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सोमवार, 7 दिसंबर 2020

#कृषि_बिल #kisan #bharatband

    कृषि बिल : सरकार का अरमान और किसानों का इम्तिहान..!

  

- विशाल सूर्यकांत

दरअसल, किसान मंडी में रखे तराजू में किसान अपनी फसल नहीं बल्कि पीढ़ियों के संबंध और भरोसा भी तोलता है। ऐसा नहीं है कि किसान मंडी कारोबारियों के रवैये से पूरी तरह से सन्तुष्ट रहता आया है। मंडी कारोबार में किसान के शोषण के किस्से दशकों से चले आ रहे हैं।  लेकिन देश में किसान और मंडी कारोबार दोनों साख, सौदा और संबंधों के पैमानों पर चलते हैं। कृषि कानून के समर्थन और विरोध से परे, देश में किसान और मंडी कारोबारियों के रिश्ते को समझना होगा । 

जहां बुवाई से पहले मंडी कारोबारी, एक सलाहकार भी बन रहा है, बुवाई के वक्त आर्थिक मददगार भी बन जाता है और फसल के मंडी में आने के बाद एक बेहद सख्त साहूकार भी बन रहा है। सहज संबंध और कम पैसों में ज्यादा फसल का सौदा...किसान और मंडी कारोबारी दोनों इस रिश्ते को जानते हैं, समझते हैं, झेलते भी हैं और निभाते भी हैं। इससे कतई इंकार नहीं कि मंडी कारोबार में किसानों का शोषण होता है, लेकिन इसके पीछे सिर्फ मंडी कारोबारी नहीं बल्कि सरकारों की नीतियां भी जिम्मेदार हैं। बजट घोषणाएं और अमल के बीच में किसान की जरूरत के व्यावहारिक पहलू सरकारी सिस्टम से गुम कर दिए गए हैं। किसान को अचानक जरूरत पड़ने पर मदद मिलने का कोई सिस्टम ठीक से विकसित ही नहीं हो पाया है। ज्यादा फसल हो तो सड़कों पर फेंकने की मजबूरी और कम फसल हो तो कर्ज भरने की दोहरी मार । इस सिस्टम से निजात दिलाने के लिए जो कुछ होना चाहिए था, क्या वाकई वो हो पा रहा है ?  आजादी के इतने सालों के बाद भी एक अदद पटवारी के भरोसे फसलों की बर्बादी की दास्तान सिर्फ 'आंखों देखे हाल' पर लिखकर किसान की किस्मत और मुआवजे की कीमत दोनों तय कर ली जाती है। कृषि कानून का विरोध कतई नहीं है, क्योंकि ये आज नहीं तो कल होना ही है, देश में कृषि की अर्थव्यवस्था बदलने के लिए नई व्यवस्था अवश्यमंभावी है। मगर मानवीय स्वभाव है कि अचानक कुछ अच्छा होता दिखे तो मन शंकाओं से घिर जाता है । धीरे-धीरे अच्छे वक्त का अहसास होता है...। हम मध्यमवर्गीय परिवारों को ही देख लीजिए, नई गाड़ी हो या मकान, हम पढ़े-लिखे होने के बावजूद सौदे से पहले और बाद में आशंकित रहते हैं कि कहीं सौदा गलत तो नहीं हो गया । सौदा करने वाले के हाव-भाव और उसकी बोली कैसी है,  ये सौदे की सबसे अहम कड़ी है । इस देश में रवायत रही है कि मीठी बोली से सौदों का रूख बदल जाया करता है, थोड़ा बहुत नफा-नुकसान भी बर्दाश्त कर लिया जाता है । 



"देश बदल रहा है, आगे भी बदलेगा । आज यह सरकार है तो कल किसी और की थी, आगे किसी और की होगी... यह तय है कि इस देश में कृषि कानून बरकरार रहेगा ...आज नहीं तो कल नई शक्ल में फिर सामने आएगा । ये देश की जरूरत भी है और जिम्मेदारी भी है कि अर्थव्यवस्था में कृषि को उसका वाजिब मुकाम दिलवाएं । " 

अभी देश की जीडीपी में सर्विस सेक्टर सबसे मुखर है...मगर 2008 की मंदी, नोटबंदी और कोरोनाकाल में सबसे ज्यादा लोगों को धोखा इसी सेक्टर ने दिया है। स्टार्ट अप्स तो खुद स्ट्रगल कर रहे हैं, कब देश की जीडीपी में हिस्सेदार बनेंगे यह भविष्य के गर्त में हैं । देश में एग्रीकल्चर सेक्टर ही इकलौता ऐसा सेक्टर है जो आजादी के बाद से अब तक बड़ी तादाद में आत्मनिर्भरता और आमदनी का जरिया बनता रहा लेकिन इसका दायरा वक्त के साथ सिमटता ही रहा है।

भारत में आजादी के वक्त, कृषि क्षेत्र का जीडीपी में  52 फीसदी से ज्यादा का योगदान था। अब यह सेक्टर घटकर 17 फीसदी से भी नीचे आ चुका है। खेत-खलिहानों से नई पीढ़ी दूर हो रही है। किसान का बेटा, अब खेतों में नहीं विदेशों में जाकर मजदूरी, कारोबार या नौकरी करना चाहता है। जो समझदार और पढ़े-लिखे या जमींदार किसान हैं उन्हें तो मालूम है कि कानून आए न आए, मंडी में जाना उनकी ज्यादा मजबूरी नहीं है। वो अपनी तरह से फसल भी तैयार कर लेते हैं और उसके लिए मुफीद बाजार भी खोज लेते हैं। असल मुद्दा तो छोेटे किसानों का है, जिन्होंनें खेत, गांव और मंडी से बाहर की कृषि जगत को देखा ही नहीं। 





एक तरफ बिल्कुल अनभिज्ञता और दूसरी तरफ अंतर्राष्ट्रीय स्तर की विशेषज्ञता...खेती क्या कोई भी सौदा संतुलित नहीं हो सकता । क्योंकि किसान को हमनें उसके दायरे से निकलाने की राजनीतिक,सामाजिक कोशिशें कभी नहीं की और अब सरकारें चाहती आर्थिक दायरा बढ़ा दिया जाए। पहले किसान जहां रह रहा है, उन परिस्थितियों को समझने की जरूरत है। भारत की तरक्की के साथ कृषि क्षेत्र की तरक्की के लिए क्या किया गया है। रसायनिक खाद,लोन,मुआवजा,सालाना कम या ज्यादा उत्पादन, बस इन शब्दों के दायरे से बाहर खेती को देखा ही नहीं गया। पीढ़ियों से चली आ रही किसान की मनोस्थिति को एक कानून से बदल संभव नहीं है। आजादी के वक्त जीडीपी में 52 फीसदी हिस्सा रखने वाला कृषि सेक्टर जीडीपी के पायेदान पर गिरते-गिरते 17 फीसदी पर आ चुका है। खेती और गांव-देहात आर्थिक रूप से उपेक्षा के शिकार और सामाजिक रूप से उपहास का विषय बन गए। 



अर्थव्यवस्था की मजबूत ताकत, विकास की राहों में पिछड़ती गई।  बड़े किसानों की बात मत कीजिए, बात उन किसानों की कीजिए जिनके पास पैसा नहीं है और जमीन भी सीमित है। उसे साहूकार और मंडी व्यापारियों के चंगुल से कैसे आजाद करवाएंगे ? कहीं एक अव्यवस्था को उजाड़ने के फेर में नई अव्यवस्था को जन्म तो नहीं दे रहे हम, इसे समझने की जरूरत है। ‘उत्तम खेती, मध्यम बान, अधम चाकरी की कहावत कहने वाले देशम में नौकरियां ही सर्वोपरि हो चली हैं।  गांव से शहर जाने की होड़ लगी है और युवाओं का खेती से मोह भंग होता जा रहा है। जब किसान परिवार की नई पीढ़ी कृषि को अपनाने में हिचक रही है तो दूसरे परिवारों के लिए तो खेतों का जिक्र ही बेमानी है।


भारत में 13.78 करोड़ कृषि भूमि धारक किसानों में 11 करोड़ से ज्यादा छोटे और मझोले किसान हैं। राजनीतिक दलों के किसान प्रकोष्ठ से लेकर आंदोलन तक ये किसान, पीछे ही खड़े हैं। आगे की कमान बड़े किसानों के पास, वो जो कहें, करें वहीं देश में कृषि की तक़दीर तब भी बनती आ रही थी और आज भी बन रही है। सरकारें सब्सिडी़, मुआवजा, एमएसपी को भुनाकर वोट साधने में लगी रहती हैं। एमएसपी की अच्छी दर लेकिन फसल की कम खरीद, ये ऐसा फार्मूला है जो हर आती-जाती सरकार के वक्त आज़माया जाता रहा है। देश में कहा जाता रहा है कि महिलाएं कंधे से कंधे मिलाकर साथ चल रही हैं लेकिन जहां महिलाएं पुरुषों से ज्यादा काम करती नजर आती हैं, उस कृषि क्षेत्र में पारिवारिक पृष्ठभूमि की महिलाओं के उत्थान के लिए सरकार की योजनाएं कितनी कारगर साबित हो रही हैं ? 

देश की जीडीपी में सबसे ज्यादा विकास उस सेक्टर ने किया है जो सबसे ज्यादा अनिश्चिन्तताओं का शिकार है । चाहे वो 2008 की ग्लोबल मंदी हो ,नोट बंदी हो या फिर कोरोना काल की मंदी, जब इस सेक्टर की सबसे ज्यादा जरूरत है तब ही यह सबसे ज्यादा पंगू साबित हो रहा है। संकट आया नहीं कि बेरोजगारों की फौज बढ़ना शुरू हो जाती है। अभी का हाल किसी से छिपा नहीं । 

आत्मनिर्भरता के लिए शुरू हुए स्टार्ट अप्स का खुद अभी संक्रमण काल है, कब ये ताक़तवर बन कर देश की जीडीपी संवारने लगेंगे, इसका जवाब भविष्य के गर्त में है। इसीलिए देश में एग्रीकल्चर सेक्टर ही इकलौता ऐसा सेक्टर है जो आजादी के बाद से अब तक बड़ी तादाद में आत्मनिर्भरता और आमदनी का बड़ा जरिया बना है। इसमें सुधार से किसान ही नहीं बल्कि देश की भी तकदीर बदल सकती है । मगर मुद्दा यह है कि कृषि क्षेत्र में सबसे बड़ा जो स्टेक हॉल्डर किसान है वो कंपनियों के साथ सौदे के लिए मन से तैयार नहीं हो पा रहा..देश में जहां-जहां छोटे प्रयोग हुए हैं वहां निजी कंपनियों का अतिरेक ही ज्यादा सामने आया है । किसान इस देश की आत्मा है । आत्मा से संवाद जरूरी है, आत्मा की संतुष्टि जरूरी है । जिंदगी में कई सौदे सिर्फ नफ़ा-नुकसान ही देखकर नहीं होते...रिश्ते और भरोसे का पुट कई सौदों का दायरा बढ़ा भी सकता है और सौदे को खत्म भी कर सकता है । समर्थन और विरोध की नारेबाज़ी के बीच हमें इस बात के मर्म को भी समझना होगा ।