शुक्रवार, 19 जून 2015

तो अब खत्म हो रहा मोदी-शाह का हनीमून पीरियड...

                                         

                                                                - विशाल सूर्यकांत-

जब भारतीय जनता पार्टी के नेता और कार्यकर्ताओं को भी ये मालूम नहीं था कि सुषमा स्वराज और वसुन्धरा राजे के साथ क्या सलूक किया जाएगा तो आम लोगों को कैसे समझ में आता। पूरे घटनाक्रम को समझिए मेरे नज़रिए से...। मुझे लगता है कि पार्टी का सुषमा स्वराज के साथ खड़ा होना और वसुन्धरा राजे का नहीं जाने का घटनाक्रम भारतीय जनता पार्टी में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के हनीमून पीरियड की विदाई की और इशारा है।  ज़रा पीछे चलें इस पूरे घटनाक्रम से अलग...मुरली मनोहर जोशी,जिन्हें वाराणसी से हटाकर खुद नरेन्द्र मोदी ने चुनाव लड़ा।नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की बेलगाम होती जोड़ी पर नकेल डालने का पहला वार उन्होंने ही किया।
जोशी ने नमामि गंगे प्रोजेक्ट की खुली मुखालफत की। उमा भारती को कहना पड़ा,उनसे बात की जाएगी, सलाह ली जाएगी।नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को दिल्ली चुनाव के बाद से ही घेरने का मौका तलाशा जा रहा था। दिल्ली के बाद अब पंजाब और बिहार में  चुनाव है। आडवाणी खेमे को एक मौक़े की तलाश थी। जोशी के नमामि गंगे प्रोजेक्ट पर सवाल उठाने को नरेन्द्र मोदी गुट ने पहला वार मान कर पलटवार कर दिया। सुषमा स्वराज को घेरने के लिए मोदी खेमे से ललित मोदी को लेकर यूके को लिखे गए लेटर लीक हुए। सुषमा स्वराज बूरी तरह घिर गई। उधर ,ललित मोदी ने उन्हें बचाने के लिए दस्तावेजों का पुलिंदा जारी किया। यहां ललित मोदी ने एक तीर से दो शिकार किया। जिसमें वकील के जरिए वो दसतावेज उजागर किए जिसमे राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे भी उलझ सकती थी। इस डोक्युमेंट  में यूके सरकार के लोगों को कहा कि वे ललित मोदी के लिए गवाही दे रही है लेकिन भारतीय एजेंसियों को इसकी जानकारी ना ले। स्वराज और राजे घिर गई। पार्टी की तरह ही आरएसएस खेमा भी नरेन्द्र मोदी समर्थक और विरोधी तो नहीं लेकिन हां, ऐसे लोग जो मोदी सरकार पर आरएसएस का कंट्रोल खत्म नहीं होने देना चाहते, ऐसे लोगों के बीच साफ बंट गया।

उस खेमे में संजय जोशी और राम माधव जैसे लोग हैं, जो कि फाइनेंसर लॉबी के साथ आरएसएस में अच्छा रसूख रखते हैं। दूसरी और नरेन्द्र मोदी समर्थक आरएसएस गुट में ओम माथुर, मनोहर खट्टर व अन्य लोग शामिल है। 
- सीधा मामला ये हो गया कि आडवाणी और उनके समर्थक नेता और आरएसएस लॉबी
- और दूसरा नरेन्द्र मोदी उनके समर्थक और उनकी आरएसएस लॉबी

सुषमा स्वराज और फिर वसुन्धरा राजे के फंसने के बाद आडवाणी कैंप को लगा कि अपने लोगों को नहीं बचाया तो फिर मोदी-शाह गुट का एकछत्र राज हो जाएगा। लिहाज़ा आडवाणी ने इमरजेंसी के हालात वाला बयान दिया। ये ऐलान था उन सभी के लिए जो नरेन्द्र मोदी से खुश तो नहीं थे लेकिन कोई मोदी को चुनौती देने वाले फेस की तलाश में जरूर जुटे थे। आडवाणी ने ऐसे लोगों की आवाज को जुबां दे दी।  सुषमा स्वराज को हटाने की मांग करने वाला विपक्ष इससे आगे मोदी के इस्तीफे की मांग करता, इसीलिए मोदी गुट पहले से तैयार था कि सुषमा स्वराज का इस्तीफा नहीं लेना है लेकिन पूरी तरह एक्सपोज़ कर बदनामी करने की मंशा से नरेन्द्र मोदी ने बचाव नहीं किया। अपनी विदेश मंत्री को विवादों में छो़डकर मोदी खुद  बाहर से आए राष्ट्राध्यक्षों का स्वागत करने में व्यस्त होते दिखे।

उधर, आडवाणी ने इमरजेंसी के बयान से बने दबाव को और आगे बढाते हुए केजरीवाल को मुलाकात का टाइम देकर  दूसरा दांव खेल दिया। इस दांव के आगे मोदी-शाह गुट पीछे हट गया। क्योंकि केजरीवाल, आडवाणी के इस बयान की बिसात पर अपनी राजनीति जोड़ चुके थे। अमित शाह ने रिक्वेस्ट के बाद आडवाणी ने ये मुलाक़ात रद्द की । इस शर्त के साथ की पार्टी दोनों के लिए बचाव में आगे आयगी। नतीजा ये कि भाजपा के प्रवक्ता जो पिछले तीन दिनों से खामोश बैठे थे वो बैरक से बाहर आए। स्वराज और राजे दोनों का जमकर बचाव करने लग गए।  ये शुरुआत हैं क्योंकि दांव-पेंच और चलेंगे लेकिन इस बीच भाग्यशाली वसुन्धरा राजे रही हैं क्योंकि उन पर आया अब तक का सबसे बड़ा खतरा और दबाव अब टल गया है। दरअसल, वसुन्धरा राजे इस मामले में फंसी ललित मोदी की शरारत की वजह से थी और बची हैं तो आडवाणी कैंप के स्टेंड ले लिए जाने से।    
 स्थितियों में तालमेल देखिए कि कौन किसके सामने झुके, इस लड़ाई को जोधपुर में आए सुब्रह्मय्म स्वामी ने और ये कह कर उजागर कर दिया कि राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक बुलाएं जिसमें सभी खुल कर अपनी बात रखें, अमित शाह आडवाणी से सलाह लें। क्योंकि स्वराज को बचाने के लिए वसुन्धरा राजे का भी इस्तीफा रोकना था, इसीलिए सुब्रहम्यम स्वामी ने उनकी तुलना झांसी की रानी से कर आडवाणी कैंप में उनकी मौजूदगी के संकेत दे दिए।

आडवाणी के प्रशय के बाद वसुन्धरा राजे ने भी बगावती तेवरों की झलक दिखाते हुए दो-तीन विधायकों को मीडिया में बाइट देने के लिए आगे किया। ये महसूस करवाने के लिए की वसुन्धरा को हटाया तो पार्टी टूट जाएगी। दिल्ली की हार और सामने खडे बिहार की वजह से मोदी-शाह गुट इसके लिए तैयार नहीं था। दोनों गुटों में संघर्ष विराम की बिसात बिछ गई। सुषमा स्वराज के साथ ही वसुन्धरा राजे का बचाव करने के लिए पार्टी को आगे आना पड़ा। वसुन्धरा राजे को बचाने के कारण तलाशे गए। जिसमें देखा गया कि वसुन्धरा राजे के खिलाफ दस्तावेज में ललित मोदी के साईन तो हैं लेकिन वसुन्धरा राजे के नहीं। इस पहलू को तीन दिनों के मंथन के बाद वसुन्धरा राजे के लिेए ढ़ाल बनाया गया। सुषमा स्वराज के लिेए मानवीय संवेदनाओं की ढाल और वसुन्धरा राजे के लिए सबूत का अभाव। उनके पुत्र दुष्यंत सिंह के लिए विशुद्ध आर्थिक लेन-देन का आधार बनाया गया।
 इधर, भाजपा प्रवक्ताओं के बयान हुए तो आडवाणी ने भी इमरजेंसी वाले बयान पर अपनी सफाई देते हुए तीर का निशाना कांग्रेस की ओर मोड़ दिया। यानि साफ तौर पर दोनों खेमों में अब युद्ध विराम हो गया। लेकिन भाजपा में ये अभी संघर्ष विराम है लेकिन बिहार के नतीजों के बाद स्थितियां बदेंलगी। क्योंकि राजनीति को करीब से जानने वाले साफ देख पा रहे हैं कि बिहार में भारतीय जनता पार्टी की राह आसान नहीं है। अगर ऐसा हुआ तो आडवाणी कैप फिर मुखर होगा । फिलहाल, आडवाणी और मोदी कैंप में शह और मात के खेल के बीच वसुन्धरा राजे को हटाने या ना हटाने का मुद्दा, शतरंज के मोहरे की तरह आगे-पीछे चल रहा है। जाहिर है कि उपरी स्तर पर जिस तरह के हालात बन रहे हैं। फ़ैसला आसान नहीं होगा। 

मंगलवार, 19 मई 2015

मेरा क़ातिल भी तू, मेरा मुंसिफ भी तू ...

- विशाल सूर्यकांत शर्मा-  
ये कहानी है एक परिवार की। जिसमें एक जोड़ा है उस्ताद और नूर...। ये परिवार, अपने हिस्से की जिंदगी अब सुकुन से गुजार रहा था, क्योंकि बचपन से लेकर अब तक परिवार के हर बंदे ने किया अपने हिस्से का संघर्ष...।
उस्ताद पहले अकेला था...जिंदगी के संघर्ष की राह में नया मुकाम मिला और नूर उसकी जिंदगी का हिस्सा बन गई। अब दोनों ऩई राह के हमसफर हो गए। दोनों का संघर्ष किसी भी मायने में कम तो नहीं हुआ। लेकिन हां, एक अच्छी बात ये थी कि अब संघर्ष करने के मकसद में एक जिम्मेदारी ज़रूर आ गई। एक दूसरे का साथ देने की जिम्मेदारी।

... वो खामोश रहती, तो वो काम करता।  वो थक जाता तो ...वो निकल पड़ती। वक्त गुजरता रहा और इस जोड़े की जिदंगी एक परिवार में बदल गई क्योंकि परिवार में दो नन्हें बच्चे जुड़ गए। इन बच्चों ने मानों उनकी सारी दुनिया ही बदल दी थी क्योंकि दिनभर काम के बीच वो अपने बच्चों को देखते तो सारी थकान दूर हो जाती। बच्चे भी अपने मां-बाप के हमसाया होते चले गए। उस्ताद, पहले अकेला था अब परिवार बन गया तो चिंता भी बढ़ गई। जिम्मेदारियों ने उसे और भी मेहनतकश बना दिया।

लेकिन ....एक दिन उनकी हंसती-खेलती जिंदगी ने करवट ली और उस्ताद के हाथों अनचाहा गंभीर अपराध हो गया। दरअसल, हुआ ये कि उसे लगा कि शायद कोई उसके घर को नुकसान पहुंचाना चाह रहा है। हंसते-खेलते परिवार को उजाड़ना चाह रहा है...। अपना संघर्ष,अपनी खुशियां छिन जाने का डर इस कदर हावी हुआ वो उस शख्स पर टूट पड़ा जो नजदीक आ रहा था।  बस गलती ये हो गई कि उसने अपनी पूरी ताकत लगा दी और नतीजा ये कि वो शख्स वहीं ढ़ेर हो गया।

उस दिन उस्ताद को पहली बार लगा कि वो अपनी ताकत से और क्या-क्या कर सकता है ! पहले , एक और बाद में, उसके आशियाने पर नजरें लगाते इसी तरह के तीन और लोग उस्ताद के हाथों मारे गए। उसे अपने किए का अफसोस इसीलिए नहीं था क्योंकि उसे मालूम था कि अगर उसने ऐसा नहीं किया तो वो लोग उसका घर-परिवार, उसका संसार छीन लेगें।


फिर क्या था ये मामला लोगों के बीच आग की तरह फेैल गया।  क्योंकि मामला चार लोगों की जान लेने का बन गया। लोगों में उसकी बढ़ती ताकत का डर समा गया। किसी ने उसकी मजबूरी नहीं समझी। सभी को यही लग रहा था कि ये कोई मजबूरी नहीं बल्कि इस तरह का अपराध करना उस्ताद की आदत बन गई है। साजिशें रची  गई। उसकी ताकत को मात देने के लिए ताने-बाने बुने गए और एक दिन उस्ताद को धोखे से बेहोशी की दवा पिला कर बंधक बना लिया और चुपचाप दूसरे अनजान जगह पर नज़रबंद कर दिया।

उधर, उस्ताद के घर वालों को अब तक कुछ मालूम नहीं कि वो आखिर कहां चला गया ? आज भी उसकी बीबी नूर उसकी याद में भटक रही है। दो नन्हें बच्चे इंतजार कर रहे हैं कि दिन में नहीं तो शाम ढ़लते ही उन्हें दुलारने वाला उन्हें ज़िन्दगी के सबक सिखा रहे ,उस्ताद का फिर सहारा मिलेगा।  नूर की आँखें अब इंतजार में पथरा गई हैं।  वो तय नहीं कर पा रही हैं कि वो क्या करें ? कहां जाए ? वो भी उस्ताद की तरह अकेले गुम नहीं हो सकती क्योंकि दो नन्हीं जानें, उसे आस भरी निगाहों से हर वक्त निहारती रहती है, उससे लिपटी रहती है

उसे समझ में नहीं आ रहा कि आखिर हुआ क्या ??? वो उस्ताद जिसे उसने दिल से चाहा, अपना जीवन साथी बनाया वो आखिर उसे ऐसे छोड़ कर कैसे जा सकता है ??? एक पल में नूर के ज़ेहन में  कई ख्याल आते हैं । कभी मन कहता है कि उस्ताद को लौट कर आना ही होगा । फिर सोंचती है कि अगर नहीं आया तो ... ??? ...शायद,  आज वो आ जाए...!!! बस, इस ख्याल में वो रोज उस जगह के आस-पास घूमती है जहां से उसका उस्ताद, उसे आखिरी बार दिखा था।

नूर की जिंदगी का सुकुन मातम में बदल गया है। यकीन मानिए कि किसी भी गुमशुदगी बहुत तकलीफदेह होती है, आंखों के आगे कोई प्राण त्यागे तो लगता है तो फिर भी सुकुन रहता है लेकिन कोई इस तरह अचानक गायब हो जाए तो मानों अपने साथ, आधी जिंदगी ले जाता है।  बेइंतहा बेबसी के आलम में आज भी नूर को इंतजार है कि उसका उस्ताद एक दिन लौट आएगा।

उधर, उस्ताद ...पल-पल नूर और बच्चों की याद में मानों अपनी सुध-बुध खो बैठा है। लेकिन वो अपने गांव से, अपने लोगों से इतना दूर आ गया है कि उसे खुद नहीं पता कि वो लौटेगा भी या नहीं!!! वो चाहता हैं कि यकीन दिलाए कि नूर के बिना उसकी जिंदगी बेनूर हो चली है, अपने बच्चों से मिलने की तड़प में गाफिल हुआ जा रहा है...






ये कहानी किसी और की नहीं ... बल्कि रणथम्भौर के बाघ T-24 यानि उस्ताद और टाईग्रेस नूर और उससे दो नन्हें शावकों की है। आम इंसानों की तरह इनका भी परिवार है और इनका अपना लगाव भी..।
मगर हम इंसान तो सिर्फ वो बात सुनेंगे जो जुबां से कही जाए। जो बात हमें सुनाई ना दें, उसको लेकर हम बेफिक्र हो जाते हैं। ये  वही टाइगर 'उस्ताद' है जिसने रणथम्भौर के जंगल में अपने घर-परिवार के नज़दीक आते जा रहे हजारों लोगों में से 4 लोगों पर हमला कर दिया। इंसान और जानवर के बीच छिड़ी इस अनचाही जंग का खामियाजा आखिरकार जानवर को ही भुगतना पड़ा।

सरकार ने आबादी और लोगों के आने-जाने की राहगुजर बदलने के बजाए टाइगर ' उस्ताद ' को, उसके अपने ही घर से बेहोश कर चुपचाप उठा कर सैंकड़ों किलोमीटर दूर उदयपुर के सज्जनगढ़ एरिया में भेज दिया गया है। उस्ताद से जंगल की बादशाहत छिनते वक्त इतना भी ख्याल नहीं रखा गया कि जो उस्ताद जंगल में तीस किलोमीटर के घेरे में घूमने का आदि था, उसे कम से कम तीस फीट घेरे के पिंजरे में रखा जाए ... !!! सरकार के मंत्री कह रहे हैं कि हमें सबको देखना पड़ता है। आप वन्यजीव प्रेमी हो तो टाइगर की बात करोगे लेकिन हमें वहां वनकर्मियों की सुननी पड़ती है, आस-पास के गांवों की बात सुननी पड़ती है।

दरअसल, सरकार ये पहलू तो छुना ही नहीं चाहती कि क्या रणथम्भौर के बादशाह को होटल मालिकों के दबाव में वहां से अचानक गायब करवाया है। रणथम्भौर में टाइगर के आशियानों तक होटल मालिक अपनी होटलें बना चुके हैं, वो चाहते हैं कि टाइगर उनकी होटल के आस-पास दिखे, क्योंकि उसे दिखाकर करोड़ो कमाए जा रहे हैं लेकिन जब वो किसी पर हमला कर दे तो उसे आदमखोर करार देकर देश निकाला दे दिया जाता है। ये टाइगर फिर अपने परिवार से मिल पाएगा, फिर रणथम्भौर आएगा !!! इस पर मुझे शक है क्योंकि इसके लिए सरकार को उसका जंगल लौटाना होगा। रणथम्भौर में टाइगर को दिखाने की टिकट तो ली जाती है लेकिन वो वोटर नहीं है...वो खुद बिजनेस भी नहीं करता। अब आप खुद ही समझ लिजिए...ना वोट और ना ही धंधा...तो फिर क्या फर्क पड़ता है कि सिर्फ एक टाइगर उस्ताद जंगल में ना रहे। नुमाइश ही तो करनी है तो शावक अपना दुख भुलाकर एक ना एक दिन तैयार हो ही जाएंगे। नूर अपना ग़म एक ना एक दिन भूल ही जाएगी। सुख में रहें या दुख में, सज्जनगढ़ और रणथम्भौर में इनकी नुमाइश जारी रहेगी।

सवाल ये हैं कि आखिर किससे अपराध नहीं होते ? हम अपराध करें तो उसे पैरवी और सुनवाई का अधिकार मिलता है लेकिन ये बेजुबान जानवर ठहरा। सिर्फ दहाड़ कर अपनी बात रखता है। उस्ताद , आज भी सज्जनगढ़ में दहाड़ रहा है। इस दहाड़ को आप बादशाहत का रुबाब कहेंगे या फिर अपनों से बिछड़न का दर्द !!!  ये बात तो आपकी संवेदनाएं ही तय करेंगी।

 मेरी संवेदनाएं कह रही है कि ये जानवर के प्रति हमारा बर्बर रवैया है, ये जानवरों को लेकर हमारी अमानवीयता की इंतहा है । उस्ताद और नूर के बिछड़न की इस कहानी में आपको क्या नजर आया ??? मुझे नहीं मालूम लेकिन रणथम्भौर के जंगल का ज़र्रा-ज़र्रा अपने बादशाह की अनचाही रुखसत पर हैरान नज़र आता है।...

उस्ताद को खोज रही नूर के साथ-साथ उसका आशियाना आंसू बहा रहा है ... या कहें कि उस्ताद के जाने के साथ ही नूर की तरह,  रणथम्भौर का जंगल भी बेनूर हो चला है। हो भी क्यों ना !!! आखिरकार, उनकी आंखों के सामने ही तो उस्ताद और नूर की प्रेम कहानी लिखी गई होगी, जीवन का संघर्ष लिखा गया होगा ।

उधर, जंगल की ठंडी आबो-हवा चुपचाप नन्हें शावकों को सहला रही है कि पिता का साया नहीं, तो मेरा कुछ दुलार ही ले लो....लेकिन खुदा के वास्ते चुप हो जाओ ...!!! 

इस बीच नए सैलानी फिर जंगल में उनके घर की दहलीज पर चले आ रहे हैं...नज़दीक और नज़दीक...बेहद करीब...शावकों की सहमी आंखें मानों उन्हीं से कह रही हों...क्यों आए हो फिर यहां....मेरे कातिल भी तुम...मेरे मुंसिफ भी तुम...मेरे रहनुमा ...फिर हम कहां जाएं...


- विशाल सूर्यकांत शर्मा 
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बुधवार, 13 मई 2015

मुस्कुराते मुखौटों पर लगाम

                    

                                                   
                                                                - विशाल सूर्यकांत शर्मा- 
हमारी सोसायटी में, शक्ल और सूरत के इतने मायने हैं कि अच्छे नैन-नक्श का, कोई दिख जाए तो फिर हमें उस इंसान की सीरत देखने का मन ही नहीं करता। आम इंसान की ख्वाहिश रहती है कि अपना चेहरा-मोहरा अच्छा हो । जब फोटो खिंचवाएं, तो वो चेहरे से भी ज्यादा खूबसूरत निकल आए। आम आदमी हो या फिर कोई नेता। सबके लिए फोटो खिंचवाना किसी रोमांचकारी काम से कम नहीं। टाई में, सूट-बूट में, मस्ती के मूड में फोटो ना जाने कितनी अलग-अलग शैलियों में फोटो। अगर चिंतनशील व्यक्तित्व नहीं भी हैं तो भी आपके एलबम में एक फोटो जरूर ऐसा होगा जो आपकी चिंतनशील छवि को उजागर करे।

एलबम में पड़ी बरसों पुरानी फोटो देखकर आप अपना बचपन याद कर सकते हैं या फिर जवानी का गुज़रा जमाना...। कुछ फोटो, ऐसी होती है जो अचानक आपके सामने आ जाए तो अतीत के कई भूले-बिसरे पल अपनी गुमशुदगी छोड़, आंखों के सामने आ जाते है। हम हिन्दुस्तानी लोग, खुद के प्रति इतना प्रेम रखते हैं, खुद के प्रति इतनी दया भावना रखते हैं कि हमें अपनी गलतियां तो नजर ही नहीं आती। लेकिन... हां, ये शर्तिया बात हैं कि आप चाहे कितने भी आत्ममुग्ध हों, मगर दूसरों को अपनी फोटो दिखाते वक्त खुद ही अपनी खामियां पहले बताते चलते हैं ...ताकि आपकी फोटो देख रहे शख्स के हिस्से में मजबूरन आपकी तारीफ करने का ही विकल्प बच जाए।  मन को टटोलिए और बताइए, मेरी इस बात में, सच्चाई हैं कि नही !!! 

हमें खुद से ज्यादा अपनी फोटो से प्यार इसीलिए हो जाता है क्योंकि वो हमारे सुनहरे अतीत की कहानी कहता है। हमारे यहां चलन नहीं है कि हम दुख के वक्त में फोटो लें। हमारे यहां फोटो हमेशा सुकाल में खिंचाई जाती है। दुखियारा सा चेहरा भी फोटो खिंचवाते वक्त अच्छा-खासा कॉन्शियस होकर हंसमुख बन जाता है। अब अपनी फोटो लेने के लिए 'सेल्फी' शब्द अपना लिया गया है। पहले लगता था कि सेल्फी का चलन सिर्फ कॉलेज गोइंस स्टुडेंट्स और टीन एजर में ही था। मगर जब से मोदी जी ने सेल्फी को 'राष्ट्रीय आयोजन' बना दिया है तब से लोगों की सेल्फी लेने में हिचक ज़रा कम हो गई है। बच्चों के साथ, छोटे और बड़ों के साथ हर मौक़े-बेमौक़े पर '' फोटों-खिंचाई '' धीरे-धीरे दिनचर्या का हिस्सा बन रही है।  



 आजकल तो मोबाईल की शक्ल में एक कैमेरा हमेशा  साथ चलता है। खुशी या गम,जो भी मिला वो जिंदगी  के अनुभवों के साथ-साथ एक क्लिक पर आपके  मोबाइल फोल्डर में भी सेव होते रहे है। जिंदगी के  अनुभवों की तुलना में यहां आपके पास ये सुविधा है  कि आप अनुभव को बदल नहीं सकते लेकिन अपने  अतीत का फोटो, जब चाहें तब जरूर एडिट कर सकते  हैं। फोटो खिंचवाने का चलन बंद फोटो स्टूडियों से  सरकते हुए सेल्फी के जमाने तक आ पहुंचा है।

हम आम लोगों की जिंदगी में फोटो और राजनीति में फोटो खिंचवाने के अलग-अलग मायने है।  हम लोग अपनी खुशियां जताने फोटो खिंचवाते हैं मगर नेतागिरी में फोटो खिंचवाने और उसे लगाने का मतलब है अपनी पहचान को बढ़ाना और अपने मुस्कुराते मुखौटों की मानिंद लगे फोटो को भी वोट हासिल करने का जरिया बनाना।  


"फोटो- खिंचाई" की ये राम कहानी इसीलिए गढ़ी है क्योंकि अभी टीवी में देखा कि सरकारी विज्ञापनों में नेताओं की फोटो लगने पर पाबंदी लग गई है। देश की सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया है कि प्रधानमंत्री,राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के अलावा देश भर में किसी भी संवैधानिक संस्था के ओहदेदार बने नेता की फोटो सरकारी विज्ञापनों में नहीं लगेगी। मतलब ये कि आजादी के इतने सालों तक सरकारी खर्च पर अपने चेहरे का नूर दिखाते घूम रहे नेताओं पर अब लगाम लग गई है।  नेताओं के ''बे-वजह मुस्कुराते चेहरे''  सरकारी विज्ञापनों में अब आपको देखने नहीं मिलेंगे। 


सुप्रीम कोर्ट की ओर से प्रधानमंत्री के पद को इन आदेशों से अलग रखा गय है । मतलब, सारे देश को सेल्फी का चस्का लगवाने वाले मोदी साहब तो बच गए लेकिन उनके अलावा सारे मंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल, बोर्ड-निगमों के चैयरमेन, पॉलिटिकल अवॉइन्टमेंट वाले लालबत्ती धारी सब के नूरानी चेहरे सुप्रीम कोर्ट के फैसले की जद में आ गए। देश में अब तक चुनाव आयोग की आचार संहिता के अलावा तो कोई ऐसा मौक़ा नहीं था जब सरकारी कार्यक्रमों के विज्ञापन में नेताजी की फोटो लगाने पर रोक हो। लेेकिन अब बारहमासी रोक लगा दी गई है। नेताओं के सामने दिक्कत तो ये है कि कोर्ट के निर्देशों पर किस दलील के साथ एतराज करें ...???  क्योंकि ये  उनका हिडन एजेंडा होता है कि सरकारी विज्ञापनों के बहाने अपना फोटो भी लग जाएगा। 

गंभीर पहलू ये हैं कि ये फैसला सही वक्त पर आया है क्योंकि सरकारी विज्ञापनों में फोटोबाजी की रवायत कुछ अलग राह पर चल पड़ी थी। अपनी फोटो की माया में उलझ रहे नेताओं की भीड़ में मायावती तो इतनी आगे निकल गई कि खुद की मूर्ति ही लगा ड़ाली। लखनऊ में बना अम्बेडकर पार्क बसपा नेता और पार्टी के चुनाव चिन्ह की मूर्तियों का खुला संग्रहालय बना हुआ है जहां 1200 करोड़ की मूर्तियां मायावती की सियासत चमकाने के लिए हमेशा के लिेए स्थापित कर दी गई हैं। जाहिर है कि फोटो लगाने की ख्वाहिश से शुरु हुआ ये सिलसिला मू्र्तियां स्थापित करने तक आ पहुंचा था, इस पर रोक जरूरी थी। 


 नेताओं की महत्वाकांक्षाओं पर लगाम कसने के मामले में सुप्रीम कोर्ट का  ये फ़ैसला एतिहासिक होगा !   ये कहना ज़रा जल्दबाजी नहीं कर सकते....  क्योंकि जमात तो नेताओं की ठहरी... यहां से नहीं... तो वहां से, सरकार  नहीं तो कार्यकर्ता और दानदाताओं के हवाले से अपने फोटो वाला विज्ञापन  कहीं ना कहीं से तो छपवा ही देंगे। सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला तभी मुफीद है  जब ये अखबारों तक नहीं बल्कि सरकारी बेवसाइट्स और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में जारी सरकारी अपीलों पर भी लागू हो।

 ये सच हैं कि तमाम आदेशों के बावजूद भी किसी बहाने नेताजी चेहरा दिखाए बिना नहीं मानेंगे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी विज्ञापनों में नेताओं के चेहरे दिखाने पर रोक लगाकर, सरकारी खर्च पर निजी प्रचार की मंशा पालने वाले नेताओं को आईना जरूर दिखाया है। ये फ़ैसला सरकारी ओहदों और सिस्टम में बढ़ते व्यक्तिवाद पर सीधा और करारा प्रहार है। हमारे देश को विज्ञापनों में मुस्कुराते मुखौटे नहीं, जमीन पर काम करने वाले जनप्रतिनिधियों की ज्यादा ज़रूरत है।           - शुक्रिया सुप्रीम कोर्ट !!! 

विशाल सूर्यकांत शर्मा
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लेखक पत्रकार-फर्स्ट इंडिया न्यूज़ में हैड, इनपुट हैं। 

सोमवार, 11 मई 2015

केजरीवाल को भी पसंद मीडिया की मिठास ....

                                           
                 
 विशाल सूर्यकांत शर्मा
पुरानी कहावत है -  मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कडवा थू ... । मीडिया के साथ बर्ताव की ये नीति बरसों पुरानी है लेकिन मीडिया की पतवार के सहारे सियासत में उतरे नए-नवेले नेता अरविन्द केजरीवाल भी इस नीति पर चल पडेंगे, इसकी उम्मीद ज़रा कम थी। एक सर्कुलर निकाल कर अरविन्द केजरीवाल ने सारी मीडिया को घेरने की जुगत लगाई है, उसमें गंभीरता कम, बचकानापन ज्यादा लग रहा है। केजरीवाल शायद नए नेता हैं इसीलिए तो मीडिया पर सीधा अटैक कर बैठे है। क्योंकि बाकी नेता तो किसी ना किसी बहाने मीडिया को अपने डंडे से हांक ही लेते है। जिसे सोसायटी का वॉच डॉक करार दिया गया है वो मीडिया सबको तभी पसंद आता है, जब वो अच्छी, पॉजेटिव या मिठास भरी खबरें दिखाता रहे। दांत दिखाने वाला मीडिया किसी को पसंद नहीं। ' नेिंदक नियरे राखिए' की बात अभी भी हमारे कल्चर में किताबी ज्ञान से बाहर नहीं निकल पाई है। हर कोई चाहता है कि वो काम करता रहे और पीछे एक दो पिठ्ठू उसकी सोंच को निराली कहते फिरें और जब मीडिया इस शैली को अपनाने लगे तो फिर और क्या चाहिए।  पिठ्ठू बन जाओ तो विज्ञापन और नियामतें न्यौछावर होती चली जाएंगी। रसूखदार लोग चाहते हैं कि सोसायटी के वॉच डॉग सिर्फ उनकी पहरेदारी करे, उन्हें खुश रखें। वो इसे आस-पास भी इसीलिए रखना चाहते हैं ताकि दूसरी ताकतों से अपना बचाव होता रहे। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जो किया वो नई बात नहीं है। अक्सर सरकारें और नेता अपनी पसंद और नापसंद के मुताबिक मीडिया डिलिंग करती आई है। मीडिय़ा की मिठास के तलबगारों की जमात में केजरीवाल भी शामिल थे। बस दिक्कत ये हो गई कि जब वो क्रांतिवीर की भूमिका में थे तब जमकर मीडिया की पब्लिसिटी मिली और खूब छपे, खूब दिखे। अब जब वो प्रशासन बन गए... तो पब्लिसिटी की जाजम सरक गई और अब कडवी दवाओं का दौर शुरु हो गया। 


उन्हें सत्ता विरोधी शख्स के रूप में जो प्रचार मिला जब सत्ता में बैठ गए तो वो ही प्रचार सवालों की शक्ल में आगे-पीछे घूमने लगा। केजरीवाल ही नहीं, किसी भी नए नवेले नेता के लिए ये ट्रांजिशन गले नहीं उतरता । केजरीवाल के लिए कोढ़ में खाज की स्थिति ये हो गई कि केजरीवाल उस दिल्ली के मुख्यमंत्री बन बैठे हैं जहां मीडिया रेटिंग्स के लिए सबसे ज्यादा टीआरपी मीटर्स लगे हैं। यहां तो एक गली में कुत्ता भी मर जाए तो देश भर के कुत्तों की मौत के मामले एक ही दिन में उठ सकते हैं। ये वो शहर हैं जहां बैठकर जिस तरह से नेता देश की नीति तय करते हैं, ठीक उसी तरह मीडिया में लोग देश भर के लोगों को आज क्या दिखाना है, ये तय करते हैं।

आज मीडिया के खिलाफ सर्कुलर निकालने वाले केजरीवाल की शख्सियत मीडिया के जरिए ही संवरी है। जब-तब उन्हें पब्लिसिटी का मीठा डोज मिलता रहा, उनके तेवर और बयानों का जिक्र होता रहा तब तक कोई सर्कुलर या नैतिकता की दुहाई नहीं दी गई। अन्ना आंदोलन में और उसके बाद मफलन मैन और ना जाने कितने नामों की उपाधियां उन्हें मीडिया के प्रचार-प्रसार से ही तो मिली थी। अपनी शुरुआत से लेकर अब तक अरविन्द जिस मीडिया की नैय्या पर ही सवार रहे अब उस नैय्या का समन्दर बदल गया है। दरअसल, अरवेिन्द केजरीवाल के साथ एक ज्यादती ये हो गई कि योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण के मामले पर पार्टी में दो फाड़ ,दिल्ली में जंतर-मंतर में एक शख्स की सरेआम फांसी के बावजूद केजरीवाल की सभा जारी रखने का फ़ैसला, कुमार विश्वास के चरित्र का मामला या कानून मंत्री की डिग्री का मामला, आईएएस को आनन-फानन में केन्द्र की सेवा में फिर भेजना का मामले एक के बाद सामने आ गए।  उन्हें लग रहा है कि मीडिया उनके पीछे पड़ गया है। जबकि हकीकत ये हैं कि मीडिया का ये चरित्र है कि वो अतिवादी भी तब ही होता है जब कुछ सतही पहलू सामने आते है।



सवाल ये हैं कि केजरीवाल क्या इसके जरिए मीडिया पर नकेल लगाना चाहते हैं ? क्या वो तय कर चुके हैं कि सच वो ही होगा जो उनके हिस्से की कहानी बताएगा?  मान लिया कि मीडिया बिकाऊ है तो क्या आप उसे नकार देंगे?  क्या वाकई किसी सर्कुलर की जद में लाकर नख-दंत विहिन बना सकते है ?  
 पहले मीडिया के दिल्ली सचिवालय में प्रवेश बंद करने का फैसला हुआ और अब ये सर्कुलर, आखिर क्या कहना चाहते हैं अरविन्द केजरीवाल ?  मीडिया पर रोक लगाने वाले वो पहले मुख्यमंत्री तो नहीं लेकिन हां, ऐसा खुला सर्कुलर जारी करने वाले तो शायद वो पहले मुख्यमंत्री होंगे मीडिया को नैतिकता के बंधन में बांधने के बजाए केजरीवाल ने कानूनी शिकंजा तैयार कर दिया।  मुद्दा तो बस इतना सा ही होगा कि मीडिया पर भी कुछ नैेतिक दबाव रहे ताकि कही-सुनी रिपोर्टिंग के बजाए तथ्यों के आधार पर मीडिया खबरें चलाए। इसके लिए ये रास्ता क्यों अपनाया गया ? बेहतर तो ये होता कि दिल्ली सरकार के विभाग, अपने विभाग की गलत रिपोर्टिंग करने पर पूरी मुस्तैदी से सरकारी बेवसाइट और सोशियल मीडिया पर अखबार या टीवी चैनलों की खबरों का नामजद खंडन जारी करते। मीडिया पर दबाव बनाए रखने के लिए ये ही तरीका काफी था कि  अगर कोई खबर गलत है और आपको लगता हैं कि मीडिया नाहक मुद्दा बना रहा है, दुष्प्रचार कर रहा है तो आप इसका जबाव दें। लोकतंत्र में आखिरकार  कोई कुछ भी कहे, कोई कुछ भी करें लेकिन जनता को ही तय करना है। चुनावों के वक्त साफ हो ही जाएगा कि केजरीवाल सहीं है या फिर मीडिया की टारगेटेड रिपोर्टिंग।
जिस तरह से केजरीवाल को खुद को सही साबित करने के लिए अगली बार फिर चुनाव जीतकर दिखाना होगा, ठीक उसी तरह ये मान कर चलिए , देश में मी़डिया पर भी ये नैतिक दबाव रहेगा कि उसके पास जनता की नज़रों में  विश्वसनीयता का तमगा है या नहीं। 
अक्सर आपने देखा होगा कि कई बार मीडिया के लाख पॉजेटिव जतन के बावजूद भी नेता चुनाव हार जाते हैं या बहुत नेगेटिव न्यूज के बावजूद चुनाव जीत जाते हैं। इन घटनाओं का मतलब क्या है ??? जो जनता अपना नेता चुनती है उसे आप इतना बेवकूफ नहीं मान सकते, वो भी तो मीडिया की  विश्वसनीयता की मूक कसौटी पर जनता मीडिया को भी अभी परख रही है। तभी तो सोशियल मीडिया इतनी तेजी से रफ्तार पकड रही है। 



मीडिया को लेकर बन रही सोच में एक बडी दिक्कत ये भी है कि कई बार ऐसे मौक़े भी बन जाते हैं कि कोई नेता या पूरी की पूरी सरकारें, एक के बाद एक घटनाक्रमों के झंझावातों में फंसती चली जाती है कि मीडिया को कवरेज दिखाती रहती है। चाहे-अनचाहे घटनाक्रम के रेफरेंस जु़डते चले जाते हैं।  वो दौर ऐसा होता है जब खबरों से ज्यादा परसेप्शन दर्शकों पर अपना असर दिखाता है। अगर ये परसेप्शन किसी के खिलाफ हो तो उसे सारी मीडिया अपने खिलाफ नजर आती है। लेकिन हकीकत में ऐसा होता नहीं है। ये कभी नहीं हो सकता कि सारी मीडिया बिरादरी एक टारगेट बनाकर काम करे। मेरा दावा है कि ये कभी संभव ही नहीं है। मीडिया में अंदरूनी प्रतिस्पर्धा और टीआरपी का खेल, ये काम कभी होने ही नहीं देगी। जो ऐसा सोचता है उसे मीडिया की बारिकियों को और गंभीरता से समझना होगा। 

  दरअसल, अरविन्द केजरीवाल ही क्यों देश का कोई नेता, सरकार या कंपनी नहीं चाहती कि मीडिया उनके लिए पॉजेटिव की रट छोडकर नेगेटिव बोले। कोई नहीं चाहता कि  मीडिया नेगेटिव डायरेक्शन में जाए। हर कोई चाहता है कि रिपोर्टर, उनके लिए एक अच्छे पब्लिक रिलेशन पर्सन की  मानिंद पेश आए। अच्छी बातें कहे, अच्छा लिखे और अच्छा दिखाए। इसीलिए तो मीठी बांतें, मीठे बोल और मीठी रिपोर्टिंग से विज्ञापन और रेवेन्यू का स्वाद और भी मीठा होता जा रहा है। हर मंत्री और नेता अपनी टेबल में रखी विज्ञापन फाइल पर साइन करने से पहले देखता है कि  किस मीडिया चैनल या अखबार ने अपने मामलों की रिपोर्टिंग में कितनी चाशनी चढ़ाई है ? जब से ये मीडिया में मिठास का चलन चल पड़ा है तब से और अच्छे पत्रकारों की धार कुंद होती चली गई। पत्रकारों की जिंदगी की बड़ी हकीकत ये हैं कि वो बड़ी खबरों के साथ ही औरों की तरह मासिक तनख्वाह का भी तलबगार है। इस पूरी स्थिति का फायदा वो लोग उठा रहे हैं जिनके पास विज्ञापन जारी करने के अधिकार हैं। देश में ये हकीकत है कि मीडिया से ज्यादा मीडिया के परजीवी सेक्टर ज्यादा कमाई कर रहे हैं। मसलन, विज्ञापन एजेंसियां, पब्लिक रिलेशन एजेंसियां। अच्छे-खासे नामचीन पत्रकार मीडिया की मेन स्ट्रीम छोड़कर मीडिया की मिठास में मशगुल हो रहे है। या खुलकर रहें तो मीडियाकर्मी तेजी से पीआर एजेंसियों और विज्ञापन एजेंसियों की कठपुतलियां बनते जा रहे है।  सब तरफ यही दौर चल रहा है लेकिन अभी ये वो अंतिम अवस्था नहीं आई कि हम इसे मीडिया के वजूद का निष्कर्ष मान लें, इन परिस्थितियों को अंतिम सत्य मान लें। 

मुझे लगता है कि ये संक्रमण का दौर चल रहा है। मीडिया के एथिक्स और कारोबार के बीच अनकही जंग चल रही है। लेकिन आखिरकार मीडिया को विश्वसनीयता और सत्यता की धार पर आना ही होगा क्योंकि अगर अब मीडिया ने ये कदम नहीं उठाया तो वो वक्त दूर नहीं जब लोगों की बढती समझ और लॉजिकल थिकिंग के आगे ट्रेडिशनल और इलेक्ट्रोनिक मीडिया इर्रीलिवेंट हो जाएगा।  अपने देश के दर्शकों को आप कडवी रिपोर्ट्स के साथ कुछ मीठी चाशनी भरी पीआर रिपोर्ट दिखा दो तो फिर भी चल जाएगा लेकिन किसी के हक में खबरों का खालिस मीठा पकवान परोसना मतलब, अपनी विश्वसनीयता और साख से समझौता करना है। जो चैनल ऐसा कर रहे है, उनके लिेए वो आत्मघात से कम नहीं है क्योंकि बाजार में अफवाहें उड़ाने के लिए ऐसे चैनल्स का सहारा लिया जाता है। कहां तो पैमाने ये थे कि घटनाक्रम की पुष्टि चैनल  से होती थी और कहां अफवाहों का केन्द्र बन गए चैनल्स और अखबार। बताइए क्या ये आत्मघाती कदम नहीं है ? 
दरअसल, देश के लोगों का मिजाज ये हैं कि दो सौ साल की गुलामी सहने वाले देश की जनता को सत्ता की सेवा कतई पसंद नहीं आती। हमें विरोध के स्वर ज्यादा सुहाने लगते हैं। इसीलिए ही सोशियल मीडिया तेजी से मुखर हो रहा है, यहां अभिवयक्ति की स्वतंत्रता यहां अपने असली स्वरूप में सामने आ रही है। सोशियल मीडिया, धीरे-धीरे  ट्रेडिशनल मीडिया और इलेक्ट्रोनिक मीडिया को निगलता जा रहा है। आप खुद ही देख लीजिए कि तमाम  नेता, कंपनियां, फिल्म स्टार, क्रिकेटर, आम पत्रकार सभी फेसबुक,ट्विटर, ब्लॉग में अपनी बात रखना शुरु कर चुके हैं और मीडियाकर्मी खुद फोलोवर्स की भीड़ में शामिल होकर उनके ट्विट चुराकर खबरें दिखा रहे हैं। रही-सही कसर टीआरपी के खेल ने पूरी कर रखी है। ये सच्चाई है कि अब खबर की ग्रेविटी, उनकी प्रमुखता के साथ नहीं बल्कि टीआरपी मीटर्स की मौजूदगी के साथ जुड रही है। ऐसे में मीडिया की विश्वसनीयता खतरे में है।

ये सारी चर्चा सिर्फ इसीलिए की जा रही है ताकि ये बताया जा सके कि देश की मीडिया के सामने केजरीवाल के सर्कुलर से भी ज्यादा कई बड़े खतरें मुंह बायें खड़े है। केजरीवाल के सर्कुलर से तो मीडिया की सेहत में ज्यादा असर नहीं पड़ने वाला, अलबत्ता, मिठास भरा मीडिया पसंद करने के शौक में केजरीवाल का सर्कुलर, कहीं खुद उनके लिए गले की फांस ना बन जाए. ये चिंता ज़रूर है । ये चिंता केजरीवाल या उनकी पार्टी आप को लेकर कतई नहीं है। लेकिन हां, उनके जरिए देश में जो वैकल्पिक और भ्रष्टाचार विरोधी राजनीति का माहौल एक लंबे दौर के बाद चैक एंड बेलेन्स की स्थिति में आया है। इस दौर को, इस माहौल को, इस राजनीति को यूं ही खत्म नहीं होने दिया जाना चाहिए। उम्मीद है केजरीवाल और उनके समर्थक, इस मर्म को समझेंगे।

 - विशाल सूर्यकांत शर्मा
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 लेखक पत्रकार- फर्स्ट इंडिया न्यूज में इनपुट हैड हैं। 

गुरुवार, 7 मई 2015

@Abhijeetsinger # बाबूजी....इसीलिए हम सोते हैं फुटपाथ पर

      
              विशाल सूर्यकांत शर्मा 
अभिजीत बाबू , मैं आपका वो फैन तो नहीं जो पागलपन की हद तक चला जाऊं लेकिन हां, आपके गाने मैं शिद्दत से सुनता हूं, समझता हूं। मुझे आपकी आवाज बहुत पसंद है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि आपकी हर बेवकूफी भी मुझे पसंद आए !!!  क्या बेवकूफी भरा ट्विट किया है साहब ...!  उम्मीद है कि इसके पीछ चीप पब्लिसिटी की आरजू ही रही होगी, क्योंकि अगर वाकई ये आपकी सोच हैं तो मुझे आपके इंसान होने पर ही शर्म आ रही है। 

सलमान ख़ान को सज़ा हो गई तो क्या गलत हो गया ? 13 साल तक उन्हें अपनी बेगुनाही को साबित करने
और अपराधी होने के बावजूद फिल्मों में काम करने का भी खूब मौक़ा मिला। इन तेरह सालों में उनकी फिल्मों ने करोड़ो कमाए...और आपको मालूम है कि उनकी फिल्में चलाने के पीछे उनके सिर्फ़ वो फैन ही नहीं हैं जो आपकी तरह आलिशान बंगलों में सोते हैं। उनकी फिल्मों की कामयाबी के पीछे आप जैसे लोगों से कई गुना ज्यादा वो लोग हैं जो फुटपाथ पर सोते हैं। कभी-कभी भूखे भी रहते हैं लेकिन अपनी दिन भर की कमाई का एक हिस्सा इसीलिए फिल्मों पर खर्च करते हैं ताकि एक अदद टिकट के
बदले, चंद घंटों में वो अपने लिए सुनहरे सपने खरीद कर ला सकें।   


'' अभिजीत जी, आप कैसे ऐसा लिख सकते हैं ??? अपनी सफाई में फिर कह रहे हैं कि किसी देश में ऐसा नहीं होता। अरे, आप ये बताईए कि कौनसे देश का कानूून फुटपाथ पर सोते कुत्ते को भी कुचल डालने का हक़ देता है ? ...आप उस देश में रहते हो, जहां कोई कुत्ता भी गाड़ी के नीचे आ जाए तो परिवार के लोग अपने ही घर के उस शख्स को कोसने से नहीं चूकते, जो गाडी चला रहा होता है।''


आपके ट्विट से उपजी पीड़ा ने  मुझे मजबूर किया कि मैं फुटपाथ का रुख करूं और आपके जेहन में उठी निहायत ही घटिया सोच का माकूल लेकिन गंभीर जबाव दूं। कोई आखिर फुटपाथ पर क्यों सोना चाहेगा??? क्या ये वाकई उनके लिए लाइफ का एडवेंचर है ???  मुंबई की फुटपाथ हो या जयपुर की...मुझे लगता नहीं कि कोई ज्यादा फर्क होगा दोनों में। आपके शब्दों में कहूं तो जिंदगी यहां और वहां दोनों जगह उसी जानवर की तरह ही होगी। 
चलिए मेरे साथ जयपुर की फुटपाथ पर इधर-उधर बिखरी जिंदगियों में कुछ झांकते हैं...और वाकई पूछते हैं कि फुटपाथ पर क्यों सोते हो भाई ???   ​

नाम- रवि, निवासी-पूना 
स्थान-नारायण सिंह सर्किल
समय-6 मई,रात 9.30 बजे

- मायानगरी के नजदीक का शहर छोड़ कर जयपुर इसीलिए आ गया क्योंकि यहां के बारे में सुना था कि यहां बेगारी करने वालों की भीड़ कम है। दिन भर बेगारी के बाद सोने की पसंदीदा जगह है नारायण सिंह सर्किल का फुटपाथ। 

सवाल- फुटपाथ पर क्यों सोते हों ?
जबाव- कमरे के लिए पैसा नहीं, दिन में कमाई बस इतनी भर हैं कि पेट भर जाए। घर-परिवार नहीं है।

सवाल- डर नहीं लगता कि कोई शराब पीकर गाडी फुटपाथ पर चढ़ा दे तो ...?  
जबाव- हां वो तो हैं, इसीलिए दीवार से सटकर सोते हैं...और रात भर गाड़ियों की बत्तियों से गहरी नींद नहीं आती। 

सवाल- सलमान खान और सिंगर अभिजीत को जानते हों ? 
जबाव- हां, अभी पेपर में पढा उनको सजा हो गई । अभिजीत ( कुछ सोचते हुए) हां, चांद तारे तोड़ लाऊं वाला, अच्छा गाता है। 

सवाल- सिंगर अभिजीत ने कहा कि फुटपाथ पर तो (***)  सोते हैं 
जबाव- कुछ पल खुद में खो गया और फिर बोला- ये बात तो गलत बात हो गई साहब !  फिर भी ...सही बात कह रहा है वो ...क्या करें ??
  
सवाल- सोने के लिए ऐसी रोड क्यों , जहां दिन-रात भारी ट्राफिक चलता है ? 
जबाव- साहब ! शहर की गलियों में कोई सोने नहीं देता, उन्हें लगता है कि कोई चोर है। हम भी सोचते हैं कि कहीं कुछ हो गया तो पुलिस वाले और कॉलोनी वाले हम पर ही सबसे पहले आरोप लगाएंगे। इसीलिए यहां ऐसी रोड पर सोते हैं जहां सबको पता रहता है हम कब सो रहे हैं,कब जाग रहे हैं। फालतू में ऐसा काम क्यों करना कि कोई आरोप लगाए ?? 
                                                                   चलिए दूसरी लॉकेशन पर ...   




नाम-शंकरलाल, निवासी-पन्ना-शहडोल( मध्यप्रदेश) 
जगह- सवाई मानसिंह अस्पताल के बाहर,जयपुर 
तारीख- 6 मई, समय रात - 10 बजे

सवाल- पैरों से विकलांग हो तो फिर ट्राफिक में क्यों घूम रहे हो ? 
जबाव- साहब ! मेरे लिए गाड़ी लेने जयपुर आया था। 

सवाल- कौन सी गाड़ी ? 
जबाव- हमारे जैसे लोगों के लिए गाड़ी, वो पन्ना में एक मैडम लिख कर दी थी कि जयपुर चले जाओ, गाड़ी मिल जाएगी। 

सवाल- वो गाड़ी तो वहां भी मिल जाती, शहडोल से जयपुर क्यों आए ? 
जबाव- पता नहीं, मैडम चिठ्ठी बना कर दी है, इसीलिए आ गये थे । 

सवाल- गाड़ी मिल गई ? 
जबाव- नहीं साहब, अभी तो कोई चिठ्ठी ही नही मान रहा है, घर जाने के भी पैसे नहीं। 

सवाल- चिठ्ठी हैं तुम्हारे पास ? 

जबाव- हां, साहब....( जेब में प्लास्टिक की थैली में बंद की हुई चिठ्ठी को निकाल कर दिखाते हुए...
( इस चिठ्ठी में कुछ नहीं लिखा है सिवाय इसके कि इन्हें कहीं भी विकलांग साइकल मिल सकती है ) 
ना जाने किसने इसे सलाह दी ? और जयपुर भेज दिया साइकल की आस में ...!!! अब साइकिल तो मिली नहीं तो घर किस मुंह से जाए तो सवाई मानसिंह अस्पताल के बाहर ही बना लिया ठिकाना।

सवाल- फुटपाथ पर क्यों सोते हो ? 
जबाव- साहब ! अभी पिछले महिने ही हम सो रहे थे तो कोई सारे पैसे और सामान ले गया। इसीलिए भीड़ में ही रहते हैं, यहां रात भर ऐसे ही रहता है, तो हम भी आराम से रह लेते है।   
   
                         चलिए अगली लॉकेशन पर 

नाम- बनवारीलाल,बांदीकुई, राजस्थान
स्थान- बाईस गोदाम ब्रिज, जयपुर 
समय- 6 मई, रात- 10.30 बजे 

सवाल- तुम एक बात बताओ, फुटपाथ पर क्यों सोते हो ? 
जबाव- सोने की जगह नहीं साहब 

सवाल- क्यों, सरकार बनाती है रैन बसेरे, वहां क्यों नहीं जाते ? 
जबाव- साहब, वहां एक बार गए थे, कई तरह के लोग वहां आते हैं, लूटपाट करते है, इसीलिए नहीं जाते। 

सवाल- यहां तो रात भर ट्रक चलते हैं, गाड़ियां आती हैं, डर नहीं लगता कोई चढा देगा तो फिर...
जबाव- साहब, मजदूरी कर रहे हैं, इतना तो भगवान पर भरोसा करना पड़ेगा ना, ऊपर चढ़ा देगा तो ऊपर वाला कुछ तो देखेगा। यहां आजकल लूट बहुत होती है, एक बार किराए पर लाए थे साईकिल रिक्शा, गली में सोने चले गए थे, रात में दो तीन लोग आकर लूट ले गए। अब साइकिल का पैसा भी भरना है और अपना काम भी चलाना है ... तो कचरा बीन लेते हैं। 

सवाल- तुम लोग ऐसे रहते हो तो फिल्म वाले कहते हैं ये ( कु**) वाली जिंदगी है। 
जबाव- हम तो अपनी मजदूरी करके आराम से रहते हैं, कोई हमको (कु**) कहेगा तो सुन लो, हमसे बडा वो (कु**) है। बाऊजी तुम ही बताओ, इतनी देर बैठे तो हमने कौन सा काट लिया आपको ??? 

                                                                            ---- ***----

शोहरत की बुलंदी पर बैठे अभिजीत जी, मेरी सलाह हैं कि आप भी मेरी तरह मुंबई की सड़कों पर उन लोगों के बीच कुछ घंटे बिताईए.. जिन्हें आप इंसान नहीं कुत्ता समझते हैं। हो सकता हैें कि आपकी फिल्मी दुनिया धोखेबाजी और साजिशों से घिरी होगी लेकिन मेरा दावा है कि इनके बीच जाओगे तो अपना बिछाया अखबार भी आपको देकर बिठाएंगे ये लोग।

किसी के साथ मजबूरी है तो किसी के साथ मेहनत की खुद्दारी। अपने बंगले के बाहर तो हम इन्हें सोने नहीं देते और फुटपाथ पर सोएं तो इंसान और कुत्ते में फर्क नही रखते...। क्या गुरबत में जीने का हक़ भी छिन लिया जाता है ??? जीना भी गुनाह हो गया क्या इनका ??? आपके ट्विट में लिखा हैं कि आप जेब में एक पैसा नहीं था तो भी सड़क पर नहीं सोए। 

साहब, आपकी आरजू तो बस एक सिंगर बनने की ही रही होगी...यहां तो जुस्तजू अपना पेट भरने की है, यहीं इनकी रोज़ की जंग है और ये जंग नहीं लड़नी पड़े ये है इनका सपना ।  आप गुनगुनाते हों कि चांद तारे तोड लाऊं, सारी दुनिया पर मैं छाऊं बस इतना सा ख्वाब है.... । सारी दुनिया पर छा जाने का ख्बाव अभिजीत सिंगर का होगा। मगर इनका ख्वाब तो बस ये हैं कि रोज़ अपना और अपने परिवार का अच्छे से पेट भरने का है। ... इसीलिए फुटपाथ पर सोते हैं ये लोग....

अभिजीत जी, आप चाहते तो आरटीआई लगाकर सरकार से पूछते कि आखिर इन लोगों के नाम पर इतना भारी भरकम इनकम टैक्स काटने के बावजूद भी सरकार कुछ क्यों नहीं कर रही ? क्यों स्ट्रीट वेंडर्स पॉलिसी कामयाब नहीं होती ? क्यों बेगर्स और मजदूरों के रिहेबिलिटेशन की कोई पॉलिसी नहीं है ? जो चुनी हुई सरकारें हैं वो क्यों अपना काम नहीं कर रही ? 

मुझे पता है कि आप कहोगे कि इस काम के लिए तो आप जैसे पत्रकार हैं।  क्योंकि आप जैसे लोग इतने डरपोक होते हैं कि ना तो सवाल पूछने की हिम्मत रखते हैं और ना ही जिम्मेदारी लेने से। आप ट्विटर पर उन लोगों को इसीलिए कुत्ता कह गए क्योंकि आपको पता हैं कि जिसके पेट में खाना नहीं वो ट्विटर पर आपको कैसे जबाव देगा ? आप इनकी गरीबी का सवाल सरकारों और रसूखदारों से करने की हिम्मत भी सिर्फ इसीलिए नहीं दिखा सकते क्योंकि ना जाने कितने सरकारों के मंत्री, रसूखदार और अंडरवर्ल्ड की महफिलों में आप जैसे सुपर स्टार, सुपर सिंगरों ने दुम हिलाई हुई होगी। माफ कीजिएगा, ये मेरे लिखने की स्टाइल नहीं है लेकिन आपने आज मजबूर कर दिया। 
  



विशाल सूर्यकांत शर्मा
पत्रकार- फर्स्ट इंडिया न्यूज में इनपुट हैड
Contact- +919001092499
Email- contact_vishal@rediffmail.com
            vishal.suryakant@gmail.com
  












बुधवार, 6 मई 2015

HIT AND RUN ... ARE WE TRUE INDIAN !!!

                                                                                     
                     

                                                - विशाल सूर्यकांत शर्मा -

   आज का दिन सलमान ख़ान के नाम...। पब्लिसिटी से लेकर पनिश्मेंट तक का सलमान का सफर !
तेरह साल पुराने हिट एंड रन मामले में सलमान खान अपराधी साबित हो गए और अब जेल जाना पड़ेगा। सज़ा पर हाईकोर्ट में आगे सुनवाई हो सकेगी और हाईकोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा भी खुला है। लेकिन इस सफर में कितना वक्त लगेगा और ना जाने कितने दिन जेल के भीतर और जेल के बाहर गुजरेगा, ये अभी तय नहीं। आज सलमान पर तो दुनिया बात कर रही है लेकिन मैं बात करूंगा उस समस्या कि जिसमें असल जिंदगी में कोई भी कभी भी अनचाहे सलमान खान का रोल निभा जाता है। ये समस्या है हिट एंड रन की...।

हिट एंड रन; सेलिब्रिटी केसेज से चर्चा में आया ये शब्द.., हमारे देश की सड़कों में आए दिन अपनी सूरत दिखाता है। पुलिस थानों की रिपोर्ट और अखबारों की कतरनें, ऐसे मामलों से भरी पड़ी है कि एक शख्स को अज्ञात वाहन टक्कर मार गया । गाड़ी चलाने वाले का लाईसेंस था या नहीं, शराब पी है या नहीं, ये तो पड़ताल तब होती है जब कोई पकड़ में आ जाता है। मेरा दावा है कि देश में 70 फीसदी मामलों में तो टक्कर मारने वाला पकड़ में ही नहीं आता। आलम ये हैं कि आप सड़क पर चले जा रहे हों और कोई भी आपकी कोहनी पर अपनी दुपहिया गाड़ी का मिरर जोर से टकरा कर चलता बनेगा। टक्कर के बाद, अपनी रफ्तार बढ़ाने के साथ पीछे मुड़ कर वो शख्स आपको गरियाना नहीं भूलेगा, ऊंची आवाज से तो बोलेगा ही, ...और अपनी आंखों की पुतलियां घूमाते हुए आपको आपके गंवारपन का अहसास करवाएगा सो अलग...।
आप चाहे किसी उधेडबुन में हों या फिर मस्त मौला मूड़ में लेकिन आपके अच्छे-खासे मूड़ का कोई भी जायका बिगाड़ सकता है। रोज देखने में आता है कि कुछ लोग तो सड़क पर ऐसे गाड़ी चलाते हैं मानों गाड़ी नहीं बल्कि आसमान में अंतरिक्षी रॉकेट उड़ा रहे हो। हवा के रूख को चीरते हुए कई मनचले शोहदे आपको सड़क पर स्टंट दिखाते मिल जाएंगे। आपकी किस्मत हैं कि सड़क पर चलते हुए उस वक्त, आपसे कोई गफ़लत नहीं हुई, वरना तो सड़​क पर गाड़ियां दौड़ाते ये लोग , कब यमदूत की शक्ल में आपको चपेट में ले लें और हवा तक ना लगें ।
इंसान के मिजाज से जु़ड़ा बुनियादी सवाल पूछता हूं कि क्या गाड़ी में बैठकर इंसान का ओहदा बदल जाता है ??? सड़क पर चलने वाले, फुटपाथ पर सोने वालों के सामने गाड़ी में बैठकर गुजरने वाला शख्स ऐसा मिजाज क्यों अपना लेता कि भैय्या !!! अपन को आम आदमी समझने की गलती मत कर देगा, अपना मामला ज़रा वीआईपी केैटेगरी वाला है।
कनअखियों से देखते हुए... तो कभी घूरते हुए, गहरी सांसें लेते हुए या फिर गरियाते हुए आपको राह चलते  ' जाहिल ' साबित करने वालों की कमी नही हैं हमारे देश मे। ये तो रहा गाडी चलाने वालों का मिज़ाज...।
मगर इसका मतलब ये नहीं है कि स़ड़क पर चलने वाला कोई निरीह प्राणी है, बेचारगी का मारा हुआ है और सारी गलती गाड़ी चलाने वालों की ही होती है। हिट एंड रन...के मामलों की असल जड़ को सड़कों पर दुर्घटना के समय भीड़ का बर्ताव है। अपने-अपने दिल में झांकिए और बताईए कि क्या सलमान खान, अगर वहां से नहीं भागता तो भीड़ उसे चुपचाप पुलिस के हवाले कर देती ??? चलिए, सलमान खान को छो़ड़िए ये आप खुद पर लागू करके देखिए कि अगर आपके हाथ से कोई हादसा हो गया तो क्या आप वहां रुक कर सुरक्षित महसूस कर सकते हैं ?हम सब की जिंदगी खासी तनाव भरी है। ऐसे में, खुद या किसी और को  टक्कर मार देने वाला कोई भी शख्स हमें सॉफ्ट टारगेट नजर आता है।
लिहाजा, अपनी जिंदगी का पूरा फ्रस्ट्रेशन हम उस घड़ी में निकालते हुए बेचारे गाड़ी चलाने वाले निकालते हैं और आफत बनकर पर टूट पड़ते हैं, उस इंसान पर जो या तो अनचाही टक्कर के बाद या तो ... खुद भलमनसाहत से रुका ... या फिर मौक़े की नजाकत को संभालने में नाकामयाब रहा और आपके चंगुल में फंस गया। मेरा दावा है कि टक्कर से घायल की सुध लेने वाले तो कम मिलेंगे लेकिन शर्तिया तौर पर कह सकता हूं कि आपको चांटे रसीद करने वालों की तादाद इतनी होगी कि आप गिन नहीं पाएंगे। हादसे के बाद बदसलूकी करना ये हमारे देश की जनता में आम चलन है। इसमें ना तो जाति-धर्म का भेद है और ना ही राज्यों की सीमा का।

 भीड़ का संविधान देखिए कि हादसे के बाद अगर कोई जैसे-तैसे कोई निकल भागा तो भीड़ गाड़ियों को आग के हवाले कर देती है, सड़कों पर जाम लगा देती है। जिन मानवीय संवेदनाओं के नाम पर टक्कर मारने वाले को घेरा जाता है, वहीं संवेदनशीलता, गाड़ियों को जलाते,सड़कें जाम करते वक्त अराजकता में बदल जाती है। ये मामला साधारण नहीं है। अपने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी हाल ही में मन की बात में इसका जिक्र किया है। 


दरअसल, हम भारतीय हर मामले में दो अलग चेहरे लेकर चलते हैं। एक चेहरा खुद की प्रस्तुति के लिए और दूसरा चेहरा भीड़ में शामिल होने के लिए। सड़कों पर रोडरेज की होड़ करने वाले, आपको घूरने वाले, गरियाने वाले, सड़क पर ग़लत तरीके से चलने वाले, पुलिस को कोसने वाले, मारपीट करने वाले हम लोग ही तो हैं। बस, फर्क़ ये हैं कि सड़क पर पैदल चलते हुए हमारा नज़रिया कुछ और होता है और गाड़ी चलाते हुए कुछ और...।

सलमान खान के साथ तो दिक्कत ये हो गई कि वो सेलिब्रिटी था, भागने के बावजूद भी पुलिस ने धर दबोचा। मगर आप और हम तो सड़क पर रोज कभी गुनाहगार और कभी शिकार बन जाते हैं। मामूली हादसे का शिकार बन गए तो ढ़िढोरा सहानूभूति बटोरने में हम पीछे नहीं रहते और गुनाहगार बन जाए तो उम्मीद करते हैं कि किसी को कानों-कान ख़बर तक ना हों। दरअसल,हमनें सड़क को हमारी अपनी संपत्ति मान ली है। जब तक हम सड़क पर चलने का सलीका सीखने के साथ ही जब तक हादसों पर प्रतिक्रिया का सलीका नहीं बदलेंगे... तब तक....एक नहीं, कई सलमान खान होंगे...एक नहीं...कई हिट एंड रन मामले होंगे....

 - विशाल सूर्यकांत शर्मा 
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लेखक -: पत्रकार - फर्स्ट इंडिया न्यूज़,राजस्थान में हैड,इनपुट हैं। 

सोमवार, 4 मई 2015

#‎GoBackIndianMedia ...हंगामा क्यों हैं बरपा ???

           

   मीडिया                      

                     
   



  

                                      #‎GoBackIndianMedia ...हंगामा क्यों हैं बरपा ???  

 #GoBackIndianMedia, #GoHomeIndianMedia जैसे ट्विटर हैंडल के जरिए भारतीय मीडिया पर जमकर हमले हो रहे हैं। खूब चर्चा हो रही है कि इंडियन मीडिउ,नेपाल की व्यथा को बेंच रहा है। रिपोर्टिंग कम, किसी टीवी सीरियल की तरह शूटिंग ज्यादा हो रही है। नेपाल के लोगों के हवाले से इंडियन इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर ऐसे-ऐसे तंज कसे जा रहे हैं, ऐसे जॉक्स चल रहे हैं कि मानों इंडियन इलेक्ट्रोनिक मीडिया, मीडिया ग्रुप्स ना होकर बंच ऑफ इडियड्स हो। कुछ तो भाई ऐसे हैं जो ट्विटर पर इंडियन मीडिया के रवैये पर दुनिया भर के लोगों से माफी मांग रहे हैं। कुछ पुराना राग अलापते हुए इसे टीआरपी का खेल मान रहे हैं तो कुछ लोग इसे टफ कम्पिटिशन में इनसेन्सिटिव रिपोर्टिंग करार दे रहे हैं। लेकिन मैं आपसे जानना चाहता हूूं कि अगर ये सच भी हैं तो सालों से चला आ रहा है, अचानक ऐसा विरोध क्यों, ऐसा क्या हो गया ??  

चंद पलों की जमीन के भीतर की हलचल, नेपाल का नक्शा ही बिगाड़ गई, जमीन पर लाशों के ढ़ेर लग गए। मकान, मलबे में बदल गए। इस पीड़ा को उजागर करने के लिए जो लोग पीड़ित हैं, उनसे कुछ तो सवाल पूछने ही होंगे !!! भारतीय मीडिया ही क्या, किसी भी देश की मीडिया यहीं सवाल करती आई है। भले ही ये सवाल आपको बचकाने लगें लेकिन आम आदमी से आप ये तो नहीं पूछ सकते कि बताओ ;  भूकंप की रिक्टर पैमाने पर इन्टेन्सिटी क्या थी ???  अक्सर इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर ये तोहमत लगती है कि ये मीडिया वाले कुछ भी सवाल पूछते हैं। मेरा सवाल उन्हीं लोगों से हैं कि आप बताओ कि क्या पूछें ? किसी की मौत पर परिवार वालों से पूछना, जानकारी लेना, ये इलेक्ट्रोनिक मीडिया की बुनियादी जरूरत है, ठीक वैसे ही जैसे अदालत में अपराध की जानकारी होने के बावजूद भी फरियादी से, आरोपी से जिरह होती है। 

इलेक्ट्रोनिक मीडिया की विश्वसनीयता ही इसी बुनियाद पर टिकी है कि आप असलियत में वो ही दिखा रहे हैं जो कि हकीकत है। विश्वसनीयता की कसौटी पर खरा उतरने के लिए आपको ऐसे विजुअल्स ( वीडियो) भी चाहिए और ऐसी बाइट्स( लोगों के इंटरव्यू) भी चाहिए। 


... यहां मामला अंडरस्टूड नहीं होता, कहानी कहने के लिए किरदार तो गढ़ने ही पडेंगे ना साहब...!!! सिर्फ ज्ञान बांटने से ही काम चलता तो फिर स्टूडियो के बंद कमरे ही ठीक थे, फील्ड रिपोर्टिंग इसीलिए ही तो हो रही है कि जमीनी सच्चाई सामने आए । किसी से उसके दुख का कारण पूछे बगैर किसी की पीड़ा को अखबार में कैसे लिखा जा सकता है?  टीवी पर कैसे दिखाया जा सकता है ??? मीडिया को लेकर अजीब जुमले हैं लोगों के, मसलन मीडिया वाले ये मत पूछो, वो मत पूछो।  देखो ! ये पूछ लिया, देखो ! वो पूछ लिया...! ये मीडिया वाले मदद कम ,तमाशा ज्यादा करते है!!!

 मीडिया ही क्यों किसी भी सिस्टम को कोसना आसान है लेकिन अंदर की हकीकत तो समझ लिजिए. किसी भी स्टोरी को तैयार करने के लिए बुनियादी बांतें होती है,माहौल में ढ़लने के लिए कुछ सवाल होते ही हैं। जैसे आपके घर में कोई सही सलामत इंसान खुद अपने पैरों पर चल कर आया हो और आप पूछ बैठते हैं -'' How r you !!! ..'' या इंसान के घर के भीतर आने और आपके दरवाजा बंद करने के बाद आप पूछें कि -''  क्योे भाई साहब ! आप अकेले ही आए हैं ???..'',  किसी को चोट लगे और वो आंसू बहा रहा हो तो बरबस ही मुंह से निकल पडता है कि क्या वाकई बहुत दर्द हो रहा है....!!! ... जैसे आप, वैसे आपका मीडिया...!!! 

कुछ सवाल जबाव के लिए नहीं बल्कि कम्फर्ट लेवल बनाने के लिए किए जाते है। इसका मतलब ये नहीं है कि पूछने वाले बेवकूफ है. माहौल संभालने के लिए अगर कोई बचकाना सवाल कर भी लिया तो क्या गलत हो गया ? अरे भाई ! भले ही लोगों से उलटे सीधे सवाल पूछतें हैं लेकिन इसके जरिए यही तो दर्शाते हैं ना कि फलाना व्यवस्था कैसी चल रही है ? वो सिस्टम कैसा चल रहा है ??? मीडिया को कोसने वाले समाज से ये सवाल जरूर पूछना चाहता हूं कि सवालों से इतना परहेज क्यों है आप लोगों को ...???

 ख़ैर, बात नेपाल में इंडियन मीडिया के विरोध की है.  मुझे लगता है कि नेपाल में इंडियन मीडिया की  रिपोर्टिंग और उसके तौर-तरीको पर जानबूझ कर मुद्दा  बनाया जा रहा है। मैंने इंडियन मीडिया की कई ऐसी  रिपोर्ट भी देखी हैं जो नेपाल के लोगों की जीजीविषा  बता रही थी, वहां के लोगों की जिंदगी के संघर्ष को  जुबान दे रही थी। मैं उन्हीं का जिक्र कर रहा हूं जिनकी  रिपोर्ट मैं देख पाया हूं। सीनियर जर्नलिस्ट दिबांग की  रिपोर्ट मैंने देखी जिसमें स्टोरी थी कि एक ऐसी  गर्भवती महिला भूकंप के वक्त बच गई और अब एक  बच्चे को जन्म दे चुकी है। भूकंप में विनाश लीला के  बीच कुदरत ने एक सृजन भी किया। बताईए क्या  गलत हैं इस तरह की रिपोर्टिंग में ??? कुदरत के कहर का जिक्र करते हुए कुदरत के करिश्मों और नेपाल के लोगों की जीजीविषा को बताने पर क्या किसी समझदार आदमी से उम्मीद कर सकते हैं कि वो नेपाल में भारतीय मीडिया से कहे कि -#GoBackIndianMedia ???

भारतीय मीडिया, नेपाल में पल-पल के घटनाक्रम की गवाह बन रही है। भारत ही नहीं बाकी देशों के रेस्क्यू ऑपरेशन का जिक्र हो रहा है। सीनियर जर्नलिस्ट  ह्यदेश जोशी काठमांडू से बता रहे हैं कि चायना सरकार ने ''स्नैक आई'' इक्विप्टमेंट भेजा है जिससे मलबे में दबे लोगों को कैमेरे के जरिए तलाशा जा सकता है। क्या ये बेवजह की रिपोर्टिंग हैं ??? काठमांडू में खुले मैदान में पड़े लोगों के बीच अगर कोई फसाद हो रहा हो तो मौक़े पर खड़ा रिपोर्टर क्या करें ??? जब अव्यवस्थाओं की कहानी कहने के लिए उसे विजुअल्स मिल रहे हैं और ऐसे विजुअल्स, जो खुद कहानी बयां कर दें तो क्या गलत हैं इसमें ???  क्या मीडिया का ये बताना गलत हैं कि नेपाल में त्रासदी के वक्त भी कुछ लोग लूटपाट में लगे हुए हैं, वहां की आर्मी के इंतजाम और सरकार इन्हें रोकने में विफल हो रही है। लोग कह रहे हैं कि भारतीय मीडिया का अंदाज ऐसा है कि नेपाल की कवरेज नहीं बल्कि किसी टीवी सीरियल की शूटिंग की जा रही है। 

टीवी देखते हुए जो कार्यक्रम,सीरीयल आपको रिमोट कंट्रोल की जद में लगती है। उसे बनाने के लिए कितने लोगों का इन्वॉल्वमेंट होता है ? मीडिया पर इस तरह की टिप्पणी करने वाले लोगों में बहुत कम लोगों को इसका अंदाजा होगा...! यकीन जानिए, कि टीवी सीरियल बनाना भी कोई आसान या कम जिम्मेदारी भरा काम नहीं है। ये तो फिर त्रासदी में रिपोर्टिंग का मामला है। फील्ड से जानकारियां जुटाने के लिए सो कॉल्ड रिस्पोंसिबल ऑफिशियल्स और लीडर्स, रिपोर्टर्स और कैमेरापर्सन्स को कितना आगे-पीछे भगाते हैं, ये मीडिया वाले बखूबी जानते हैं।  कहने तो सिर्फ ये ही कह कर काम चलाया जा सकता है कि भूकंप के बाद नेपाल बर्बाद हो गया। तो क्या सिर्फ ये कहने भर से काम चल जाएगा ? फिर मत कहिएगा कि मीडिया ज्यादा विश्वसनीय होना चाहिए, मौक़े पर खडा होना चाहिए । क्योॆकि विश्वसनीयता के लिए जिस तरह के विजुअल्स और बाइट्स चाहिए उसे तो आपने नैतिक मूल्यों की बेरिकेटिंग में रख दिया है। आप खुद सोंचिए मशीनी कैमेरे को इंसान की आँखों की तरह इस्तेमाल करवाना क्या आसान काम है ??? 

बर्बादी की दास्तान को दिखाने के लिए आपको बताना होगा कि उसका अतीत क्या था और अब वर्तमान क्या है। मीडिया इन हालातों को दिखाने के लिए अपने तरीके से शूटिंग भी ना करे ??? ऐसा भी क्या गलत कर दिया नेपाल में इंडियन मीडिया ने !!! नेपाल की त्रासदी के वक्त ये पहला मौक़ा है जब भारतीय मीडिया ने इसे गैर मूल्क में अपनी प्रभावी दस्तक दी है। फिर भी गो बैक इंडियन मीडिया का नारा बुलंद हो रहा है ... मुझे लगता है कि वजह कुछ और है। 

दरअसल, सार्क देशों में ये पहला मौक़ा है जब किसी देश में हुई त्रासदी कवर करने भारतीय पत्रकार इतनी बड़ी तादाद में पहुंचे हो। त्रासदी ही नहीं, हर मौक़े पर भारतीय मीडिया देश के बाहर कदम रखकर अंतर्राष्ट्रीय माहौल से जूड़ रहा है। लंदन, न्यूयॉर्क,आस्ट्रेलिया,न्यूजीलैंड,कनाडा, जाने कहां-कहां खुद पहुंच रही है भारतीय पत्रकारों की टीम। एक दौर था जब इंडियन मीडिया बीबीसी, रायटर,सीएनएन, रशियन एजेंसी तास पर निर्भर थी। वो दौर तो मैंने ही देखा हैं जिसमें देश के अखबार या रेडियो चाहे जितना लिख दें, चाहे जितना बोलें लेकिन खबर पर मुहर बीबीसी रेडियों की न्यूज़ पर चलने के बाद ही लगती थी। 


आज नेपाल त्रासदी की रिपोर्टिंग में भारतीय मीडिया सबसे अव्वल है। भारतीय पत्रकारों की समझ,संसाधन और प्रजेन्टेशन को अंतर्राष्ट्रीय मीडिया आँखे चौड़ी कर देख रहा है। बात सिर्फ नेपाल की नहीं बल्कि कई देशों में त्रासदी से लेकर क्रिकेट जैसे मसलों पर इंडियन मीडिया नेपाली,पाकिस्तानी,श्रीलंकन मीडिया के साथ मंच साझा करने से नहीं चूक रहा। बुलेट ट्रेन का नजारा आपको दिखाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय न्यूज एजेंसियों के भरोसे रहने के बजाए इंडियन मीडिया खुद चीन और जापान में जाकर बुलेट ट्रेन में सफर कर रहा है। मीडिया में विदेशी निवेश ने भारतीय इलेक्ट्रोनिक मीडिया की उड़ान को नई ऊंचाइयां दे दी है। भले ही आप इसे मीडिया में विदेशी निवेश कह दीजिए या फिर देश के विकास की रफ्तार का असर, लेकिन अब भारतीय इलेक्ट्रोनिक    मीडिया, देश की सीमाओं को लांघने के लिए बेताब  नजर आता है। सत्ता से कितना पास और कितना दूर  है  हमारा मीडिया, ये अलग बहस का विषय हो सकता  है  लेकिन पूरे दक्षिण एशिया में इंडियन  इलेक्ट्रोनिक  मीडिया की अलग पहचान बन रही है।  अंतर्राष्ट्रीय  जगत में एक ताकतवर मीडिया के रूप में  स्थापित हो  रही है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की मीडिया का  नया चेहरा दुनिया देश रही है।  भारतीय  मीडिया की  साख का असर हैं कि नेपाल में अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों  की रिपोर्टिंग देखने और पढ़ने के तलबगारों की मांग  न के बराबर रह गई है।

 हिन्दी हो या इंग्लिश, सूचनाओं की हर खुराक आपको  देश की मीडिया मुहैया करवा रही हैं। ऐसे मौके पर  मान लिजिए कि ट्विटर हैंडल पर कोई टिप्पणी चली,  तो क्या इसे भारतीय मीडिया के मजाक का जरिया बना देंगे आप ...???  अंतर्राष्ट्रीय मीडिया दिवस के ऐन मौक़े पर बीबीसी ने ट्विटर हैंडल #GoBackIndianMedia की विस्तार से बीबीसी ने जिस तरह से अपनी बेवसाइट पर खबर दी और इंडियन इलेक्ट्रोनिक मीडिया की भूमिका की चर्चा की वो वाकई चौंकाने वाला है। क्योंकि जिस तरह से भारतीय मीडिया ने पाकिस्तान की ओर से नेपाल में राहत सामग्री में बीफ भेजे जाने का मुद्दा उठाया, राहत के कामों को दर्शाया, पूरे नेपाल के चप्पे-चप्पे की खबर दी वो खबरों के लिहाज से तो वाकई तारीफ-ए-काबिल है। ये बात सही है कि भारतीय मीडिया अभी अतिरेक से भरा हुआ है। लेकिन ये भी सच हैं कि अतिरेक और अतिउत्साह में ही सही लेकिन भारत का पत्रकार वहां भी पहुंचा जहां अब तक नेपाली सरकार की राहत नहीं पहुची थी। 


अंतर्राष्ट्रीय मीडिया नेपाल में भूकंप त्रासदी को उस इन्टेन्सिटी से उठा तक नहीं पाया। हालाँकि इसके पीछे हमारी साँझा संस्कृति और भाषा भी एक बड़ी वजह रही। हमें टीवी पर देख कर लग ही नहीं रहा हैं कि ये मामला किसी गैर मूल्क का है, हम इस त्रासदी से ऐसे ही जुड़ गए हैं मानों भारत के किसी राज्य में ये त्रासदी हुई हो। क्या इसका क्रेडिट आप इंडियन मीडिया को नहीं देंगे ...??? हमारे टीवी चैनल्स ने हिन्दी और इंग्लिश दोनों तरह की भाषाओं के भारतीय दर्शकों की मांग पूरी की है। भारतीय मीडिया की सक्रियता से वाकई नेपाल सरकार पर दबाव बढ़ा होगा, क्योंकि  इस दबाव का असर भारत सरकार पर भी नजर आ रहा है। त्रासदी के वक्त नेपाल पहुंचने में भारतीय मीडिया, भारतीय राहतकर्मियों से कतई पीछे नहीं रहा। ऐसे में सवाल ये उठता हैं कि फिर नेपाल के किन लोगों के हवाले से #GoBackIndianMedia अभियान चलाया जा रहा है ?


मेरा मानना है कि जिस भूकंप ने अस्सी फीसदी काठमांडू को तबाह कर दिया हो, वहां लोग वाकई ट्विटर हैंडल के जरिए इस तरह का कोई कैंपन चला रहे हैं और इसे नेपाली जनता का भारी समर्थन मिल रहा है, तो मुझे विश्वास कम है। 

चलिए फिर भी ऐसा हो रहा है तो नेपाल के कितने लोग इससे जुडे होगें ??? ...आज के हालात में बिजली तक तो ठीक से मयस्सर नहीं है नेपाल में . तो इंटरनेट कहां से रहा है , वो भी इतना कि भारतीय मीडिया विरोधी कैम्पेन सोशियल मीडिया पर वायरल हो जाए।  जाहिर हैं नेपाल से ज्यादा ये हैंडल पाकिस्तान,चीन या बाकी देशों के काम आ रहा है। मीडिया की संवेदनशीलता हमेशा एक मुद्दा रहा है, हो सकता है कि इस बार भी रहा हो लेकिन आखिर अचानक नेपालियों के मन में इतनी नफरत क्यों ? 

अगर वाकई इतनी नफरत हैं तो फिर सिर्फ मीडिया पर ही निशाना क्यों ??? दरअसल, नेपाल काफी अर्से से राजनीतिक और कूटनीतिक मोर्चों पर अधरझूल में रहता आया है। भारत से पुराने संबंधों के बीच नेपाल में ऐसे नेताओं की जमात भी कम नहीं जिन्हें चीन का साथ ज्यादा सुहाना लगता है। वहां भारत के खिलाफ ये प्रचार हैं कि हिन्दुस्तान, नेपाल की अस्मिता को कब्जे में ले लेगा। भारत का स्वाभाविक साथी होना वहां के नए नेताओं को इसीलिेए भी पसन्द नहीं क्योंकि वहां के नए नेताओं को नया मुद्दा चाहिए। पर्यटकों की बड़ी आमद के फेर में नेपालियों के कई देशों से रिश्ते बन रहे हैं और वो नहीं चाहते कि नेपाल अपनी जरूरतों के लिए सिर्फ भारत तक ही सीमित रहे। इसी कड़ी में चीन और सार्क के कई देश भी अपनी भूमिका निभा रहे हैं। 


मुझे लगता है कि इस अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में  इंडियन मीडिया सॉफ्ट टारगेट बन गया, ये शुरुआत भर हैं अभी मीडिया तो कल भारत सरकार की भी बारी आएगी। हो सकता है कि नेपाल अपने अंदरूनी दबाव के चलते भारत को मदद करने से ही इंकार भी कर दे। लेकिन हमें इसका अभी अहसास नहीं हो रहा। अभी तो हम लुत्फ ले रहे हैं कि देखों किस तरह से इन टीवी चैनल वालों की फजीहत हो रही है। हम तो सोशियल मीडिया में   चल रहे किसी भी कैंपन का हिस्सा बन सकते हैं,      चाहे वो  भारतीय मीडिया के खिलाफ ही क्यों न हो.

 हमारे देश के लोग    भी #GoBackIndianMedia का  हिस्सा बनकर      दुनिया के सामने अपनी मीडिया  को बेवकूफ साबित  करते हुए माफी मांग रहे है, खुद  अपने घर के चिराग  को कोस रहे हैं।  ये बात सही हैं  कि आप इंडियन  इलेक्ट्रोनिक मीडिया के तौर-  तरीकों को सौ फीसदी  सही होने का सर्टिफिकेट नहीं  दे सकते । भारत की  मीडिया को किसी भी घटना  की कवरेज दिखाने के  लिेए एक दायरा तय करना  होगा। आप दिन भर  टीवी पर एक घटनाक्रम  दिखाकर बाकी राज्यों के  साथ अन्याय नहीं कर  सकते। लेकिन इसके पीछे टीआरपी का खुला खेल  है। जी हां, ये सच हैं कि हम  टीआरपी के ऐसे खेल के  खिलाड़ी हैं, जिस खेल के रूल्स और रेग्यूलेशन हमें ही ठीक से नहीं मालूम। इसीलिए जिस माहौल में ज्यादा टीआरपी मिलती है, उसी माहौल में चाहे-अनचाहे ढ़लना पड़ता है सभी को। अब ये व्यवस्था ऐसी क्यों है ये बहस का अलग विषय है। हमारी मीडिया कितनी संवेदनशील है और कितनी नहीं, और क्यों नहीं बन पा रही है, इसके पीछे यहीं वजह है। ये कहना आसान है कि टीवी चैनल टीआरपी का खेल खेलते हैं। लेकिन कौन खेलना चाहता हैं ये खेल ? क्या मीडिया खुद इच्छुक है या फिर बाजार मजबूर कर रहा है। आज की तारीख मे टीआरपी हासिल करना चैनल्स के लिए उतनी ही जरूरी है जितनी आपके लिए सांस लेना। अगली बार टीआरपी पर विस्तार से बात करेंगे लेकिन अभी इलेक्ट्रौनिक मीडिया को घेर रहे लोगों से इतना कहना चाहता हूं कि ज़रा रूकिए साहब !!!  किसी भी व्यवस्था पर इतनी तोहमतें मत लगाईए कि हर बात एक ढोंग नजर आए,इसमे आखिरकार नुकसान तो हमारी डेमोक्रेसी का ही है।


मैं, ये नहीं कहता कि इंडियन मीडिया बेदाग़ है। लेकिन हमारे सिस्टम में दूध का धुला हैं कौन ??? कम से कम मीडिया में जो गलत हैं या सही है वो आप समझ तो सकते हैं, आप महसूस तो कर सकते हैं। वरना तो देश की राजनीति कई ऐसे घोटालों से भरी पड़ी है जिनकी सच्चाई सामने आने में कितना वक्त लग जाए। मीडिया तो अपने एक कदम पर ही आपकी समीक्षा और पड़ताल का सामना करता है, उसे अगर झूठ भी दिखाना है तो सोंचिए आपके लिए सच के कितने मुलम्मे तैयार करने होंगे मीडिया को ??? 


आपको मालूम हैं कि इंडियन इलेक्ट्रोनिक मीडिया 90 के दशक में तैयार हुआ है और अभी 2015 चल रहा हैं यानि हमारी इलेक्ट्रोनिक मीडिया की उम्र  25 साल से ज्यादा नहीं। अब खुद आप अपने घर में 25 साल के नौजवान को देख लिजिए। वो जो कर रहा है, करना चाहता है ... वहीं है इलेक्ट्रोनिक मीडिया का चरित्र।आप आप अपने घर के नौजवान को उत्साही कह सकते हैं, जोशीला कह सकते हैं, रिस्क टेकर कह सकते हैं लेकिन गैरजिम्मेदार नहीं कह सकते क्योंकि उसे गैरजिम्मेदार कहने के लिेए आपको उसके और उम्रदराज़ होने का इंतजार करना होगा। देखना होगा कि वो जिंदगी के इम्तिहान से कैसे गुजरेगा ...। अगली बार टीआरपी के खेल पर खुल कर होगी बात...

...लेकिन अभी चलते-चलते इलेक्ट्रोनिक मीडिया को कोसने वालों के लिए गालिब का ये शेर.


                                                 हर बात पर कहते हो कि तू क्या है 

 तुम ही बताओ ये अंदाज-ए-गुफ्तगू क्या है ??

 

 - विशाल सूर्यकांत शर्मा

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ईमेल- vishal.suryakant@gmail.com

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( लेखक पत्रकार - फर्स्ट इंडिया न्यूज़,राजस्थान में इनपुट हैड हैं)