- विशाल सूर्यकांत शर्मा-
ये कहानी है एक परिवार की। जिसमें एक जोड़ा है उस्ताद और नूर...। ये परिवार, अपने हिस्से की जिंदगी अब सुकुन से गुजार रहा था, क्योंकि बचपन से लेकर अब तक परिवार के हर बंदे ने किया अपने हिस्से का संघर्ष...।उस्ताद पहले अकेला था...जिंदगी के संघर्ष की राह में नया मुकाम मिला और नूर उसकी जिंदगी का हिस्सा बन गई। अब दोनों ऩई राह के हमसफर हो गए। दोनों का संघर्ष किसी भी मायने में कम तो नहीं हुआ। लेकिन हां, एक अच्छी बात ये थी कि अब संघर्ष करने के मकसद में एक जिम्मेदारी ज़रूर आ गई। एक दूसरे का साथ देने की जिम्मेदारी।
... वो खामोश रहती, तो वो काम करता। वो थक जाता तो ...वो निकल पड़ती। वक्त गुजरता रहा और इस जोड़े की जिदंगी एक परिवार में बदल गई क्योंकि परिवार में दो नन्हें बच्चे जुड़ गए। इन बच्चों ने मानों उनकी सारी दुनिया ही बदल दी थी क्योंकि दिनभर काम के बीच वो अपने बच्चों को देखते तो सारी थकान दूर हो जाती। बच्चे भी अपने मां-बाप के हमसाया होते चले गए। उस्ताद, पहले अकेला था अब परिवार बन गया तो चिंता भी बढ़ गई। जिम्मेदारियों ने उसे और भी मेहनतकश बना दिया।
लेकिन ....एक दिन उनकी हंसती-खेलती जिंदगी ने करवट ली और उस्ताद के हाथों अनचाहा गंभीर अपराध हो गया। दरअसल, हुआ ये कि उसे लगा कि शायद कोई उसके घर को नुकसान पहुंचाना चाह रहा है। हंसते-खेलते परिवार को उजाड़ना चाह रहा है...। अपना संघर्ष,अपनी खुशियां छिन जाने का डर इस कदर हावी हुआ वो उस शख्स पर टूट पड़ा जो नजदीक आ रहा था। बस गलती ये हो गई कि उसने अपनी पूरी ताकत लगा दी और नतीजा ये कि वो शख्स वहीं ढ़ेर हो गया।
उस दिन उस्ताद को पहली बार लगा कि वो अपनी ताकत से और क्या-क्या कर सकता है ! पहले , एक और बाद में, उसके आशियाने पर नजरें लगाते इसी तरह के तीन और लोग उस्ताद के हाथों मारे गए। उसे अपने किए का अफसोस इसीलिए नहीं था क्योंकि उसे मालूम था कि अगर उसने ऐसा नहीं किया तो वो लोग उसका घर-परिवार, उसका संसार छीन लेगें।
उस दिन उस्ताद को पहली बार लगा कि वो अपनी ताकत से और क्या-क्या कर सकता है ! पहले , एक और बाद में, उसके आशियाने पर नजरें लगाते इसी तरह के तीन और लोग उस्ताद के हाथों मारे गए। उसे अपने किए का अफसोस इसीलिए नहीं था क्योंकि उसे मालूम था कि अगर उसने ऐसा नहीं किया तो वो लोग उसका घर-परिवार, उसका संसार छीन लेगें।
फिर क्या था ये मामला लोगों के बीच आग की तरह फेैल गया। क्योंकि मामला चार लोगों की जान लेने का बन गया। लोगों में उसकी बढ़ती ताकत का डर समा गया। किसी ने उसकी मजबूरी नहीं समझी। सभी को यही लग रहा था कि ये कोई मजबूरी नहीं बल्कि इस तरह का अपराध करना उस्ताद की आदत बन गई है। साजिशें रची गई। उसकी ताकत को मात देने के लिए ताने-बाने बुने गए और एक दिन उस्ताद को धोखे से बेहोशी की दवा पिला कर बंधक बना लिया और चुपचाप दूसरे अनजान जगह पर नज़रबंद कर दिया।
उधर, उस्ताद के घर वालों को अब तक कुछ मालूम नहीं कि वो आखिर कहां चला गया ? आज भी उसकी बीबी नूर उसकी याद में भटक रही है। दो नन्हें बच्चे इंतजार कर रहे हैं कि दिन में नहीं तो शाम ढ़लते ही उन्हें दुलारने वाला उन्हें ज़िन्दगी के सबक सिखा रहे ,उस्ताद का फिर सहारा मिलेगा। नूर की आँखें अब इंतजार में पथरा गई हैं। वो तय नहीं कर पा रही हैं कि वो क्या करें ? कहां जाए ? वो भी उस्ताद की तरह अकेले गुम नहीं हो सकती क्योंकि दो नन्हीं जानें, उसे आस भरी निगाहों से हर वक्त निहारती रहती है, उससे लिपटी रहती है
उसे समझ में नहीं आ रहा कि आखिर हुआ क्या ??? वो उस्ताद जिसे उसने दिल से चाहा, अपना जीवन साथी बनाया वो आखिर उसे ऐसे छोड़ कर कैसे जा सकता है ??? एक पल में नूर के ज़ेहन में कई ख्याल आते हैं । कभी मन कहता है कि उस्ताद को लौट कर आना ही होगा । फिर सोंचती है कि अगर नहीं आया तो ... ??? ...शायद, आज वो आ जाए...!!! बस, इस ख्याल में वो रोज उस जगह के आस-पास घूमती है जहां से उसका उस्ताद, उसे आखिरी बार दिखा था।
नूर की जिंदगी का सुकुन मातम में बदल गया है। यकीन मानिए कि किसी भी गुमशुदगी बहुत तकलीफदेह होती है, आंखों के आगे कोई प्राण त्यागे तो लगता है तो फिर भी सुकुन रहता है लेकिन कोई इस तरह अचानक गायब हो जाए तो मानों अपने साथ, आधी जिंदगी ले जाता है। बेइंतहा बेबसी के आलम में आज भी नूर को इंतजार है कि उसका उस्ताद एक दिन लौट आएगा।
उधर, उस्ताद ...पल-पल नूर और बच्चों की याद में मानों अपनी सुध-बुध खो बैठा है। लेकिन वो अपने गांव से, अपने लोगों से इतना दूर आ गया है कि उसे खुद नहीं पता कि वो लौटेगा भी या नहीं!!! वो चाहता हैं कि यकीन दिलाए कि नूर के बिना उसकी जिंदगी बेनूर हो चली है, अपने बच्चों से मिलने की तड़प में गाफिल हुआ जा रहा है...
उधर, उस्ताद के घर वालों को अब तक कुछ मालूम नहीं कि वो आखिर कहां चला गया ? आज भी उसकी बीबी नूर उसकी याद में भटक रही है। दो नन्हें बच्चे इंतजार कर रहे हैं कि दिन में नहीं तो शाम ढ़लते ही उन्हें दुलारने वाला उन्हें ज़िन्दगी के सबक सिखा रहे ,उस्ताद का फिर सहारा मिलेगा। नूर की आँखें अब इंतजार में पथरा गई हैं। वो तय नहीं कर पा रही हैं कि वो क्या करें ? कहां जाए ? वो भी उस्ताद की तरह अकेले गुम नहीं हो सकती क्योंकि दो नन्हीं जानें, उसे आस भरी निगाहों से हर वक्त निहारती रहती है, उससे लिपटी रहती है
उसे समझ में नहीं आ रहा कि आखिर हुआ क्या ??? वो उस्ताद जिसे उसने दिल से चाहा, अपना जीवन साथी बनाया वो आखिर उसे ऐसे छोड़ कर कैसे जा सकता है ??? एक पल में नूर के ज़ेहन में कई ख्याल आते हैं । कभी मन कहता है कि उस्ताद को लौट कर आना ही होगा । फिर सोंचती है कि अगर नहीं आया तो ... ??? ...शायद, आज वो आ जाए...!!! बस, इस ख्याल में वो रोज उस जगह के आस-पास घूमती है जहां से उसका उस्ताद, उसे आखिरी बार दिखा था।
नूर की जिंदगी का सुकुन मातम में बदल गया है। यकीन मानिए कि किसी भी गुमशुदगी बहुत तकलीफदेह होती है, आंखों के आगे कोई प्राण त्यागे तो लगता है तो फिर भी सुकुन रहता है लेकिन कोई इस तरह अचानक गायब हो जाए तो मानों अपने साथ, आधी जिंदगी ले जाता है। बेइंतहा बेबसी के आलम में आज भी नूर को इंतजार है कि उसका उस्ताद एक दिन लौट आएगा।
उधर, उस्ताद ...पल-पल नूर और बच्चों की याद में मानों अपनी सुध-बुध खो बैठा है। लेकिन वो अपने गांव से, अपने लोगों से इतना दूर आ गया है कि उसे खुद नहीं पता कि वो लौटेगा भी या नहीं!!! वो चाहता हैं कि यकीन दिलाए कि नूर के बिना उसकी जिंदगी बेनूर हो चली है, अपने बच्चों से मिलने की तड़प में गाफिल हुआ जा रहा है...
ये कहानी किसी और की नहीं ... बल्कि रणथम्भौर के बाघ T-24 यानि उस्ताद और टाईग्रेस नूर और उससे दो नन्हें शावकों की है। आम इंसानों की तरह इनका भी परिवार है और इनका अपना लगाव भी..।
मगर हम इंसान तो सिर्फ वो बात सुनेंगे जो जुबां से कही जाए। जो बात हमें सुनाई ना दें, उसको लेकर हम बेफिक्र हो जाते हैं। ये वही टाइगर 'उस्ताद' है जिसने रणथम्भौर के जंगल में अपने घर-परिवार के नज़दीक आते जा रहे हजारों लोगों में से 4 लोगों पर हमला कर दिया। इंसान और जानवर के बीच छिड़ी इस अनचाही जंग का खामियाजा आखिरकार जानवर को ही भुगतना पड़ा।
सरकार ने आबादी और लोगों के आने-जाने की राहगुजर बदलने के बजाए टाइगर ' उस्ताद ' को, उसके अपने ही घर से बेहोश कर चुपचाप उठा कर सैंकड़ों किलोमीटर दूर उदयपुर के सज्जनगढ़ एरिया में भेज दिया गया है। उस्ताद से जंगल की बादशाहत छिनते वक्त इतना भी ख्याल नहीं रखा गया कि जो उस्ताद जंगल में तीस किलोमीटर के घेरे में घूमने का आदि था, उसे कम से कम तीस फीट घेरे के पिंजरे में रखा जाए ... !!! सरकार के मंत्री कह रहे हैं कि हमें सबको देखना पड़ता है। आप वन्यजीव प्रेमी हो तो टाइगर की बात करोगे लेकिन हमें वहां वनकर्मियों की सुननी पड़ती है, आस-पास के गांवों की बात सुननी पड़ती है।
दरअसल, सरकार ये पहलू तो छुना ही नहीं चाहती कि क्या रणथम्भौर के बादशाह को होटल मालिकों के दबाव में वहां से अचानक गायब करवाया है। रणथम्भौर में टाइगर के आशियानों तक होटल मालिक अपनी होटलें बना चुके हैं, वो चाहते हैं कि टाइगर उनकी होटल के आस-पास दिखे, क्योंकि उसे दिखाकर करोड़ो कमाए जा रहे हैं लेकिन जब वो किसी पर हमला कर दे तो उसे आदमखोर करार देकर देश निकाला दे दिया जाता है। ये टाइगर फिर अपने परिवार से मिल पाएगा, फिर रणथम्भौर आएगा !!! इस पर मुझे शक है क्योंकि इसके लिए सरकार को उसका जंगल लौटाना होगा। रणथम्भौर में टाइगर को दिखाने की टिकट तो ली जाती है लेकिन वो वोटर नहीं है...वो खुद बिजनेस भी नहीं करता। अब आप खुद ही समझ लिजिए...ना वोट और ना ही धंधा...तो फिर क्या फर्क पड़ता है कि सिर्फ एक टाइगर उस्ताद जंगल में ना रहे। नुमाइश ही तो करनी है तो शावक अपना दुख भुलाकर एक ना एक दिन तैयार हो ही जाएंगे। नूर अपना ग़म एक ना एक दिन भूल ही जाएगी। सुख में रहें या दुख में, सज्जनगढ़ और रणथम्भौर में इनकी नुमाइश जारी रहेगी।
सवाल ये हैं कि आखिर किससे अपराध नहीं होते ? हम अपराध करें तो उसे पैरवी और सुनवाई का अधिकार मिलता है लेकिन ये बेजुबान जानवर ठहरा। सिर्फ दहाड़ कर अपनी बात रखता है। उस्ताद , आज भी सज्जनगढ़ में दहाड़ रहा है। इस दहाड़ को आप बादशाहत का रुबाब कहेंगे या फिर अपनों से बिछड़न का दर्द !!! ये बात तो आपकी संवेदनाएं ही तय करेंगी।
मेरी संवेदनाएं कह रही है कि ये जानवर के प्रति हमारा बर्बर रवैया है, ये जानवरों को लेकर हमारी अमानवीयता की इंतहा है । उस्ताद और नूर के बिछड़न की इस कहानी में आपको क्या नजर आया ??? मुझे नहीं मालूम लेकिन रणथम्भौर के जंगल का ज़र्रा-ज़र्रा अपने बादशाह की अनचाही रुखसत पर हैरान नज़र आता है।...
उस्ताद को खोज रही नूर के साथ-साथ उसका आशियाना आंसू बहा रहा है ... या कहें कि उस्ताद के जाने के साथ ही नूर की तरह, रणथम्भौर का जंगल भी बेनूर हो चला है। हो भी क्यों ना !!! आखिरकार, उनकी आंखों के सामने ही तो उस्ताद और नूर की प्रेम कहानी लिखी गई होगी, जीवन का संघर्ष लिखा गया होगा ।
उधर, जंगल की ठंडी आबो-हवा चुपचाप नन्हें शावकों को सहला रही है कि पिता का साया नहीं, तो मेरा कुछ दुलार ही ले लो....लेकिन खुदा के वास्ते चुप हो जाओ ...!!!
मेरी संवेदनाएं कह रही है कि ये जानवर के प्रति हमारा बर्बर रवैया है, ये जानवरों को लेकर हमारी अमानवीयता की इंतहा है । उस्ताद और नूर के बिछड़न की इस कहानी में आपको क्या नजर आया ??? मुझे नहीं मालूम लेकिन रणथम्भौर के जंगल का ज़र्रा-ज़र्रा अपने बादशाह की अनचाही रुखसत पर हैरान नज़र आता है।...
उस्ताद को खोज रही नूर के साथ-साथ उसका आशियाना आंसू बहा रहा है ... या कहें कि उस्ताद के जाने के साथ ही नूर की तरह, रणथम्भौर का जंगल भी बेनूर हो चला है। हो भी क्यों ना !!! आखिरकार, उनकी आंखों के सामने ही तो उस्ताद और नूर की प्रेम कहानी लिखी गई होगी, जीवन का संघर्ष लिखा गया होगा ।
उधर, जंगल की ठंडी आबो-हवा चुपचाप नन्हें शावकों को सहला रही है कि पिता का साया नहीं, तो मेरा कुछ दुलार ही ले लो....लेकिन खुदा के वास्ते चुप हो जाओ ...!!!
इस बीच नए सैलानी फिर जंगल में उनके घर की दहलीज पर चले आ रहे हैं...नज़दीक और नज़दीक...बेहद करीब...शावकों की सहमी आंखें मानों उन्हीं से कह रही हों...क्यों आए हो फिर यहां....मेरे कातिल भी तुम...मेरे मुंसिफ भी तुम...मेरे रहनुमा ...फिर हम कहां जाएं...
- विशाल सूर्यकांत शर्मा
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