सौदा संतुलित नहीं हो सकता । क्योंकि किसान को हमनें उसके दायरे से निकलाने की राजनीतिक,सामाजिक कोशिशें कभी नहीं की और अब सरकारें चाहती आर्थिक दायरा बढ़ा दिया जाए। पहले किसान जहां रह रहा है, उन परिस्थितियों को समझने की जरूरत है। भारत की तरक्की के साथ कृषि क्षेत्र की तरक्की के लिए क्या किया गया है। रसायनिक खाद,लोन,मुआवजा,सालाना कम या ज्यादा उत्पादन, बस इन शब्दों के दायरे से बाहर खेती को देखा ही नहीं गया। पीढ़ियों से चली आ रही किसान की मनोस्थिति को एक कानून से बदल संभव नहीं है। आजादी के वक्त जीडीपी में 52 फीसदी हिस्सा रखने वाला कृषि सेक्टर जीडीपी के पायेदान पर गिरते-गिरते 17 फीसदी पर आ चुका है। खेती और गांव-देहात आर्थिक रूप से उपेक्षा के शिकार और सामाजिक रूप से उपहास का विषय बन गए। 



अर्थव्यवस्था की मजबूत ताकत, विकास की राहों में पिछड़ती गई।  बड़े किसानों की बात मत कीजिए, बात उन किसानों की कीजिए जिनके पास पैसा नहीं है और जमीन भी सीमित है। उसे साहूकार और मंडी व्यापारियों के चंगुल से कैसे आजाद करवाएंगे ? कहीं एक अव्यवस्था को उजाड़ने के फेर में नई अव्यवस्था को जन्म तो नहीं दे रहे हम, इसे समझने की जरूरत है। ‘उत्तम खेती, मध्यम बान, अधम चाकरी की कहावत कहने वाले देशम में नौकरियां ही सर्वोपरि हो चली हैं।  गांव से शहर जाने की होड़ लगी है और युवाओं का खेती से मोह भंग होता जा रहा है। जब किसान परिवार की नई पीढ़ी कृषि को अपनाने में हिचक रही है तो दूसरे परिवारों के लिए तो खेतों का जिक्र ही बेमानी है।


भारत में 13.78 करोड़ कृषि भूमि धारक किसानों में 11 करोड़ से ज्यादा छोटे और मझोले किसान हैं। राजनीतिक दलों के किसान प्रकोष्ठ से लेकर आंदोलन तक ये किसान, पीछे ही खड़े हैं। आगे की कमान बड़े किसानों के पास, वो जो कहें, करें वहीं देश में कृषि की तक़दीर तब भी बनती आ रही थी और आज भी बन रही है। सरकारें सब्सिडी़, मुआवजा, एमएसपी को भुनाकर वोट साधने में लगी रहती हैं। एमएसपी की अच्छी दर लेकिन फसल की कम खरीद, ये ऐसा फार्मूला है जो हर आती-जाती सरकार के वक्त आज़माया जाता रहा है। देश में कहा जाता रहा है कि महिलाएं कंधे से कंधे मिलाकर साथ चल रही हैं लेकिन जहां महिलाएं पुरुषों से ज्यादा काम करती नजर आती हैं, उस कृषि क्षेत्र में पारिवारिक पृष्ठभूमि की महिलाओं के उत्थान के लिए सरकार की योजनाएं कितनी कारगर साबित हो रही हैं ? 

देश की जीडीपी में सबसे ज्यादा विकास उस सेक्टर ने किया है जो सबसे ज्यादा अनिश्चिन्तताओं का शिकार है । चाहे वो 2008 की ग्लोबल मंदी हो ,नोट बंदी हो या फिर कोरोना काल की मंदी, जब इस सेक्टर की सबसे ज्यादा जरूरत है तब ही यह सबसे ज्यादा पंगू साबित हो रहा है। संकट आया नहीं कि बेरोजगारों की फौज बढ़ना शुरू हो जाती है। अभी का हाल किसी से छिपा नहीं । 

आत्मनिर्भरता के लिए शुरू हुए स्टार्ट अप्स का खुद अभी संक्रमण काल है, कब ये ताक़तवर बन कर देश की जीडीपी संवारने लगेंगे, इसका जवाब भविष्य के गर्त में है। इसीलिए देश में एग्रीकल्चर सेक्टर ही इकलौता ऐसा सेक्टर है जो आजादी के बाद से अब तक बड़ी तादाद में आत्मनिर्भरता और आमदनी का बड़ा जरिया बना है। इसमें सुधार से किसान ही नहीं बल्कि देश की भी तकदीर बदल सकती है । मगर मुद्दा यह है कि कृषि क्षेत्र में सबसे बड़ा जो स्टेक हॉल्डर किसान है वो कंपनियों के साथ सौदे के लिए मन से तैयार नहीं हो पा रहा..देश में जहां-जहां छोटे प्रयोग हुए हैं वहां निजी कंपनियों का अतिरेक ही ज्यादा सामने आया है । किसान इस देश की आत्मा है । आत्मा से संवाद जरूरी है, आत्मा की संतुष्टि जरूरी है । जिंदगी में कई सौदे सिर्फ नफ़ा-नुकसान ही देखकर नहीं होते...रिश्ते और भरोसे का पुट कई सौदों का दायरा बढ़ा भी सकता है और सौदे को खत्म भी कर सकता है । समर्थन और विरोध की नारेबाज़ी के बीच हमें इस बात के मर्म को भी समझना होगा ।


रविवार, 26 जुलाई 2020

#RajasthanPoliticalCrisis -प्रदेश की राजनीति में बाडाबंदी संस्कृति पर विधायकों के नाम खुला पत्र ...

     अति सर्वत्र वर्जयेत – (1) 
जनप्रतिनिधि या चुनी हुई कठपुतलियां..!!!
 
  .  देश में पनपती बाड़ाबंदी संस्कृति के विरुद्ध विचारों का मुक्त प्रवाह 
. लोकतंत्र में बाड़ाबंदी की बढ़ती रवायत पर खुला पत्र 
        . देश-प्रदेश की राजनीतिक परम्परा और जनता के मन की बात  

   

         - विशाल सूर्यकांत

श्रीमान,

सभी विधायक महोदय
 
राजस्थान की गांव-ढ़ाणियों में शाम ढ़लते ही जमने वाली 'सजग' चौपालों पर यकीनन यह सवाल उठ रहा होगा कि 'अपना' नेता 'होटल-रिसोर्ट' में क्यों जा बैठा है। कुछ समर्थक होंगे तो कुछ विरोधी, मगर एक बात पर सभी के मन में शंका होगी कि नेताजी का 'खेल' क्या है। माननीय महोदय, क्या आप जनता को बता पाएंगे कि नेता का समर्थन और विरोध तो आप अपने कार्यकर्ताओं के साथ भी कर सकते थे। अचानक आपका इस तरह कैद हो जाना क्यों जरूरी था ?... विधायक दल में सेंधमारी का खतरा था, ये कहा जाना आपकी नैतिक पर सीधे सवालिया निशान है। क्या आप इतने सहज उपलब्ध थे ? 

 

राजस्थान विधानसभा - फाइल फोटो
     
राजनीतिक घटनाक्रमों में आपका बर्ताव, कहीं आपको जनता के मन में स्वीकार्य के बजाए संदिग्ध न बना दे। एकजुटता दिखाने के लिए एक साथ रहना पड़े तो इसे एकजुटता नहीं बल्कि ‘आपस में अविश्वास की अवस्था'  कहा जाता है। 

 


इस वक्त आप होटल या रिसोर्ट में बैठें हैं , तो यकीकन भरपूर फुरसत होगी...। खुद से पूछिएगा कि कहीं ये घटनाक्रम आपकी निष्ठा, ईमानदारी, आपकी नैतिकता पर सवाल तो नहीं खड़े कर रहा। 
राजस्थान विधानसभा में कुछ विधायक संख्या -200 सदस्य 

आपका यूं होटल-रिसोर्ट में चले जाना हैरान करने वाला है। अपने क्षेत्र ने आपका भरपूर साथ दिया, तभी विधायक बनें, फिर डर किस बात का है। चुनावों में जात-पात के झंझावतों से गुजरे हैं, आरोप-प्रत्यारोप और गुटबाजी के समंदर से निकल कर विधायक बने हैं। कोरोना के इस वक्त में, क्या आपका इस तरह छिप जाना मुनासिब है ? आप तो लीडर हैं  तो फिर ये कैसी लीडरशीप है ...

 



माननीय, आगे थोड़ा कड़वा कथन है। इसके लिए माफी लेकिन कहना जरूरी है कि आप तो सूदखोर साहूकार से भी निचले स्तर पर चले गए। जिस तरह एक निष्ठुर साहूकार, जनसंकट में भी अपनी तिजोरी नहीं खोलता। ठीक वैसे ही आप भी कोरोना काल में, जनता को वोटबैंक की तिजोरी में बंद कर चुके हैं। जनता के दुख-दर्द में काम आने का 'सूद' तो आपको चुकाना था। मगर आप तो खुद ही होटल,रिसोर्ट में जाकर किसी ''साहूकार की तिजोरी'' बन बैठे। अब भी वक्त है तिजोरी का दरवाजा तोड़िए, बाहर आइए। आपकी इच्छा के बिना न तो राजनीतिक सेंधमारी संभव है और न ही बाड़ाबंदी।

 
   ये आपके सम्मान के विरूद्ध है। जनता के विश्वास के विरुद्ध है। ये आपकी छवि को जनता में बिगाड़ कर रख देगी। देश-प्रदेश में कोरोना से जनता त्राहिमाम कर रही है।राजस्थान में कोरोना रोज एक हजार लोगों को संक्रमित कर रहा है। आपकी विधानसभा क्षेत्र में भी संक्रमण फैल रहा है। सोशल डिस्टेसिंग पर उपदेश आपने भी बहुत दिए हैं, आप खुद कितना अमल कर रहे हैं वो भी जनता देख रही है। सरकार बनाने और गिराने के खेल पहले भी होते रहे हैं लेकिन चुने हुए जनप्रतिनिधियों का दुरुपयोग दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है।  

कोरोना की वजह से रोजगार ,उद्योग धंधे सब बेपटरी है। सिर्फ जनता ही नहीं, आपको चुनावी चंदा देने वाले लोगों के भी कारोबार ठप्प पड़े हैं। यहां सवाल, मुद्दा सरकार के रहने या जाने या राजनीतिक टीका-टिप्पणियों का नहीं है। सवाल तो है आपकी गरिमा और आपको मिले वोटों के सम्मान का है। किसी का भी समर्थन कीजिए, विरोध कीजिए ये आपका हक है।

मेरा मुद्गा इतना भर है कि होटल-रिसोर्ट में 'बंधक' कहलाने के बजाए जनता के बीच जाइए। लोगों को यह मालूम होना चाहिेए कि आपकी जीत कोई जातीय समीकरण और तत्कालिक परिस्थितियों का तुक्का नहीं थी बल्कि आज भी जनता के विश्वास का तीर आपके तूणीर (तरकश) में हैं। इसके दम पर अब चाहें उस पर निशाना साध सकते हैं। 

विधायकों का इस बार बाडेबंदी के लिए हरियाणा जाना राजस्थान के राजनीतिक इतिहास की अप्रत्याशित घटना है। यह बताता है कि आपका अपने आप पर भी भरोसा नहीं। इसी तरह सरकार का विधायकों के साथ होटल में चले जाना भी स्वीकार्य नहीं। मुद्दा यह है कि इतने दिनों से राजभवन क्यों चुप है। क्यों नहीं फ्लोर टेस्ट करवा कर इस विवाद को खत्म कर देता। कोरोना में क्या विधानसभा से ज्यादा सुरक्षित जगह होटल और रिसोर्ट हैं ! 

चाहे राजस्थान के विधायकों का हरियाणा जाना हो या फिर मध्यप्रदेश, गुजरात,कर्नाटक के विधायकों का राजस्थान में पॉलिटिकल ट्रयूरिज्म ..घटनाएं नई है, क्रम वही पुराना है। इसे चुनी हूई सरकारों के प्रति साजिश कह दीजिए या असंतोष की चिनगारियां...अपनी-अपनी राजनैतिक सुविधा के हिसाब से धारणाएं बनाई जा सकती हैं। मगर सवाल यह है कि इतने दिनों से होटल-रिसोर्ट में चाहे-अनचाहे 'बंधक' बना जनप्रतिनिधि, लोकतंत्र में विश्वास जगा पाएगा ..? 

यह घटनाक्रम आपको जनप्रतिनिधि नहीं बल्कि 'केटल मार्केट की खुली मंडी' में बिठा रहा है। पार्टी के किसी नेता का विरोध और समर्थन आपका हक़ हो सकता है। लेकिन याद रखिएगा' आपसे मिलना 'जनता का हक' है। होटल,रिसोर्ट में ये बाडाबंदी आपकी विश्वसनीयता, नैतिकता और स्वीकार्यता पर 'संदिग्धता' का मुलम्मा' चढ़ा रही है। 

याद कीजिए, पहली जीत के बाद आपने जनता से क्या कहा था और क्या हो रहा है। सत्ताएं तो आनी-जानी है, आपकी असल ताकत 'राजस्थान की जनता' है। समर्थन या विरोध आपका हक़ है, लेकिन वो जनता के बीच होना चाहिए। अगर आप चाहें तो राजनीति में बढ़ती होटल-रिसोर्ट में बाडाबंदी / चुनी हुई सरकार में सेंधमारी की संस्कृति खत्म करने का भी ये निर्णायक मौका भी बन सकता  है।

 



वैसे इन सब स्थितियों के लिए अकेले विधायक ही जिम्मेदार मानना भी ठीक नहीं। इस दौर में, जनप्रतिधियों की स्थिति 'चुनी हुई कठपुतलियों से कम नहीं' है। जनता का विश्वास तो पांच साल में एक बार जीतना होता है लेकिन इसके बाद बड़े नेताओं का विश्वास जीतने गाहे-बगाहे अक्सर परीक्षा देनी पड़ती है। ये हमारे राजनीतिक कल्चर का हिस्सा बन गया है कि चुने जाने के बाद भी जनप्रतिनिधि, जनता और आला नेता के बीच चक्कर काटता रहता है। काम न हो जनता घेरेगी, काम करवाना है तो नेताजी की मिजाजपुर्सी करनी होगी। सरकार बनी तो मंत्री बनने, न बनने का मुद्दा जबर्दस्त रूप से हावी रहता है।दरअसल, जनप्रतिनिधि, सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष की रणनीति का मोहरा बन चुके हैं। इस दौर में तमाम संवैधानिक और राजनीतिक ओहदेदारों की जिम्मेदारी बनती हैं कि वो कठपुतली कल्चर को खत्म करने में अपनी भूमिका निभाएं। विपक्ष को चाहिेए कि जनता का मेंन्डेट है, तो पांच साल का सब्र जरूरी है । अनावश्यक जल्दबाजी, और सेंधमारी की कोशिशें, लोकतंत्र के आत्मा को कलुषित कर देगी। 

प्रधानमंत्री से  लेकर सरपंच तक, विधानसभा अध्यक्ष,मुख्यमंत्री से नेता प्रतिपक्ष तक,  दलों के राष्ट्रीय और प्रदेश अध्यक्षों तक, पूरी व्यवस्था को तय करना होगा। आपके कदम, देश-प्रदेश में भविष्य की राजनीति के लिए भी रास्ते तैयार कर रहे हैं। हर राजनीतिक घटनाक्रम का पटाक्षेप, अगर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में हो रहा है, इसका मतलब साफ है कि किसी बड़े ओहदेदार ने अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई। आपकी चुप्पी/उदासीनता/ आपका प्रश्रय,  कहीं छोटे लाभ के लिए पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर 'पॉलिटिकल फंडिंग करने वाले एजेंट्स' को हावी न कर दे। 

vishal.suryakant@gmail.com
Contact- 9001092499

 

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

#RajasthanPoliticalCrisis होगा सरकार का भविष्य ? क्यों जरूरी विधानसभा सत्र, #rajasthan की राजनीति में हो रहे घटनाक्रम पर जनता के मन की बात..

अति सर्वत्र वर्जयेत..!



- विशाल सूर्यकांत

राजस्थान में जो कुछ घटनाक्रम हो रहा है वो 'अति' बनता जा रहा है । सरकार या विरोधी गुट में अतिसमर्थन,अतिविरोध, अतिवादी बयान के बीच सब कुछ राजनीतिक अतिरेक की ओर चला जा रहा है। सबसे पहले सरकार के अतिरेक को समझिए।  सरकार को उम्मीद थी कि पायलट गुट और कांग्रेस की जंग में भले ही बीजेपी शामिल हो जाए लेकिन राजभवन कतई शामिल नहीं होगा। दरअसल, राजभवन में राज्यपाल बनकर आए कलराज मिश्र और मुख्यमंत्री गहलोत की बीच अच्छी बांडिंग भी नजर आ रही थी। ऐसा लगा कि राजनीति से उपर रिश्ते हैं तो राजस्थान में कभी टकराव के हालात नहीं बनेंगे।  मगर अब राजभवन और मुख्यमंत्री निवास के बीच तल्ख चिठ्ठियों का दौर चल पड़ा है और बीजेपी ने भी इसे मुद्दा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। राजभवन के जनता द्वारा घेराव करने और अपनी कोई जिम्मेदारी न होने के बयान पर बीजेपी के साथ-साथ राजभवन में खासा आक्रामक हो चला है। घेराव को लेकर सख्त बयान दे चुके मुख्यमंत्री गहलोत इन दिनों अलग मूड में है।
 
दरअसल, केबिनेट के फैसले के बाद भी कांग्रेस के नेताओं का आरोप है कि राजभवन जानबूझ कर विशेष सत्र बुलाने में तकनीकी पेंच फंसा रहा है। इधर, राजभवन भी सत्र आहूत करने में फिलहाल ज्यादा जल्दबाजी नहीं दिखा रहा है। इस बीच राजभवन में 27 साल बाद, फिर घटनाक्रम का दोहराव हुआ। तब मुख्यमंत्री बनने के लिए भेरोंसिंह शेखावत का धरना तो अब सरकार का बचाव करने विशेष सत्र  की मांग पर मुख्यमंत्री गहलोत, बहुमत के साथ धरने पर दे आए। उसी राजभवन में तमाम विधायकों का धरना था, जहां कई विधायकों ने मंत्री पद की शपथ ली थी। ये बिरला मौका है जब सरकार खुद आगे चलकर अपना विश्वास मत साबित करना चाह रही है  और विपक्ष की इसमें तनिक भी दिलचस्पी नहीं है। दरअसल, पायलट और बीजेपी दोनों को, सरकार का फ्लोर पर आना सूट नहीं करता। क्योंकि विशेष सत्र में किसी मुद्दे पर चर्चा में संकल्प प्रस्ताव पारित करवा कर गहलोत सरकार पायलट कैंप के विधायकों को जयपुर लौटने न सिर्फ मजबूर कर देगी बल्कि  किसी न किसी संकल्प प्रस्ताव को लाकर पार्टी व्हिप लागू कर देगी। ऐसी सूरत में विधायक न आए या विपरीत गए तो कार्रवाई होगी और सरकार का साथ दिया तो अलग मैसेज जाएगा। इसका फायदा, सरकार को यह भी मिलेगा कि पूरे छह महीने की 'पॉलिटिकल इम्यूनिटी' सरकार को मिल जाएगी। इसी रणनीति पर अलग-अलग लोग काम कर रहे हैं। मगर केबिनेट नोट के बावजूद विधानसभा सत्र नहीं बुलाया गया, अब तकनीकी रूप से स्पष्ट कर दूसरा नोट भेजा गया है। 21 दिन तक राजभवन अगर सत्र को टालने का कोई तकनीकी रास्ता निकाल ले तो फिर सरकार को होटल से बाहर आना पड़ेगा, विधायकों के फ्री होते ही एक जोर और लगाने की तैयारी हो चुकी है। 21 दिन मिल जाएं तो नंबर गेम से पासा पलटने का खुला खेल हो सकता है। इसीलिए सरकार 'आज और इस वक्त' की नीति अपनाए हुए हैं। उधर, राजभवन का तकनीकी परीक्षण अभी खत्म नहीं हुआ है। राजभवन और सरकार के बीच बनी ये स्थितियां  'अविश्वास का अतिरेक नहीं तो क्या है

  


राजस्थान की राजनीति में चल रहे इस धारावाहिक में एक किरदार, केन्द्र सरकार का भी है। प्रदेश में भी वो सब कुछ हो रहा है, जो बीते समय में बाकी राज्यों में हुआ है। यहां केन्द्र सरकार की एजेंसियां जिस रूप में अति सक्रिय हुई है्ं,  उसके पीछे संवैधानिक सवाल भले ही न खड़े किए जा सकें लेकिन नैतिकता और राजनीतिक द्वेष की कार्रवाई की जनचर्चाएं कौन रोक सकता है। क्यों और किस-किस पर छापे मारे जा रहे हैं। आम दिन होते तो फिर भी गले उतारा जा सकता था। इस वक्त  के घटनाक्रम केन्द्र और राज्य सरकार के बीच की तल्खी के अतिरेक को बता रहे हैं। 



 अब जरा पायलट गुट के राजनीतिक अतिरेक पर भी गौर कीजिए। अपनी ही सरकार, अपने ही राज्य की मशीनरी पर एक पार्टी अध्यक्ष और उपमुख्यमंत्री रहे व्यक्ति का अविश्वास अपने आप में अतिरेक है। दूसरा अतिरेक यह कर बैठे कि उस हरियाणा राज्य को अपनी शरण स्थली बना लिया जो बीजेपी प्रशासित राज्य है। तीसरा अतिरेक यह कि राजस्थान पुलिस की कार्रवाई से उन्हें हरियाणा पुलिस बचाने में लगी है। ये पूरा घटनाक्रम पायलट और कांग्रेस के बीच का तो है ही, मगर दो राज्यों में विशुद्ध राजनीतिक घटनाक्रम में दखलअंदाजी का मामला बनता है। ऐसा अतिरेक पहले भी कई बार होता रहा है। 

दरअसल, पायलट कैंप में बेचैनी है कि अगर विधानसभा सत्र बुला लिया जाएगा तो पार्टी का व्हिप लागू होगा। विधानसभा में आए तो मुसीबत, न आए तो मुसीबत। सरकार के कोई  ऐसा प्रस्ताव जिसमें व्हिप हो, उसका समर्थन किया तो अब तक किया गया विरोध बेकार चला जाएगा, समर्थन न किया तो सदस्यता चली जाएगी। पायलट कैंप के सूत्र बता रहे हैं कि विधायकी छोड़ने में भी कोई संकट नहीं लेकिन ऐसा हो भी जाए और सरकार का बहुमत कायम रहे तो ऐसा 'बलिदान' किस काम का ? ऐसा तो तब हो जब संख्याबल में ये स्थितियां बन जाएं कि हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी ले डूबेंगे...


अब बात बीजेपी के अतिरेक की...


राजस्थान से जीत कर दिल्ली में बैठे बीजेपी नेताओं की सक्रियता में ये अतिरेक का दौर नहीं तो क्या है ? राज्य इकाई में न सतीश पूनिया उतने आक्रामक हैं और न गुलाबचंद कटारिया और राजेन्द्र राठौड़ । पूर्व मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे की 'सनसनीखेज चुप्पी' के पीछे राज को टटोलने में राजनीतिक पंडितों की खासी दिलचस्पी है। मगर केन्द्रीय मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत के बयानों में आक्रामकता बहुत कुछ कह रही है। कांग्रेस भी इस घटनाक्रम में उन्हीं पर टारगेट किए बैठी है। दरअसल, बीजेपी में अंदरुनी राजनीति का भी ये अतिरेक नहीं तो क्या है ? राजस्थान बीजेपी को मालूम है कि इस पूरे घटनाक्रम में लक्ष्य कहां तक साधना है। ये संकट कांग्रेस के भीतर ही रहे या फिर इतना बढ़ जाए कि राष्ट्रपति शासन लग जाए। इसके आगे की बात कोई नहीं करना चाहता। क्योंकि ये सरकार अगर गिर जाए तो बीजेपी के अंदरुनी घटनाक्रमों का अतिरेक बाहर आने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। 

इन सारे पहलूओं को जनता देख रही है। पार्टी पॉलिटिक्स का ये घमासान जनता को हैरान किए हुए हैं। यह मामला यहीं थम जाए तो बेहतर हैं अन्यथा राजस्थान की राजनीति में आने वाले वक्त में ऐसे कई घटनाक्रम होते दिखेंगे जो लोकतंत्र के पतन को और अधिक अधोगति देने वाले हों। राजनीति के बदले किरदारों में जनता हर किरदार का अतिरेक देख रही है। संस्कृत श्लोक की उक्ति यहां सटीक बैठती है - अति सर्वत्र वर्जयेत ...

#RajasthanPoliticscrisis राजस्थान की राजनीति का अगला अध्याय फिर राजभवन लिखेगा..!

क्या राजस्थान की राजनीति का अगला अध्याय फिर राजभवन लिखेगा ..! 

. राजस्थान की राजनीति में फिर दोहराया जा रहा 27 साल पुराना किस्सा

. तब भैरोंसिंह शेखावत, आज  धरने पर गहलोत

. तब - सरकार बनाने का जतन ,अब - सरकार बचाने के लिए धरना
. तुरंत विधानसभा सत्र चाहती है गहलोत सरकार   




 - विशाल सूर्यकांत

राजनीति में किस्से कभी पुराने नहीं होते , ताजा सियासी हवा क्या चली, अतीत के पन्नों पर जमी गर्द अपने आप झड़ जाती है, लिखी इबारत फिर प्रासंगिक हो जाती है । दशकों पहले की घटनाएं नई शक्ल हासिल कर फिर सामने आ जाती है। राजस्थान में आज राजभवन में मुख्यमंत्री और विधायक दल के धरने के घटनाक्रम को ही लीजिए। 27 साल बाद, फिर एक मुख्यमंत्री राजभवन पर धरने में बैठे हैं। फर्क बस ये है कि पहले धरना सरकार बनाने के लिए था तो अब सरकार बचाने के लिए ...पहले भी हुआ है ऐसा हाई वोल्टेज " पॉलिटिकल ड्रामा " ...

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपने विधायकों के साथ राजभवन में धरने पर बैठ गए। न ये घटनाक्रम पहला है और न हीं इस तरह की सियासत। आज गहलोत हैं तो कल भेरोंसिंह शेखावत थे। बदलते किरदारों में पुराना किस्सा किस तरह प्रांसगिक हो चला है...ये जानने के लिए आपको मेरे साथ 1993 के दौर में चलना होगा। क्योंकि राजभवन में मुख्यमंत्री के धरने के इस आइडिए के जनक गहलोत नहीं, भेरोंसिंह शेखावत हैं। गहलोत उन्हीं की राह पर चल पड़े हैं।  

दरअसल, हुआ यूं कि 1993 में राजस्थान विधानसभा चुनावों में त्रिशंकु विधानसभा बनी। यानि किसी भी दल को बहुमत नहीं। हां मगर सिंगल लार्जेस्ट पार्टी के रूप में भाजपा को बढ़त जरूर मिली। ये वाकिया बाबरी केस में बर्खास्त हुई सरकारों के बाद का है। देश भर में बीजेपी सरकारें बर्खास्त हुई। राजस्थान में फिर चुनाव हुए और परिणामों में किसी को बहुमत नहीं मिला। राजभवन एक्टिव होना लाजमी था। सरकार बनाने का रास्ता खोजे। 
जैसे आज आरोप लग रहे हैं, ठीक वैसे तब भी लगे थे। आज की तरह उस वक्त भी बलिराम भगत की भी 'मजबूरी' सियासी बयानबाजियों में छाई रही। 

          

                                               
        स्व.बलिराम भगत- 1993, तत्कालीन राज्यपाल, राजस्थान ( फोटो- इंटरनेट पर उपलब्ध)


दरअसल, उस वक्त में राजस्थान विधानसभा का घटनाक्रम जिस रूप में था, उसमें भारतीय जनता पार्टी के बहुमत के जादुई आंकडे से चंद कदम दूर रह गई और 95 सीटों पर बीजेपी का रथ रूक गया। 

ये घटनाक्रम बाबरी ढांचा गिराने के बाद का है। उस वक्त देश में बीजेपी सरकारें बर्खास्त की गई। राजस्थान में फिर चुनाव हुए मगर किसी को बहुमत नहीं मिला।  बीजेपी के पास 95  विधायक थे तो  कांग्रेस के पास 76 का नंबर।  सत्ता का सारा खेल, जनता दल और निर्दलियों पर जा टिका। जनता दल के 6 और21 निर्दलियों को लेकर खूब दांव-पेंच लड़ाए गए।  

राजस्थान विधानसभा में 1993 में ये थी स्थिति

भारतीय जनता पार्टी – 95

कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया –1

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस -76

जनता दल – 6

निर्दलीय -21

          स्व.हरिदेव जोशी,पूर्व मुख्यमंत्री,राजस्थान (फोटो- इंटरनेट पर उपलब्ध) 


दूसरी पार्टियों और निर्दलियों को साधने में कांग्रेस में हरिदेव जोशी और बीजेपी में भेरोंसिंह शेखावत, सरकार बनाने के लिए जरूरी नंबर गेम में जुट गए। उधर, राजभवन ने सिंगल लार्जेस्ट पार्टी बनी बीजेपी के बजाए कांग्रेस विधायक दल में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई।
उस वक्त के राजनीतिक पत्रकारों का कहना है कि बलिराम भगत मन बना चुके थे कि हरिदेव जोशी ही शपथ लेंगे, चाहे विरोध रोकने के कर्फ्यू भी क्यों न लगाना पड़े। सेकेंड पार्टी को सरकार बनाने का न्योता भी दे दिया गया। 
 

                            स्व.भैरोंसिंह शेखावत,पूर्व मुख्यमंत्री, राजस्थान

उस वक्त में भैंरोंसिंह शेखावत ने राजभवन में धरना देकर शानदार बाउंस बेक किया। सत्ता हासिल करने के लिए शेखावत ने वो दांव अजमाया जो राजस्थान की राजनीति में अब तक नहीं हुआ था। दरअसल,वे अपने साथ जनता दल और कुछ निर्दलियों को जोड़ने के बाद संख्याबल को लेकर विश्वस्त हो चुके थे। धरने की वजह से ऐसी स्थितियां बनी कि बलिराम भगत ने अपना निर्णय बदला, भेरोंसिंह शेखावत को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया और शेखावत ने मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले ली।
                   अशोक गहलोत, मुख्यमंत्री,राजस्थान

राजस्थान के मौजूदा मुख्यमंत्री गहलोत भी इसी राह पर चल पड़े हैं। लेकिन इस बार सरकार बनाने का नहीं, सरकार बचाने का दांव है। केबिनेट के जरिए विधानसभा का विशेष सत्र बुलाने का प्रस्ताव पारित करवा कर राजभवन को भेज दिया गया है। राजभवन को इस पर फैसला लेना है। राजभवन में धरने की स्क्रिप्ट तो हूबहू लिख दी गई है लेकिन राजस्थान की राजनीति के नाटक का अगला अध्याय अब राजभवन लिखेगा, ये तय है। 

सोमवार, 13 जुलाई 2020

#Breaking : #RajasthanPoliticalCrisis में कीजिए #PilotVSGehlot जंग में आगे क्या होने वाला है ..#Rajasthan की बात, विशाल सूर्यकांत के साथ ...

तकरार आर-पार, दोनों गुट चुनाव के लिए भी तैयार..! 




 #Breaking - कांग्रेस विधायक दल में अनुशासन की कार्रवाई को लेकर प्रस्ताव पारित, पायलट को कांग्रेस अध्यक्ष से हटाया, गोविंद सिंह डोटासरा बने नए अध्यक्ष, कई बार मनाने के बावजूद नहीं आए सचिन पायलट विधायक दल की बैठक में 101 विधायक मौजूद , बीटीपी के विधायक राज कुमार रोत के हवाले से गहलोत कैंप पर दबाव डालने का वीडियो सचिन पायलट की टीम ने जारी किया। 

- विशाल सूर्यकांत 


 राजस्थान की राजनीति में जिस रूप में घटनाक्रम बदल रहे हैं धीरे-धीरे समझौते की गुंजाइश भी खत्म होती जा रही है। मुख्यमंत्री गहलोत और उपमुख्यमंत्री व प्रदेश अध्यक्ष के बीच अब बात राजी-नाराजगी से काफी आगे बढ़ चुकी है। पायलट के साथ 18 विधायक साफ तौर पर दिख रहे हैं। लेकिन दावा यह कि संख्या बल और ज्यादा है, फ्लोर टेस्ट में सब स्पष्ट हो जाएगा। वहीं मुख्यमंत्री गहलोत कैंप इस मामले में शुरू से आर-पार के मूड में है। क्योंकि ये एक महीने में दूसरी बार सरकार को अस्थिर करने की कोशिशें हुई है। घटनाक्रम में आईटी और ईडी की कार्रवाइयों ने दोनों गुटों के बीच आग को और भड़काने का काम कर लिया है। राजस्थान के घटनाक्रम में सचिन पायलट अगर 36 विधायक अपने साथ जुटा लेते हैं तो ऩए दल के रूप में मान्यता मिल सकती है अन्यथा दलबदल कानून के दायरे में आएंगे। सवाल यह है कि सचिन पायलट कैंप में क्या वो लोग हैं जो अपनी विधायकी दांव पर लगाकर भी सचिन पायलट के साथ बने रहें। दरअसल, राजस्थान में ये घटनाक्रम अचानक नहीं बदला है,दोनों गुटों की ओर से इसकी स्क्रिप्ट पहले तैयार कर की जा चुकी हैं। गहलोत कैंप रघुवीर मीणा के रूप में नया प्रदेशाध्यक्ष भी तलाश कर चुका है, हर नेता का विकल्प तैयार कर लिया गया है। फ्लोर टेस्ट में अगर संख्याबल कम हुआ तो राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, फिर से चुनाव में जाने की बात भी कह चुके हैं। इधर, सचिन पायलट के विरुद्ध 120 बी की धारा, यानि राजद्रोह के मामले में पुलिस एजेंसियों ने नोटिस भेजा है। गहलोत कैंप के लोगों का दावा है कि उनके पास ऐसे इनपुट्स हैं कि सरकार को अस्थिर करने की साजिश के तार सीधे रूप से कई नेताओं से जुड़ रहे हैं। पायलट कैंप के विधायकों को डर है कि गहलोत इस मामले में गिरफ्तारियां भी करवा सकते हैं। 


आलाकमान को पूरे घटनाक्रम का पहले से पता है, इसीलिए वो कोशिशें भी सधे रूप में कर रहा है। अविनाश पांडे और रणदीप सिंह सूरजेवाला लगातार पायलट कैंप से लौट आने की अपील भी कर रहा है। लेकिन पायलट समर्थक आज भी विधायक दल की बैठक में शामिल होने को तैयार नहीं, उन्हें इंतजार है विधानसभा पर होने वाले फ्लोर टेस्ट का, जहां उनका दावा है कि गहलोत के साथ नजर आ रहे कई विधायक भी उनका साथ देंगे और सरकार को गिराया जा सकता है। 


आलाकमान की डेमेज कंट्रोल टीम

 के.सी.वेणुगोपाल, प्रदेश प्रभारी महासचिव अविनाश पांडे, अजय माकन,रणदीप सिंह सूरजेवाला 
 नेपथ्य में - अभिषेक मनु सिंघवी, पी.चिदम्बरम, कपिल सिब्बल 



पायलट के साथ कितने विधायक...



दिल्ली में व्यक्तिगत रूप से 18 विधायक नजर आ रहे हैं। लेकिन असल संख्या फ्लोर टेस्ट में सामने आने का दावा किया जा रहा है। दरअसल, सचिन पायलट के साथ या तो बिल्कुल नए युवा विधायक और पहली बार विधायक बने लोग हैं, जिन्हें लगता है कि पायलट के सहारे वो अगली पंक्ति के नेताओ में शामिल हो सकते हैं। इन टीम में प्रत्यक्ष रूप से तो मुकेश भाकर, वेदप्रकाश सोलंकी, रामनिवास गावड़िया,राकेश पारीक पायलट कैंप की ओर से भेजे गए वीडियो में नजर आ रहे हैं। आश्चर्यजनक रूप से दानिश अबरार, प्रशांत बैरवा, चेतन डूडी, रोहित बोहरा जैसे नेता पायलट के ईर्द-गिर्द दिखते रहने के बावजूद अब गहलोत कैंप में आ चुके हैं। सीएमओ में बकायदा प्रेस कांफ्रेंस कर इन युवा नेताओं ने कहा कि हमारे परिवार पीढ़ियों से कांग्रेस के साथ हैं। इसीलिए पायलट के साथ तब तक ही हैं, जब तक वो कांग्रेस से भीतर होंगे। पायलट के साथ तीसरी केटेगरी के वो नेता हैं , जो राजस्थान की राजनीति में दिग्गज रहे हैं लेकिन मौजूदा सरकार में जिनकी पूछ-परक नहीं हो रही । जिनमें भरतपुर के पूर्व महाराज विश्वेन्द्र सिंह, शेखावटी के दिग्गज नेता भंवरलाल शर्मा, पूर्व राजस्व मंत्री हेमाराम चौधरी जैसे नेता हैं। इसके अलावा शेष वो विधायक हैं, जिनके विधानसभा क्षेत्र में गुर्जर वोट निर्णायक हैं। ये लोग राजेश पायलट के भी करीबी थे।




 गहलोत के साथ कितने विधायक 



दावा 109 का है लेकिन हकीकत आज विधायक दल की बैठक में और स्पष्ट होगी। दरअसल, पायलट की समकालीन राजनीति के वो सभी चेहरे जो आने वाले वक्त में उनके प्रतिद्वंद्धी हो सकते हैं, सभी अशोक गहलोत के साथ नजर आ रहे हैं। जिसमें प्रताप सिंह खाचरियावास,डॉ.रघु शर्मा, हरीश चौधरी, रघुवीर मीणा जैसे नेता हैं। जिन्हें मालूम है कि अशोक गहलोत की राजनीतिक पारी के बाद उनका नंबर आना तय है। पायलट के साथ जुड़़ने में हमउम्र और लगभग समान राजनीतिक अनुभव उन्हें आने वाले कई सालों तक आगे मौका नहीं दे पाएगा। पायलट युवा हैं और आलाकमान के भी करीबी हैं। इसीलिए उनकी कोशिश है कि पायलट का राजस्थान की राजनीति का चेप्टर, इसी घटनाक्रम में तय हो जाए। इसीलिए वो सरकार के साथ हैं, मुख्यमंत्री के साथ खड़े हैं। इसके लिए मुख्यमंत्री की आम जनता के बीच अच्छी छवि के विपरीत चले जाना भी संभव नहीं और न ही ऐसा करने के पीछे अपने-अपने विधानसभा क्षेत्र में कोई वोट बैंक की मजबूरी आड़े आ रही है। इसीलिए वो मजबूती के साथ सरकार के साथ खड़े हैं। 





 बीजेपी क्या करेगी ..!

बीजेपी पूरे घटनाक्रम में अभी वेट एंड वॉच की भूमिका में है। बीजेपी इसी से सन्तुष्ट हो सकती है कि वो राजस्थान में भी सरकार को अस्थिर होता देख रही है। पायलट का विधायक बल कितना है, सरकार क्या बहुमत की स्थितियों में है, इस पहलूओं के साथ बीजेपी को अपने भीतर पनप रहे गुटों का भी ख्याल करना होगा। क्योंकि अगर सरकार के विश्वास मत हासिल न कर पाने की स्थितियां बनेंगी तो बीजेपी में भी सत्ता को लेकर खींचतान होगी। दिलचस्प बात यह है कि इस पूरे घटनाक्रम में पूर्व मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे समेत ज्यादातर प्रदेश के नेता खामोश हैं और दिल्ली में बैठे नेता गजेन्द्र सिंह, अर्जुन मेघवाल, राज्यवर्द्धन सिंह राठौ़ड़ जबर्दस्त रूप में से सक्रिय हैं।

रविवार, 12 जुलाई 2020

राजस्थान की राजनीति में कुछ बड़ा होने वाला है ..!!!



राजस्थान की बात, विशाल सूर्यकांत के साथ                           
प्रदेश की गरमाती राजनीति के बड़े सवालों पर विशेष पड़ताल
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 - विशाल सूर्यकांत

" सब कुछ ठीक है, सत्ता और संगठन में तालमेल बरकरार है,"    अब यह कहने की गुंजाइश न तो मुख्यमंत्री के पास है और न ही उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के पास... क्योंकि सियासी खींचतान के बीच एसओजी के नोटिस के मुद्दे से लेकर अल्पमत की सरकार करार देने तक के घटनाक्रम ने प्रदेश कोंग्रेस में आर-पार की लकीरें खींच दी है। संगठन और सत्ता के बीच साजिशों के तार तलाशे जा रहे हैं। राजस्थान कांग्रेस में राजनीति के घटनाक्रम तेजी से बदल रहे हैं

इतने सालों में दोनों नेताओं के बीच संतुलन साध कर अपना काम चला रहे विधायक और मंत्रियों के लिए अब ये निर्णायक वक्त है। सबसे बडा सवाल कि क्या राजस्थान में तख्तापलट होना संभव है , क्या कांग्रेस के हाथों से मध्यप्रदेश की तरह राजस्थान में भी सरकार जा सकती है। हां या ना में जवाब से पहले, स्थितियों को गहराई से हर पहलू की पड़ताल करते हैं। शायद आप खुद इस नतीजे पर पहुंच जाएं कि क्या होने वाला है ।

दरअसल, राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बनने की कहानी ही रूठने और मनाने से शुरु हूई। याद कीजिए वो तस्वीर, जिसमें गहलोत और पायलट के बीच राहुल गांधी दोनों के साथ विक्ट्री का निशान बनाते हुए। इस तस्वीर के साथ ही साफ हो गया था कि राजस्थान में आलाकमान ने संतुलन साधने का जतन तो किया है लेकिन कितने वक्त तक संतुलन चलेगा, पहले दिन से इस पर संशय था। दरअसल, किसी भी पार्टी का आलाकमान हो, उसे कुछ हद तक अंदरूनी खींचतान सुट भी करती है क्योंकि दो प्रतिद्वंद्धी नेताओं में से एक को कमान मिलती है तो दूसरा स्वाभाविक रूप से आलोचक की भूमिका में चाहे-अनचाहे आ ही जाता है।

राजस्थान में जो कुछ हो रहा है इसे जानने के लिए नेताओं के बयानों की बजाए उनकी राजनीति को देखना ज्यादा जरूरी है। क्योंकि नेताओं के बयानों में पार्टी हित,निष्ठा, जुड़ाव इत्यादि शब्दावलियां सुनाई देती हैं। लेकिन इस पर अमल होता तो क्या वाकई राजस्थान कांग्रेस में ये नौबत आती ..?  राजस्थान के मुख्यमंत्री ने बीजेपी पर सरकार गिराने की साजिश का आरोप लगाया। उधर, बीजेपी इन आरोपों से इंकार करते हुए इसे कांग्रेस का अंतर्विरोध करार दिया। इन आरोप-प्रत्यारोप के परे पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट और 16 विधायक कहां है, इसका जवाब नहीं मिल रहा।

क्या वाकई मध्यप्रदेश की तर्ज पर बीजेपी का दांव लग सकता है ...राजनीति संभावनाओं का खेल है लेकिन फिलहाल इसका जवाब है ' नहीं'  ..क्योंकि बीजेपी का दांव तभी लगेगा जब दो परिस्थितियां होंगी ।


पहला तो यह कि बड़ी तादाद में विधायक अपनी विधानसभा सीट से इस्तीफा देने को तैयार हों,
दूसरी परिस्थिति यह कि कांग्रेस में विधायक दल में इतनी बड़ी टूट हो जाए कि दलबदल काूनन का डर भी दरकिनार हो जाए। 

चलिए दोनों स्थितियों पर जरा तफ्सील से बात करते हैं।


सवाल - क्या विधायक इस्तीफा दे सकते हैं ?

जबाव - (1) राजनीति में पहला कदम बहुत महत्वपूर्ण होता है। पहला कदम, अगले किसी व्यक्ति के लिए इतिहास की नजीर बन जाता है। राजस्थान में पार्टियों में दलृबदल तो बहुत हुआ है, भैरोंसिंह शेखावत, अशोक गहलोत, वसुन्धरा राजे जैसे मुख्यमंत्री पद के दावेदारों के लिए नेताओँ ने अपनी परम्परागत सीटें छोड़ी हैं। लेकिन भविष्य की राजनीति के अंधेरे कुएं में छलांग कर कर किसी भी विधायक ने अपनी विधायकी से इस्तीफा नहीं दिया है। कांग्रेस हो या बीजेपी, राजस्थान के विधायकों को आम तौर पता होता है कि उपर के स्तर पर लड़ रहे नेताओं में किसका समर्थन और विरोध कब और कहां तक करना है। समर्थन भरपूर लीजिए लेकिन बदले में विधायिकी से इस्तीफा कोई नहीं देना चाह रहा। चाहे वो दानिश अबरार हों, चेतन डूडी हों, रामनिवास कावडिया हो, पी.आर.मीणा हों या मुकेश भाकर, इन विधायकों के नाम सिर्फ उदाहरण के लिए हैं, क्योंकि ये युवा हैं। इन्हें टिकट किसी न किसी कद्दावर नेता को बाईपास कर मिली है। अगर विधायकी छोड़ेंगे तो अपने ही क्षेत्र में दर्जन भर नेताओं की जमात में खड़े हो जाएंगे। विधायक का ओहदा, इनके लिए भविष्य की राजनीति का आधार है और ये आधार किसी नेता के पीछे छोड़ने की गलती कोई नहीं करने वाला है। हालांकि पायलट जरूर ये आश्वासन देना चाहेंगे कि सब कुछ ठीक होगा, लेकिन विधायिकी जरा संवेदनशील मामला है । इस पर कोई भी आसानी से फैसला नहीं ले पाएगा। 
 
जबाव - (2)  मध्यप्रदेश में भी यही कहा जा रहा था, लेकिन विधायकों के धडाधड़ इस्तीफे हुए हैं। मगर अब इस्तीफा दे चुके विधायकों को अब फिर चुनाव में उतरना है। जहां  एक तरफ कांग्रेस के कार्यकर्ता और नेता हैं तो दूसरी तरफ बीजेपी के परम्परागत नेता ओर कार्यकर्ता। यानि नई सियासी चुनौतियां, नया फैलाव के बीच नए सिरे से जमावड़ा करना होगा। मध्यप्रदेश की तर्ज पर राजस्थान में ऐसा करना संभव नहीं है क्योंकि यहां पार्टी और जातीय समीकरणों में बंधी राजनीति ऐसा करते हुए बहुत कम नेताओं को स्वीकारती है। राजस्थान में ऐसा कोई नहीं जो एक्रोस द पार्टी लाइन अपने दम पर जीत हासिल कर पाए। डॉ.किरोडीलाल मीणा, विश्वेन्द्र सिंह के बाद काफी हद तक हनुमान बेनिवाल जैसे इक्के-दुक्के नेता ही हैं जो पार्टी लाइन को भी धता बता कर राजनीतिक जोखिम लेते हैं, फिर जीत कर विधानसभा या लोकसभा भी चले जाते हैं।

जबाव - (3) ज्यादातर विधायकों के पास पुश्तैनी राजनीति की विरासत नहीं है। त्रिकोणिय मुकाबले, द्विपक्षीय मुकाबले और जातिय समीकरणों के बदौलत चुनाव जीत कर विधानसभा क्षेत्र में पार्टी का चेहरा बने हैं। विधायक बनने के बाद क्षेत्र की जनता की अपेक्षाएं और कार्यकर्ताओं की उम्मीदों को यकीनन कोई भी नेता पूरी तरह से खरा नहीं उतर पाता। ऐसे में उनके पास एक अदद विधायक का ओहदा ही तो है जिससे वो विधानसभा क्षेत्र में अपना दबदबा और स्वीकार्यता कायम रख सकता है। इसे भी खोकर फिर टिकट के तलबगारों की भीड़ में शामिल कौन होना चाहेगा ? 

जबाव - (4) राजस्थान में  चुनावों के वक्त में जिस तरह से जूतमपैजार और मारामारी की स्थितियां बनती है उससे स्पष्ट है कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही राजनीतिक दलों में व्यक्तिवादी गुट पनपते रहे हैं। ये बात नई नहीं है, हर दौर में राजस्थान की राजनीति में हर नेता ने अपने गुट को आगे रखा था। दिल्ली में दोनों ही पार्टियों के आलाकमान के नेता भी राजस्थान की राजनीति के इस मिजाज जानते हैं। आलाकमान की ओर से काफी हद तक इस रणनीति का पोषण भी किया जाता है। सत्ता के एक नहीं कई ध्रूव होंगे तो आलाकमान की पूछ परक बनी रहे। दूसरी पंक्ति के नेताओं में संतुलन साधने की होड़ चलती रही है। मोहनलाल सुखाड़िया, हरिदेव जोशी, भैरोंसिंह शेखावत,वसुन्धरा राजे और अशोक गहलोत कई बार मुख्यमंत्री बने रहे। विरोध भी हुआ, समर्थन भी हुआ, सत्ता आई थी और गई भी, लेकिन इनका कद हमेशा अपनी जगह बना रहा है या कहें कि अपनी सक्रिय राजनीति के दौर में नेपथ्य में कभी नहीं गए। 

राजस्थान की राजनीति का मिजाज है जहां खींचतान बेइंतहा है लेकिन टूटन या खुले आम विद्रोह की नजीरें बहुत कम है। विधायकों को विधायकी प्रिय रही है, यहां सार्वजनिक छवि को लेकर भी जनप्रतिनिधि बेहद सतर्क रहे हैं और इस मामले में पब्लिक पर्सेप्शन भी बखूबी काम करता है।  यहां हम पार्टी बदलने की बात कर रहे हैं, जनता और कार्यकर्ता तो यह भी नजर रखते हैं कि 'अपना नेता किस गुट के ज्यादा करीब' हो रहा है।

तो इन चार पहलूओं पर गौर करें तो साफ है कि भले ही साजिश हुई हो, एसओजी के ट्रेप में कई विधायक आए भी हों। लेकिन बड़ी तादाद में इस्तीफे देने का दौर शुरू करना फिलहाल संभव नहीं है। अगर आने वाले दौर में  राजनीति ही करनी है तो डेढ़ साल की नई-नवेली विधायकी छोड़ कर, अगले साढ़े तीन साल के लिए अंधे कुएं में छलांग लगाना आसान नहीं। लिहाजा साजिशों से इंकार नहीं लेकिन विधायक बड़े पैमाने पर विधायकी छोड़ने का आत्मघाती कदम उठा लें, इसकी संभावनाएं कम हैं। 

दूसरी परिस्थिति यह कि कांग्रेस में विधायक दल में इतनी बड़ी टूट हो जाए कि दलबदल काूनन भी कारगर न रहे। चलिए, इस बात की भी पड़ताल कर लेते हैं ।  

सरकार और संगठन में मतभेद केवल सतह पर ही नहीं आए बल्कि सतह पार कर, झलकने लगे हैं।  मगर क्या ये असंतोष या सेंधमारी इतनी बड़े स्वरूप में हो सकता है कि एक तिहाई सदस्यों की टूट हो जाए। इस लिहाज से अगर पायलट कैंप 107 की कांग्रेस विधायक दल में से एक तिहाई यानि 36 विधायकों को तोडने में कामयाब हो जाए तो स्थितियां बदल सकती हैं। पायलट कैंप ये दावा तो कर रहा है कि 42 विधायक साथ हैं मगर सब सूत्रों के हवाले से है, एक भी विधायक ने खुल कर पायलट का आंखें बंद कर समर्थन करने की बात नहीं की है। यकीनन, बहुत से विधायकों की सहानूभूति और समर्थन दोनों पायलट के साथ होंगी लेकिन वो तब तक रहेगी जब तक पायलट कांग्रेस में हैं। कांग्रेस से अलग होकर चाहे वो नई पार्टी बनाएं या बीजेपी में शामिल हों, उनके दावे के मुताबिक संख्याबल उन्हें मिल जाए, ऐसी संभावनाएं फिलहाल नहीं लग रही। 

फिर भी एक बारगी मान लिया जाए कि पायलट के साथ एक तिहाई विधायक आ गए और अलग पार्टी बना ली तो हासिल क्या होगा, सरकार को अल्पमत में लाकर गिराया तो जा सकेगा लेकिन इससे आगे की राह कैसे तैयार होगी। क्या नई पार्टी बनाकर सचिन पायलट भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बन पाएंगे ?  क्या राजस्थान बीजेपी के नेता, दूसरी पार्टी से आए व्यक्ति को मुख्यमंत्री बना सकते है।  क्या इससे अलग-अलग गुटों में बंटी प्रदेश भाजपा में नई होड़ नहीं शुरू होगी ?  वो क्यों अपना दावा छोड़ सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाएंगे ? चलिए, एक पहलू और देखते हैं। पायलट सीएम न बने और भारतीय जनता पार्टी को समर्थन दें तो भारतीय जनता पार्टी को कांग्रेस से बगावत कर आए 30 से मूल कांग्रेसी नेताओं को संभालना पड़ेगा। उनकी विधानसभा सीटों में बैठे परम्परागत बीजेपी के नेताओं से उनकी कितनी बनेगी, कितनी नहीं बनेगी ...ये भी नहीं पता। इसलिए बीजेपी के लिए पूरे घटनाक्रम में अपने हित में कांग्रेस के नेताओं को उकसाना तो ठीक है लेकिन कांग्रेस के बागियों को बीजेपी अपने संगठन से जोड़ नहीं सकती। राजस्थान में  बीजेपी केडर बेस पार्टी है, जहां असन्तुष्टों का इस्तेमाल तो संभव है लेकिन शरण देने का फैसला, होम करते हाथ जलाने से कम नहीं है।



तो अब आगे क्या
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दरअसल, राज्यसभा चुनावों में ही तय हो गया था कि ये चिनगारी है जो आगे राजनीतिक आग को और भड़काएगी। राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप से परे अब मामला एसओजी तक जा पहुंचा है। राजस्थान के मुख्यमंत्री का अनुभव इस मर्म को जानता है कि आती-जाती सरकारों और मुख्यमंत्रियों के बीच पुलिस के दस्तावेज नहीं बदले जा सकते। इसीलिए पूरा मामला पुलिसिया जांच के दायरे में लाया गया है। मुख्यमंत्री गहलोत को खुद उसके ही अधीन विभाग के अधिकारी नोटिस कर तलब करते हैं। सचिन पायलट को भी इसी तरह का नोटिस मिल गया, पायलट ने इस बार अपनी नाराजगी के पीछे इस नोटिस को बड़ा कारण बना लिया है। 

इधर, तीन विधायक सुरेश टांक, ओम प्रकाश हुड़ला और खुशवीर सिंह जोजावर पर एफआईआर दर्ज कर मुख्यमंत्री ने बता दिया है कि वो इस मामले में कोई समझौते के मूड में नहीं, पैसो के लेन-देन और साजिश के मामले में भरत मालानी और अशोक चौहान के रूप में दो छोटी मछलियों को पकड़ लिया है। 

यकीकन, बात इससे आगे जाएगी, कई चेहरे बेनकाब होंगे। राजनीति में बॉडी लेग्वेज, बयानों में इस्तेमाल की जा रही भाषा का अलग महत्व है। लोगों ने मुख्यमंत्री की बॉडी लेग्वेज तो देख ली है मगर अब तक सचिन पायलट मीडिया के सामने नहीं आए हैं। सामने आया है तो सिर्फ वॉट्सअप मैसेज जिसमें 30 विधायकों के समर्थन का दावा करते हुए गहलोत सरकार को अल्पमत में बताया गया है और साथ में जानकारी दी गई है कि 13 जुलाई को विधायक दल की बैठक में पायलट शामिल नहीं होंगे। 30 विधायकों का समर्थन का दावा बड़ा है, सूची में किन लोगों के नाम है, समर्थन देने वालों को सामने क्यों नहीं लाया जा रहा, ये सवाल पायलट कैंप से हो रहे हैं। इधर , कांग्रेस विधायक दल में कल कितने विधायक जुटते हैं, इस पर सभी की नजरें टिक गई है। क्योंकि पायलट और गहलोत कैंप में पहला शक्ति परीक्षण का दिन सोमवार यानि 13 जुलाई है। 

इससे आगे की कहानी, कल का घटनाक्रम तय करेगा। दिलचस्प पहलू यह है कि राजस्थान कांग्रेस की राजनीति में इतना कुछ चल रहा है और आलाकमान आश्चर्यजनक रूप से चुप्पी साधे बैठा है। देर शाम कांग्रेस के प्रभारी महासचिव अविनाश पांडे, अजय माकन और रणदीप सिंह सूरजेवाला ने जयपुर डेरा डाल दिया है। लेकिन राहुल गांधी,सोनिया गांधी या प्रियंका गांधी की ओर से न तो कोई बयान आया है और न हीं कोई ट्वीट। पूरे घटनाक्रम से अवगत आलाकमान अब तक चुप क्यों है ? ये चुप्पी संकेत दे रही है कि इस घटनाक्रम की  स्क्रिप्ट पहले से लिख दी गई है। किरदारों को तोला जा रहा है। विधायक दल की बैठक में गहलोत के साथ आलाकमान के प्रतिनिधि हैं, सचिन पायलट के साथ शक्ति प्रदर्शन में खड़े रहने वाले विधायकों की टोह ली जा रही है साथ ही अंदरखाने समझाइश का दौर भी चल रहा है । बीजेपी में भी संशय है कि अगर कांग्रेस को बड़ा नुकसान पहुंचाए बिना पायलट और उनके समर्थन बीजेपी में आना चाहेंगे, उन्हें आने दिया जाए या नहीं, अगर वाकई बड़ा गेम करने में पायलट कामयाब हो जाते हैं तो अपनों की नाराजगी का जोखिम उठाकर भी बीजेपी पायलट को साथ ले लेगी। 

सचिन पायलट की ताकत पार्टी के अंदर है। पार्टी से बगावत का एलान करना बता रहा है कि या तो उनके पास असाधारण संख्याबल है जो विश्वासमत साबित करने तक उनका साथ देगा, या फिर वो सब कुछ खोने के डर से ऐसा दांव खेल चुके हैं जो उन्हें कहीं का न छोड़े । अपने ही जाल में ट्रेप होने और सकुशल निकल आने में बहुत फर्क है।                                                                                                                                            
   
देर रात तक प्रयास चल रहे हैं, संख्याबल न बैठा और अभिषेक मनु सिंघवी जैसे कुछ नेताओं का बीच बचाव काम आया तो हो सकता है कि आखिरी मौका मान कर पायलट भी लौट आएं। 10.30 बजे पार्टी व्हिप जारी कर बैठक बुलाई है। रात 2.30 बजे प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कांग्रेस ने 109 विधायकों की और से मुख्यमंत्री गहलोत को सर्मथन देने का दावा किया जा रहा है।  अपने जयपुर दौरे को नेता सोनिया गांधी का आदेश बता रहे हैं। यानि अब मामला स्पष्ट है, गहलोत या पायलट नहीं, अब बैठक कांग्रेस विधायक दल की है। जिसमें न आने का मतलब आलाकमान के विरुद्ध बगावत होगी। इम्तिहान पायलट की सियासी फ्लाइट का है, या तो क्रेश लैंडिंग, ठहराव या फिर नए आसमान की नईं उंचाइयां...चंद घंटों में ये तय होने वाला है। 

UPDATE - 13.07.2020- Time - 4.30 PM

नया अपडेट - 

पायलट कैंप के तमाम दावे फिलहाल खारिज हो गए क्योंकि अशोक गहलोत ने आलाकमान की नेताओं की मौजूदगी में अपने साथ 109 विधायकों की संख्याबल दिखाकर साबित कर दिया कि राजस्थान कांग्रेस की राजनीति कोई उनका विकल्प नहीं। जब मामला शुरू हुआ था तो गहलोत और पायलट की तकरार माना गया लेकिन जब पटाक्षेप हुआ तो मामला कांग्रेस और पायलट के बीच का हो गया है। कांग्रेस के नाम पर पायलट समर्थक भी गहलोत के नेतृत्व में लौट आए हैं। यह ही उनका सियासी जादू मंतर है तो विरोधियों को छूमतंर करता आया है। हालांकि कांग्रेस आलाकमान अब भी सतर्क है और द्वार खुले रखे हुए हैं क्योंकि पायलट ने भी अब तक न तो एक भी बयान दिया है और न कोई ट्वीट। उनका दावा उनके प्रेस एजवाइजर के एक वॉट्सएप मैसेज के जरिए ही वायरल हुआ है।  सभी विधायकों को एकजुट करने के लिए लंच पॉलिटिक्स चल रही है। इससे आगे का घटनाक्रम आपको अगले ब्लॉग में बताउंगा...तब तक कमेंट बॉक्स में अपनी राय लिखते रहिएगा। शाम को मिलते हैं...नए घटनाक्रम की जानकारी के साथ...