सोमवार, 29 जनवरी 2018

#Farmer 22 सालों में साढ़े तीन लाख से भी ज्यादा किसानों की आत्महत्या वाले देश में 2022 में कैसे तस्वीर बदलेगी...पढ़िए सरकार के दावों से अलग, देश के किसानों का प्रतिनिधि पक्ष इस लेख में ..


दोगुना कमाऊ किसान : कितनी हकीकत, कितना फसाना ?  

 - विशाल 'सूर्यकांत' 

​​​​देश की संसद में पेश आर्थिक सर्वे में एक बार फिर 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के वायदा दोहराया गया है। सरकार के इस दावे पर बात करें इससे पहले ये जान लीजिए कि अगर सरकार ऐसा करने में कामयाब हो जाती है तो देश के किसान की जिंदगी में क्या बदलाव आएगा ...बीते सालों के नेशनल सर्वे में दर्ज है कि देश में किसानों की आमदनी  2012-13 के सर्वे के मुताबिक 6,426 रूपए है। यानि रोज़ाना 214 रुपया।  उसमें भी सिर्फ खेती-किसानी से वो सिर्फ 102 रुपए कमा रहा है। गौर कीजिएगा ये किसान 'परिवार' की औसत आमदनी है। इस तस्वीर को बदलने का दावा अगर सौ फीसदी पूरा भी हो जाए तो 400 रुपए दैनिक,12 हजार रुपए मासिक और 80 हजार रुपए किसान परिवार की सालाना आमदनी होगी। जिन्हें 2022 में भारत विकसित होता दिख रहा है वो अमेरिका के किसान की सालाना आमदनी जरुर जान लें , अमेरिका में किसान, भारत के किसान से 70 गुना ज्यादा कमाता है। अब बताइए ज़रा कि दोगुना करके भी क्या वाकई देश में किसानों की तस्वीर बदल जाएगी ? आमदनी बढ़ेगी तो क्या 2022 तक खर्च न बढ़ने की कोई गारंटी दे रही है सरकार ?

सरकार ने 13 अप्रेल 2016 को किसानों की आय के मसले पर एक कमेटी भी बनाई। कृषि मंत्रालय के एक अधिकारी अशोक दलवाई की अगुवाई में इस कमेटी ने सुझाया कि 2022 का लक्ष्य हासिल करना है तो उत्पादकता लाभ,फसल के मूल्य में कमी और लाभकारी मूल्य पर काम करने की जरूरत है। लेकिन रिपोर्ट में ये बात कहीं सामने नहीं आई कि किसानों की आमदनी के लिए संसाधन कहां से आएंगे और कैसे सीधे किसानों तक पहुंचाए जाएंगे। देश के खेती-किसानी से जुड़े बाजार का हाल किसान जानते हैं लेकिन आप और हम सिर्फ इतना समझ लें कि देश में टमाटर और प्याज के दाम क्यों कभी सौ रूपए तक पहुंच जाते हैं और कैसे वापस एक रूपए प्रति किलो तक आ जाते हैं। सवाल ये भी है कि मंडी कारोबार में हमारे किसान की भूमिका क्या है , किसान की फसल को सुरक्षित रखने के क्या इंतजाम किए ?

सिर्फ आमदनी बढ़ाने के दावों से क्या होगा, जब नुकसान की भरपाई का सिस्टम लचर है। हम भले ही चांद और मंगल पर उपलब्धियां हासिल कर रहे हों,अपनी सैटेलाइट टेक्नोलॉजी की तारीफ करते नहीं थक रहे हों लेकिन ये सच्चाई भी जान लीजिए कि देश में किसानों के नुकसान के आकलन का तरीका आज भी वही है जो सरकारी सिस्टम में पीढ़ियों से चला आ रहा है। आज भी फसल की बरबादी की गिरदावरी रिपोर्ट आंखों देखे हाल के मुताबिक तय होती है। इसीलिए गिरदावर,पटवारी, गांव के किसानों की किस्मत तय करते हैं। सेटेलाइट से नुकसान का आकलन करने का तरीका अभी एक्सपेरिमेंट के दौर में ही है...। किसानों की व्यावहारिक समस्याएं बहुत है लेकिन किसान राजनीति और सरकारी दावों के शोर में इन पहलुओं को कोई देख तक नहीं पाता। किसानों की आमदनी कोई सरकार कैसे तय कर सकती है जब खेती एक निजी व्यवसाय है। सरकार सिर्फ नीतियां बना रही है, कृषि में सुविधाएं बढ़ाने की बात हो रही है, बाजार विकसित हो रहे हैं लेकिन ये भी जान लीजिए कि आपका वास्तविक किसान नहीं , बल्कि कॉर्पोरेट खेती इन सुविधाओं का ज्यादा फायदा ले रही है।

सीधी सी बात ये है कि आमदनी बढ़ानी है तो उत्पादन बढ़ाना होगा, निवेश बढ़ाना होगा। क्या देश के किसान में भारी निवेश की क्षमता है ? अगर नहीं तो फिर क्यों ये न मान लिया जाए कि कृषि क्षेत्र में रियायतों का फायदा किसानों से ज्यादा कंपनियां उठा रही है। क्या आज किसान अपनी नई पीढ़ी के लिए खेती-किसानी को सुरक्षित व्यावसाय मान रहा है...अगर नहीं तो फिर देश में भविष्य की तस्वीर क्या होगी...बड़ी कंपनियां खेती करेंगी और आपका परम्परागत किसान खेतिहर मजदूर बनकर काम करेगा। किसानों की माली हालात क्या है और परेशानी की इंतहा क्या है वो यूं समझिए कि देश में 1995 से लेकर 1995 से 2014 की अवधि में करीब तीन लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली। 2014 में सरकार ने एनसीआरबी के आंकड़ों में और वर्गीकरण कर लिया जिसमें आत्महत्या के मामलों में किसानों की केटेगरी से खेतीहर मजदूरों को अलग से चिन्हित करना शुरु कर दिया। 2014 में आंकडे देखेंगे तो राजस्थान में किसान आत्महत्या के आंकड़े सिर्फ तीन है और खेतीहर मजदूरों को जोड़ेंगे तो आंकड़ा 73 पार मिलेगा। हैरान करने वाला तथ्य है कि सिर्फ किसान हित के मुद्दों पर ही नहीं बल्कि आत्महत्या के आंकड़ो पर सरकारी तंत्र लीपापोती करता दिख रहा है। 

  किसान को अपनी जमीन का मालिक भी कहां रहने दे रही हैं सरकारें ? भूमि अधिग्रहण का साया किसान के सिर पर हमेशा मंडराता रहता है। हर बार समर्थन मूल्य पर खरीद की घोषणा ज्यादा और अमल चुनिंदा लोगों तक सीमित रह जाता है। किसान कतार में इंतजार करता रहता है और समर्थन मूल्य पर खरीद में भी मंत्री या किसी नेता का रसूख आड़े आ जाता है। राजस्थान में सहकारिता मंत्री अजय सिंह किलक पर ये आरोप लग चुके हैं कि हजारों को दरकिनार कर मंत्री जी के खास जानकारों की फसल खरीद ली गई। बाद में मंत्रीजी की सफाई आई कि मैंनें किसी को वरीयता तोड़ने के लिए नहीं कहा। कृषि में नए रिसर्च के काम देश में कम हो रहे हैं और इस्राइल या अन्य किसी देश में किसान प्रतिनिधिमंडल जाता है तो आम किसान नहीं बल्कि प्रगतिशील किसान के नाम पर राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हवाई सैर ज्यादा होती है। इन हालात में किसानों की आमदनी दोगुनी कैसे होगी और हो भी जाए तो किसान की कितनी तकदीर बदलेगी ? किसान आमदनी बढ़ाने का सियासी बयान हकीकत से दूर फसाना ज्यादा है। किसान हित नहीं, किसान राजनीति के हितों से सरकारों को सरोकार है।

रविवार, 28 जनवरी 2018

#DataPrivacyDay हमारा डेटा और हमसे ही वसूली ...! .ये जुल्म रोको सरकार ...

#DataPrivacyDay
 
हमारा डेटा और हमसे ही वसूली ...! .ये जुल्म रोको सरकार ...



 
- विशाल 'सूर्यकांत'

आज डेटा प्राइवेसी डे है...आप सोच रहे होंगे तो इस दिन का हमसे क्या वास्ता...ये बात सही भी लगती है क्योंकि अब तक सुनते आए हैं कि रोटी,कपड़ा और मकान हमारी पहली जरूरत है...बड़ी आबादी को डेटा का मतलब ही नहीं पता तो डेटा की सुरक्षा को लेकर क्या बात कीजिएगा...लेकिन जरा रूकिए मुद्दा जितना सोच रहे हैं शायद उससे कहीं ज्यादा बड़ा है। डेटा प्राइवेसी पहले आपका निजी मामला हो सकता था,लेकिन अब सरकार आधार जैसी योजना लाकर बल्क में डेटा यानी आपकी निजी जानकारियां ले रही है, इसीलिए अब ये निजी मसला नहीं सार्वजनिक रूप से निजी जानकारियों लेने और उसे सुरक्षित रखने का मसला बन गया है। इस देश में जून 2017 का अनुमान था कि करीब 420 मिलियन लोग इंटरनेट के उपभोक्ता हो चुके हैं, 229.24 मिलियन स्मार्ट फोन यूजर है। इनका डेटा सीधे हैकर्स और आवांछनीय गतिविधियों की जद में कभी भी आ सकता है, क्योंकि इंटरनेट के उपयोग का चलन ज्यादा है, उपयोग को लेकर सतर्कता और जागरूकता नहीं के बराबर है।

आधार को ही लीजिए, आप अपना डेटा सरकार को दे रहे हैं, ई-मित्र या कियोस्क वाला न जाने किस तरह से उसका उपयोग कर रहा है। आनन-फानन में गलत बन जाए तो कौन जिम्मेदार है ? उपर से सुधार के बदले सौ से पांच सौ रूपए तक लिए जा रहे हैं। हर योजना को आधार से लिंक करवाने के नाम पर कितनी राशि ली जा रही है, ये अंदाजा लगाना हो तो अपना आधार सुधरवाने चले जाइए, पडोस के किसी ई-मित्र सेंटर पर । आज की तारीख में मोहल्ले में सबसे ज्यादा वीआईपी स्टेटस आधार सुधार,आधार लिंक करवाने वाले दुकान मालिक का है।  पैन कार्ड और आधार में नाम में एक अक्षर, पता संशोधन,ई-मेल संशोधन के लिए उसकी अपनी एक रेट लिस्ट है। शहरों में तो फिर भी मोल-भाव की गुंजाइश आप ले सकते हैं। गांवों में तो व्यक्ति को पता नहीं कि क्या,क्यों और कैसे हो रहा है। उसे बस इतना भर पता है कि सरकार ने जरूरी कर दिया है आधार नहीं तो आपका मानों वजूद ही नहीं...सही वजूद हासिल करने के लिए न जाने कितने खर्च होंगे...ये नहीं पता। जीडीपी बढ़ाने में लगी सरकार ये नहीं पता लगाने की जहमत नहीं उठा रही कि 98 करोड से भी ज्यादा आधार कार्ड को लिंक करवाने में, उनमें संशोधन करवाने में कितनी रकम का लेन-देन हो रहा है, क्योंकि इसकी न तो रसीद है या डिजीटल पेमेंट का कोई मॉडल...जहां जितनी भीड़, उतनी ही लूट ...सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक देश में 98 करोड़ से ज्यादा लोग अपना आधार बना चुके हैं। स्मार्ट फोन या अन्य किसी डिवाइस से इंटरनेट यूजर और देश में जरूरी सेवाओं का उपभोक्ता होना, दोनों डेटा सुरक्षा के खतरे के मामले में एक ही पायदान पर खड़े हैं। आपको याद होगा कि चंद दिनों पहले देश में लाखों लोगों का आधार का डेटा लीक करने की खबर आई थी। उस वक्त आधार को देख रही सरकारी एजेंसी यूआईडीएआई ने इसे खारिज किया था। लेकिन चंद दिनों पहले वित्त मामलों की संसदीय कमेटी की रिपोर्ट आई, उसमें भी आधार की प्राइवेसी पर चिंता जताई गई। संसदीय समिति ने आधार समेत अन्य योजनाओं में देश में डेटा सुरक्षा के लिए एक पुख्ता कानून की वकालत की है। संसदीय कमेटी ने माना कि देश तेजी से डिजिटल कॉलोनी में तब्दील होता जा रहा है और ऐसे में डेटा की सुरक्षा के लिए इसरो और परमाणु ऊर्जा की तर्ज पर एक अलग से महकमा बनाने की जरूरत है। जिसकी रिपोर्टिंग सिर्फ प्रधानमंत्री के पास हो। 



बीते दिनों में आपने रेनसमवेयर जैसे वायरस के हमले की खबरें भी पढ़ी होंगी। डेटा यूजर्स बढ़े हैं तो हैकर्स की तादाद भी बढ़ी है। इंटरनेट सेवा प्रदाताओं का कारोबार बढ़ा है तो आपकी निजी पसंद और नापसंद को मार्केट में बेचने का कारोबार यानी डेटा का बिजनेस भी बढा है। आसान शब्दों में इतना भर जान लीजिए कि आप गूगल पर मेडिकल इन्श्योरेंस के लिए कुछ सर्च करते हैं और आपको चंद पलों में इसी से जुड़े विज्ञापन मेल और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर मिलने लगते हैं। कई दफा हो सकता है कि आपको बकायदा कंपनियों से फोन आने लगें कि आपने इस बारे में सर्च किया था, बताइए किस तरह से आपकी सहायता कर सकता हूं। इंटरनेट पर इस तरह के मामले व्यक्तिगत खोज का असर भर हैं, सोचिए जरा जब सरकार में दर्ज लाखों-करोड़ों जानकारियां ऐसे कारोबारी, हैकर्स या सर्विस प्रोवाइडर्स के हाथ लग जाएंगी तो क्या-क्या हो सकता है। फोन कर आपसे ओटीपी नंबर मांग कर बैंक से रुपए ले उड़ने का मामले लगातार सामने आते रहते हैं। 



देश में आधार कार्ड की अनिवार्यता होती दिख रही है, हालांकि अभी मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है लेकिन कई मामलों में अनिवार्यता लगभग हो ही चुकी है। आपके हक का मुनाफा,आपकी निजी जानकारी, आपकी जमा रकम में सेंधमारी, आपके पर्सनल प्रोफाइल पर नजर...न जाने कितने खतरे समाए हुए हैं डेटा सिक्यूरिटी के इश्यू में। भले ही ये आंकड़ा दस फीसदी हो लेकिन ये सच है कि देश में 10 फीसदी लोगों के लिए रोटी, कपड़ा आैर मकान के साथ डेटा भी जीने की अनिवार्य जरूरतों में शुमार हो चला है। जो इंटरनेट उपभोक्ता नहीं थे वो आधार जैसी सरकारी योजनाओं के लिए जरिए अपना डेटा शेयर कर रहे हैं।   दुनिया भर 'आधार' की चर्चा का क्या माहौल है, ये इस बात से समझ लीजिए कि दुनियाभर में मशहूर अंग्रेजी डिक्शनरी ओक्सफोर्ड ने पहली बार अंग्रेजी की तरह 2017 के हिंदी शब्द की घोषणा की है।

 मुद्दा ये कि क्या देश के राजनीतिज्ञों का इस पर ध्यान है ? क्या धर्म और जातिवादी राजनीति में मशगूल देश के नेताओं का ध्यान देश की आवाम के सामने आ रही इन भविष्य की चुनौतियों पर हैं ? क्या हमारे नेता डेटा सिक्यूरिटी के मामले में कुछ जानते हैं ? इस देश को राजनीति ही चलाती है...क्या हमारी राजनीति की दिशा इन खतरों को देख पा रही है ? सवाल इसीलिए हैं क्योंकि आधार लीक मामले में पहले खबर को पूरी तरह खारिज कर दिया जाता है। इसके बाद खबर आई है कि अब आधार के बजाय वर्चुअल आईडी का उपयोग होगा। आपका आधार नंबर, किसी और शक्ल में बदल जाएगा। इसे वीआईडी यानी वर्चुअल आईडी कहा जा रहा है। एक मार्च से आधार की सारी मुहिम वीआईडी में शिफ्ट हो जाएगी। क्या इन बातों पर पहले गौर नहीं हो सकता था। देश में हालात ये हैं कि लखनऊ जैसे शहर में रैन बसरों में कंबल के लिए एक अदद टेंट के निजी ठेकेदार स्वघोषित रूप से आधार को अनिवार्य कर दिया गया। हैकर्स और डेटा के कारोबारियों की नजर कहां और किस रूप में हैं, कंबल मामले से समझ लीजिए। अब वक्त का तकाजा है कि सरकारें डेटा सुरक्षा पर अपना ध्यान फोकस करें। सिर्फ आतंकी घटनाओं और अपराधों की रोकथाम में ही नहीं , नागरिकों की रोजमर्रा की जिंदगी में अनावश्यक दखल को रोकने जिम्मेदारी भी सरकारों को उठानी होगी।

गुरुवार, 25 जनवरी 2018

#Padmavat :रिलीज पद्मावत,सिस्टम दंडवत्

 

- विशाल 'सूर्यकांत'
आज पद्मावत की रिलीज डे है और नेशनल वोटर्स डे भी है। वोटबैंक की राजनीति के नाम पर इस देश में जो कुछ होता आया है,पद्मावती मामला इसी के आगे की कड़ी भर है। अब ये मुद्दा तो रहा ही नहीं कि पद्मावत फिल्म में क्या दिखाया गया है और क्या नहीं...मुद्दा ये बन रहा है कि अलग-अलग राज्यों की सड़कों पर हंगामे और बवाल की ये कौनसी फिल्म बन रही है और किसका डायरेक्टर,प्रोड्यूसर,स्क्रिप्ट राइटर कौन है ? हंगामे और बवाल की इस फिल्म का सेंसर बोर्ड कहां है...? नेशनल वोटर्स डे पर नेताओं के खूब ट्वीट आ रहे हैं, लेकिन क्या कोई ऐसा नेता है जो देश की जनता को, देश के वोटर को ये समझा रहा है कि लोकतंत्र में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के क्या मायने होने चाहिए ? जबाव सोचते वक्त ये जरूर ध्यान रखिएगा कि देश में सुप्रीम कोर्ट से बड़ी कोई न्यायिक संस्था हमने इजाद नहीं कर रखी है।

जनता को सही राह दिखाने वाले नेता, जब वोटबैंक की सियासत में उलझी पार्टी बन जाएं तो सड़कों पर वही होता है जो आज देश के कई हिस्सों में दिन भर हुआ। गुरुग्राम की घटना को ही लीजिए,बच्चों की बस पर पथराव हो गया। इसे एक घटना भर मत मान लीजिएगा क्योंकि बच्चों के जेहन में इस घटना ने भी देश की एक छवि उकेर दी है। ..डर के साए में, इन बच्चों ने सीखा है कि अपनी मांगों को मनवाने का क्या तरीका होना चाहिए ? ये बात ज्ञान की किताबी बातों से बिल्कुल अलग है...जिसे उन्होंने आज जिदंगी की पाठशाला से सीखा है। बच्चों की बस पर हमले के मामले में करणी सेना कह रही है कि इस घटना में उनका हाथ नहीं। तो फिर ये भी मान लीजिए कि आंदोलन पर अब उनका भी नियंत्रण नहीं रहा।


इस पूरे मामले में नेताओं की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगा लीजिए कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल करने का एक भी बयान नहीं आता मगर एक फिल्म को न लगाने के मल्टीप्लेक्स मालिकों के ट्विट खूब रिट्वीट किए जा रहे हैं। नेता और उनकी सरकारें मानो बता रही हों कि देखिए सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा वो कहा,लेकिन हमने किस हद तक जाकर, सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की धज्जियां उड़ा दी, आदरणीय वोटर,ये बात अपने वोट बैंक के खाते में जरूर लिख लीजिएगा।

मुद्दा एक संजय लीला भंसाली नहीं, मुद्दा एक फिल्म भी नहीं है। लिखी गई बातों को किसी फिल्म की पैरोकारी या विरोध के रूप में कतई मत लीजिएगा। मुद्दा सिर्फ ये है कि लोकतंत्र चलेगा कैसे ? लोकतंत्र में कोई मांग करता है तो सरकारों को क्या करना चाहिए ? सरकारों का पक्ष सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट कोई आदेश देता है तो उस पर क्या होना चाहिए ?  विरोध और आदेश के बीच संतुलन साधने में क्यों जानबूझकर नाकाम होती दिखती हैं सरकारें...?
ऐसा लगता कि उच्चतम आदेशों को भी ये दिखाने की जुर्रत हो रही है कि देखिए, हमने जो कहा था वो मान लेते तो ये न होता...हमने तो पहले से कह दिया था....संवैधानिक संस्थाएं एक-दूसरे के आदेशों का महत्व कम करती नजर आएं तो चिंता होना लाजिमी है। आज पदमावत है तो कल कोई और मुद्दा होगा...हर समूह अपनी मांगों और जरूरतों के साथ जीता है हिन्दुस्तान में...

सबकी मांगों को सुनने के लिए जनप्रतिधि हैं, उसके अनुरूप काम करने के लिए सरकारें हैं और काम संवैधानिक रूप से सही है या नहीं ये बताने के लिए अदालतें हैं। लोकतंत्र में इससे अलग कोई राह निकलती हैं तो इसका मतलब क्या है ? ...और इस राह पर चलने की अाजादी किस हद तक दी जा सकती है ? किस हद तक स्वीकारी जा सकती है। गुरुवार सुबह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अभी तक चार ट्वीट किए हैं, लेकिन पद्मावत को लेकर हिंसा का कोई ज़िक्र नहीं।



कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पदमावत को लेकर सीधे तौर पर कुछ नहीं लिखा है, लेकिन बुधवार रात उन्होंने गुरुग्राम में बच्चों से भरी बस पर पथराव की आलोचना करते हुए ट्वीट किया है। केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने अभी तक इस मामले पर चुप्पी साधी हुई है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल बहुत दिनों बाद बोल रहे हैं। ट्वीट मार्क्सवादी पार्टी के भी आए हैं।

 गुजरात चुनावों के वक्त खुल कर पदमावत का विरोध करने वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने राज्य में हो रही हिंसा पर चुप्पी साध रखी है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी खामोश हैं। पदमावत को राष्ट्रीय मां का दर्जा देने वाले शिवराज सिंह चौहान भी पद्मावत हिंसा पर कुछ नहीं बोल रहे। राजस्थान की मुख्यमंत्री मल्टीप्लेक्स मालिकों के फैसले को रिट्वीट कर रही हैं। इन सारे घटनाक्रम का क्या मतलब है...राष्ट्रीय वोटर्स डे पर तमाम वोटर्स को सोचना होगा...समझना होगा...मुद्दा एक अदद फिल्म के विरोध या समर्थन से परे ...कुछ और हैं....वोटर्स को इस लिहाज से दूरदर्शी होना पड़ेगा...किस नेता ने क्या किया, मुद्दों को कैसे सामने रखा, कैसे जिम्मेदारी से बचे...नेशनल वोटर्स डे पर वोटर्स अपने चुनावी बही खाते में जरूर लिखकर रखना चाहिए। गणतंत्र को महफूज रखना ज़रूरी है....

शुक्रवार, 19 जून 2015

तो अब खत्म हो रहा मोदी-शाह का हनीमून पीरियड...

                                         

                                                                - विशाल सूर्यकांत-

जब भारतीय जनता पार्टी के नेता और कार्यकर्ताओं को भी ये मालूम नहीं था कि सुषमा स्वराज और वसुन्धरा राजे के साथ क्या सलूक किया जाएगा तो आम लोगों को कैसे समझ में आता। पूरे घटनाक्रम को समझिए मेरे नज़रिए से...। मुझे लगता है कि पार्टी का सुषमा स्वराज के साथ खड़ा होना और वसुन्धरा राजे का नहीं जाने का घटनाक्रम भारतीय जनता पार्टी में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के हनीमून पीरियड की विदाई की और इशारा है।  ज़रा पीछे चलें इस पूरे घटनाक्रम से अलग...मुरली मनोहर जोशी,जिन्हें वाराणसी से हटाकर खुद नरेन्द्र मोदी ने चुनाव लड़ा।नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की बेलगाम होती जोड़ी पर नकेल डालने का पहला वार उन्होंने ही किया।
जोशी ने नमामि गंगे प्रोजेक्ट की खुली मुखालफत की। उमा भारती को कहना पड़ा,उनसे बात की जाएगी, सलाह ली जाएगी।नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को दिल्ली चुनाव के बाद से ही घेरने का मौका तलाशा जा रहा था। दिल्ली के बाद अब पंजाब और बिहार में  चुनाव है। आडवाणी खेमे को एक मौक़े की तलाश थी। जोशी के नमामि गंगे प्रोजेक्ट पर सवाल उठाने को नरेन्द्र मोदी गुट ने पहला वार मान कर पलटवार कर दिया। सुषमा स्वराज को घेरने के लिए मोदी खेमे से ललित मोदी को लेकर यूके को लिखे गए लेटर लीक हुए। सुषमा स्वराज बूरी तरह घिर गई। उधर ,ललित मोदी ने उन्हें बचाने के लिए दस्तावेजों का पुलिंदा जारी किया। यहां ललित मोदी ने एक तीर से दो शिकार किया। जिसमें वकील के जरिए वो दसतावेज उजागर किए जिसमे राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे भी उलझ सकती थी। इस डोक्युमेंट  में यूके सरकार के लोगों को कहा कि वे ललित मोदी के लिए गवाही दे रही है लेकिन भारतीय एजेंसियों को इसकी जानकारी ना ले। स्वराज और राजे घिर गई। पार्टी की तरह ही आरएसएस खेमा भी नरेन्द्र मोदी समर्थक और विरोधी तो नहीं लेकिन हां, ऐसे लोग जो मोदी सरकार पर आरएसएस का कंट्रोल खत्म नहीं होने देना चाहते, ऐसे लोगों के बीच साफ बंट गया।

उस खेमे में संजय जोशी और राम माधव जैसे लोग हैं, जो कि फाइनेंसर लॉबी के साथ आरएसएस में अच्छा रसूख रखते हैं। दूसरी और नरेन्द्र मोदी समर्थक आरएसएस गुट में ओम माथुर, मनोहर खट्टर व अन्य लोग शामिल है। 
- सीधा मामला ये हो गया कि आडवाणी और उनके समर्थक नेता और आरएसएस लॉबी
- और दूसरा नरेन्द्र मोदी उनके समर्थक और उनकी आरएसएस लॉबी

सुषमा स्वराज और फिर वसुन्धरा राजे के फंसने के बाद आडवाणी कैंप को लगा कि अपने लोगों को नहीं बचाया तो फिर मोदी-शाह गुट का एकछत्र राज हो जाएगा। लिहाज़ा आडवाणी ने इमरजेंसी के हालात वाला बयान दिया। ये ऐलान था उन सभी के लिए जो नरेन्द्र मोदी से खुश तो नहीं थे लेकिन कोई मोदी को चुनौती देने वाले फेस की तलाश में जरूर जुटे थे। आडवाणी ने ऐसे लोगों की आवाज को जुबां दे दी।  सुषमा स्वराज को हटाने की मांग करने वाला विपक्ष इससे आगे मोदी के इस्तीफे की मांग करता, इसीलिए मोदी गुट पहले से तैयार था कि सुषमा स्वराज का इस्तीफा नहीं लेना है लेकिन पूरी तरह एक्सपोज़ कर बदनामी करने की मंशा से नरेन्द्र मोदी ने बचाव नहीं किया। अपनी विदेश मंत्री को विवादों में छो़डकर मोदी खुद  बाहर से आए राष्ट्राध्यक्षों का स्वागत करने में व्यस्त होते दिखे।

उधर, आडवाणी ने इमरजेंसी के बयान से बने दबाव को और आगे बढाते हुए केजरीवाल को मुलाकात का टाइम देकर  दूसरा दांव खेल दिया। इस दांव के आगे मोदी-शाह गुट पीछे हट गया। क्योंकि केजरीवाल, आडवाणी के इस बयान की बिसात पर अपनी राजनीति जोड़ चुके थे। अमित शाह ने रिक्वेस्ट के बाद आडवाणी ने ये मुलाक़ात रद्द की । इस शर्त के साथ की पार्टी दोनों के लिए बचाव में आगे आयगी। नतीजा ये कि भाजपा के प्रवक्ता जो पिछले तीन दिनों से खामोश बैठे थे वो बैरक से बाहर आए। स्वराज और राजे दोनों का जमकर बचाव करने लग गए।  ये शुरुआत हैं क्योंकि दांव-पेंच और चलेंगे लेकिन इस बीच भाग्यशाली वसुन्धरा राजे रही हैं क्योंकि उन पर आया अब तक का सबसे बड़ा खतरा और दबाव अब टल गया है। दरअसल, वसुन्धरा राजे इस मामले में फंसी ललित मोदी की शरारत की वजह से थी और बची हैं तो आडवाणी कैंप के स्टेंड ले लिए जाने से।    
 स्थितियों में तालमेल देखिए कि कौन किसके सामने झुके, इस लड़ाई को जोधपुर में आए सुब्रह्मय्म स्वामी ने और ये कह कर उजागर कर दिया कि राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक बुलाएं जिसमें सभी खुल कर अपनी बात रखें, अमित शाह आडवाणी से सलाह लें। क्योंकि स्वराज को बचाने के लिए वसुन्धरा राजे का भी इस्तीफा रोकना था, इसीलिए सुब्रहम्यम स्वामी ने उनकी तुलना झांसी की रानी से कर आडवाणी कैंप में उनकी मौजूदगी के संकेत दे दिए।

आडवाणी के प्रशय के बाद वसुन्धरा राजे ने भी बगावती तेवरों की झलक दिखाते हुए दो-तीन विधायकों को मीडिया में बाइट देने के लिए आगे किया। ये महसूस करवाने के लिए की वसुन्धरा को हटाया तो पार्टी टूट जाएगी। दिल्ली की हार और सामने खडे बिहार की वजह से मोदी-शाह गुट इसके लिए तैयार नहीं था। दोनों गुटों में संघर्ष विराम की बिसात बिछ गई। सुषमा स्वराज के साथ ही वसुन्धरा राजे का बचाव करने के लिए पार्टी को आगे आना पड़ा। वसुन्धरा राजे को बचाने के कारण तलाशे गए। जिसमें देखा गया कि वसुन्धरा राजे के खिलाफ दस्तावेज में ललित मोदी के साईन तो हैं लेकिन वसुन्धरा राजे के नहीं। इस पहलू को तीन दिनों के मंथन के बाद वसुन्धरा राजे के लिेए ढ़ाल बनाया गया। सुषमा स्वराज के लिेए मानवीय संवेदनाओं की ढाल और वसुन्धरा राजे के लिए सबूत का अभाव। उनके पुत्र दुष्यंत सिंह के लिए विशुद्ध आर्थिक लेन-देन का आधार बनाया गया।
 इधर, भाजपा प्रवक्ताओं के बयान हुए तो आडवाणी ने भी इमरजेंसी वाले बयान पर अपनी सफाई देते हुए तीर का निशाना कांग्रेस की ओर मोड़ दिया। यानि साफ तौर पर दोनों खेमों में अब युद्ध विराम हो गया। लेकिन भाजपा में ये अभी संघर्ष विराम है लेकिन बिहार के नतीजों के बाद स्थितियां बदेंलगी। क्योंकि राजनीति को करीब से जानने वाले साफ देख पा रहे हैं कि बिहार में भारतीय जनता पार्टी की राह आसान नहीं है। अगर ऐसा हुआ तो आडवाणी कैप फिर मुखर होगा । फिलहाल, आडवाणी और मोदी कैंप में शह और मात के खेल के बीच वसुन्धरा राजे को हटाने या ना हटाने का मुद्दा, शतरंज के मोहरे की तरह आगे-पीछे चल रहा है। जाहिर है कि उपरी स्तर पर जिस तरह के हालात बन रहे हैं। फ़ैसला आसान नहीं होगा। 

मंगलवार, 19 मई 2015

मेरा क़ातिल भी तू, मेरा मुंसिफ भी तू ...

- विशाल सूर्यकांत शर्मा-  
ये कहानी है एक परिवार की। जिसमें एक जोड़ा है उस्ताद और नूर...। ये परिवार, अपने हिस्से की जिंदगी अब सुकुन से गुजार रहा था, क्योंकि बचपन से लेकर अब तक परिवार के हर बंदे ने किया अपने हिस्से का संघर्ष...।
उस्ताद पहले अकेला था...जिंदगी के संघर्ष की राह में नया मुकाम मिला और नूर उसकी जिंदगी का हिस्सा बन गई। अब दोनों ऩई राह के हमसफर हो गए। दोनों का संघर्ष किसी भी मायने में कम तो नहीं हुआ। लेकिन हां, एक अच्छी बात ये थी कि अब संघर्ष करने के मकसद में एक जिम्मेदारी ज़रूर आ गई। एक दूसरे का साथ देने की जिम्मेदारी।

... वो खामोश रहती, तो वो काम करता।  वो थक जाता तो ...वो निकल पड़ती। वक्त गुजरता रहा और इस जोड़े की जिदंगी एक परिवार में बदल गई क्योंकि परिवार में दो नन्हें बच्चे जुड़ गए। इन बच्चों ने मानों उनकी सारी दुनिया ही बदल दी थी क्योंकि दिनभर काम के बीच वो अपने बच्चों को देखते तो सारी थकान दूर हो जाती। बच्चे भी अपने मां-बाप के हमसाया होते चले गए। उस्ताद, पहले अकेला था अब परिवार बन गया तो चिंता भी बढ़ गई। जिम्मेदारियों ने उसे और भी मेहनतकश बना दिया।

लेकिन ....एक दिन उनकी हंसती-खेलती जिंदगी ने करवट ली और उस्ताद के हाथों अनचाहा गंभीर अपराध हो गया। दरअसल, हुआ ये कि उसे लगा कि शायद कोई उसके घर को नुकसान पहुंचाना चाह रहा है। हंसते-खेलते परिवार को उजाड़ना चाह रहा है...। अपना संघर्ष,अपनी खुशियां छिन जाने का डर इस कदर हावी हुआ वो उस शख्स पर टूट पड़ा जो नजदीक आ रहा था।  बस गलती ये हो गई कि उसने अपनी पूरी ताकत लगा दी और नतीजा ये कि वो शख्स वहीं ढ़ेर हो गया।

उस दिन उस्ताद को पहली बार लगा कि वो अपनी ताकत से और क्या-क्या कर सकता है ! पहले , एक और बाद में, उसके आशियाने पर नजरें लगाते इसी तरह के तीन और लोग उस्ताद के हाथों मारे गए। उसे अपने किए का अफसोस इसीलिए नहीं था क्योंकि उसे मालूम था कि अगर उसने ऐसा नहीं किया तो वो लोग उसका घर-परिवार, उसका संसार छीन लेगें।


फिर क्या था ये मामला लोगों के बीच आग की तरह फेैल गया।  क्योंकि मामला चार लोगों की जान लेने का बन गया। लोगों में उसकी बढ़ती ताकत का डर समा गया। किसी ने उसकी मजबूरी नहीं समझी। सभी को यही लग रहा था कि ये कोई मजबूरी नहीं बल्कि इस तरह का अपराध करना उस्ताद की आदत बन गई है। साजिशें रची  गई। उसकी ताकत को मात देने के लिए ताने-बाने बुने गए और एक दिन उस्ताद को धोखे से बेहोशी की दवा पिला कर बंधक बना लिया और चुपचाप दूसरे अनजान जगह पर नज़रबंद कर दिया।

उधर, उस्ताद के घर वालों को अब तक कुछ मालूम नहीं कि वो आखिर कहां चला गया ? आज भी उसकी बीबी नूर उसकी याद में भटक रही है। दो नन्हें बच्चे इंतजार कर रहे हैं कि दिन में नहीं तो शाम ढ़लते ही उन्हें दुलारने वाला उन्हें ज़िन्दगी के सबक सिखा रहे ,उस्ताद का फिर सहारा मिलेगा।  नूर की आँखें अब इंतजार में पथरा गई हैं।  वो तय नहीं कर पा रही हैं कि वो क्या करें ? कहां जाए ? वो भी उस्ताद की तरह अकेले गुम नहीं हो सकती क्योंकि दो नन्हीं जानें, उसे आस भरी निगाहों से हर वक्त निहारती रहती है, उससे लिपटी रहती है

उसे समझ में नहीं आ रहा कि आखिर हुआ क्या ??? वो उस्ताद जिसे उसने दिल से चाहा, अपना जीवन साथी बनाया वो आखिर उसे ऐसे छोड़ कर कैसे जा सकता है ??? एक पल में नूर के ज़ेहन में  कई ख्याल आते हैं । कभी मन कहता है कि उस्ताद को लौट कर आना ही होगा । फिर सोंचती है कि अगर नहीं आया तो ... ??? ...शायद,  आज वो आ जाए...!!! बस, इस ख्याल में वो रोज उस जगह के आस-पास घूमती है जहां से उसका उस्ताद, उसे आखिरी बार दिखा था।

नूर की जिंदगी का सुकुन मातम में बदल गया है। यकीन मानिए कि किसी भी गुमशुदगी बहुत तकलीफदेह होती है, आंखों के आगे कोई प्राण त्यागे तो लगता है तो फिर भी सुकुन रहता है लेकिन कोई इस तरह अचानक गायब हो जाए तो मानों अपने साथ, आधी जिंदगी ले जाता है।  बेइंतहा बेबसी के आलम में आज भी नूर को इंतजार है कि उसका उस्ताद एक दिन लौट आएगा।

उधर, उस्ताद ...पल-पल नूर और बच्चों की याद में मानों अपनी सुध-बुध खो बैठा है। लेकिन वो अपने गांव से, अपने लोगों से इतना दूर आ गया है कि उसे खुद नहीं पता कि वो लौटेगा भी या नहीं!!! वो चाहता हैं कि यकीन दिलाए कि नूर के बिना उसकी जिंदगी बेनूर हो चली है, अपने बच्चों से मिलने की तड़प में गाफिल हुआ जा रहा है...






ये कहानी किसी और की नहीं ... बल्कि रणथम्भौर के बाघ T-24 यानि उस्ताद और टाईग्रेस नूर और उससे दो नन्हें शावकों की है। आम इंसानों की तरह इनका भी परिवार है और इनका अपना लगाव भी..।
मगर हम इंसान तो सिर्फ वो बात सुनेंगे जो जुबां से कही जाए। जो बात हमें सुनाई ना दें, उसको लेकर हम बेफिक्र हो जाते हैं। ये  वही टाइगर 'उस्ताद' है जिसने रणथम्भौर के जंगल में अपने घर-परिवार के नज़दीक आते जा रहे हजारों लोगों में से 4 लोगों पर हमला कर दिया। इंसान और जानवर के बीच छिड़ी इस अनचाही जंग का खामियाजा आखिरकार जानवर को ही भुगतना पड़ा।

सरकार ने आबादी और लोगों के आने-जाने की राहगुजर बदलने के बजाए टाइगर ' उस्ताद ' को, उसके अपने ही घर से बेहोश कर चुपचाप उठा कर सैंकड़ों किलोमीटर दूर उदयपुर के सज्जनगढ़ एरिया में भेज दिया गया है। उस्ताद से जंगल की बादशाहत छिनते वक्त इतना भी ख्याल नहीं रखा गया कि जो उस्ताद जंगल में तीस किलोमीटर के घेरे में घूमने का आदि था, उसे कम से कम तीस फीट घेरे के पिंजरे में रखा जाए ... !!! सरकार के मंत्री कह रहे हैं कि हमें सबको देखना पड़ता है। आप वन्यजीव प्रेमी हो तो टाइगर की बात करोगे लेकिन हमें वहां वनकर्मियों की सुननी पड़ती है, आस-पास के गांवों की बात सुननी पड़ती है।

दरअसल, सरकार ये पहलू तो छुना ही नहीं चाहती कि क्या रणथम्भौर के बादशाह को होटल मालिकों के दबाव में वहां से अचानक गायब करवाया है। रणथम्भौर में टाइगर के आशियानों तक होटल मालिक अपनी होटलें बना चुके हैं, वो चाहते हैं कि टाइगर उनकी होटल के आस-पास दिखे, क्योंकि उसे दिखाकर करोड़ो कमाए जा रहे हैं लेकिन जब वो किसी पर हमला कर दे तो उसे आदमखोर करार देकर देश निकाला दे दिया जाता है। ये टाइगर फिर अपने परिवार से मिल पाएगा, फिर रणथम्भौर आएगा !!! इस पर मुझे शक है क्योंकि इसके लिए सरकार को उसका जंगल लौटाना होगा। रणथम्भौर में टाइगर को दिखाने की टिकट तो ली जाती है लेकिन वो वोटर नहीं है...वो खुद बिजनेस भी नहीं करता। अब आप खुद ही समझ लिजिए...ना वोट और ना ही धंधा...तो फिर क्या फर्क पड़ता है कि सिर्फ एक टाइगर उस्ताद जंगल में ना रहे। नुमाइश ही तो करनी है तो शावक अपना दुख भुलाकर एक ना एक दिन तैयार हो ही जाएंगे। नूर अपना ग़म एक ना एक दिन भूल ही जाएगी। सुख में रहें या दुख में, सज्जनगढ़ और रणथम्भौर में इनकी नुमाइश जारी रहेगी।

सवाल ये हैं कि आखिर किससे अपराध नहीं होते ? हम अपराध करें तो उसे पैरवी और सुनवाई का अधिकार मिलता है लेकिन ये बेजुबान जानवर ठहरा। सिर्फ दहाड़ कर अपनी बात रखता है। उस्ताद , आज भी सज्जनगढ़ में दहाड़ रहा है। इस दहाड़ को आप बादशाहत का रुबाब कहेंगे या फिर अपनों से बिछड़न का दर्द !!!  ये बात तो आपकी संवेदनाएं ही तय करेंगी।

 मेरी संवेदनाएं कह रही है कि ये जानवर के प्रति हमारा बर्बर रवैया है, ये जानवरों को लेकर हमारी अमानवीयता की इंतहा है । उस्ताद और नूर के बिछड़न की इस कहानी में आपको क्या नजर आया ??? मुझे नहीं मालूम लेकिन रणथम्भौर के जंगल का ज़र्रा-ज़र्रा अपने बादशाह की अनचाही रुखसत पर हैरान नज़र आता है।...

उस्ताद को खोज रही नूर के साथ-साथ उसका आशियाना आंसू बहा रहा है ... या कहें कि उस्ताद के जाने के साथ ही नूर की तरह,  रणथम्भौर का जंगल भी बेनूर हो चला है। हो भी क्यों ना !!! आखिरकार, उनकी आंखों के सामने ही तो उस्ताद और नूर की प्रेम कहानी लिखी गई होगी, जीवन का संघर्ष लिखा गया होगा ।

उधर, जंगल की ठंडी आबो-हवा चुपचाप नन्हें शावकों को सहला रही है कि पिता का साया नहीं, तो मेरा कुछ दुलार ही ले लो....लेकिन खुदा के वास्ते चुप हो जाओ ...!!! 

इस बीच नए सैलानी फिर जंगल में उनके घर की दहलीज पर चले आ रहे हैं...नज़दीक और नज़दीक...बेहद करीब...शावकों की सहमी आंखें मानों उन्हीं से कह रही हों...क्यों आए हो फिर यहां....मेरे कातिल भी तुम...मेरे मुंसिफ भी तुम...मेरे रहनुमा ...फिर हम कहां जाएं...


- विशाल सूर्यकांत शर्मा 
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बुधवार, 13 मई 2015

मुस्कुराते मुखौटों पर लगाम

                    

                                                   
                                                                - विशाल सूर्यकांत शर्मा- 
हमारी सोसायटी में, शक्ल और सूरत के इतने मायने हैं कि अच्छे नैन-नक्श का, कोई दिख जाए तो फिर हमें उस इंसान की सीरत देखने का मन ही नहीं करता। आम इंसान की ख्वाहिश रहती है कि अपना चेहरा-मोहरा अच्छा हो । जब फोटो खिंचवाएं, तो वो चेहरे से भी ज्यादा खूबसूरत निकल आए। आम आदमी हो या फिर कोई नेता। सबके लिए फोटो खिंचवाना किसी रोमांचकारी काम से कम नहीं। टाई में, सूट-बूट में, मस्ती के मूड में फोटो ना जाने कितनी अलग-अलग शैलियों में फोटो। अगर चिंतनशील व्यक्तित्व नहीं भी हैं तो भी आपके एलबम में एक फोटो जरूर ऐसा होगा जो आपकी चिंतनशील छवि को उजागर करे।

एलबम में पड़ी बरसों पुरानी फोटो देखकर आप अपना बचपन याद कर सकते हैं या फिर जवानी का गुज़रा जमाना...। कुछ फोटो, ऐसी होती है जो अचानक आपके सामने आ जाए तो अतीत के कई भूले-बिसरे पल अपनी गुमशुदगी छोड़, आंखों के सामने आ जाते है। हम हिन्दुस्तानी लोग, खुद के प्रति इतना प्रेम रखते हैं, खुद के प्रति इतनी दया भावना रखते हैं कि हमें अपनी गलतियां तो नजर ही नहीं आती। लेकिन... हां, ये शर्तिया बात हैं कि आप चाहे कितने भी आत्ममुग्ध हों, मगर दूसरों को अपनी फोटो दिखाते वक्त खुद ही अपनी खामियां पहले बताते चलते हैं ...ताकि आपकी फोटो देख रहे शख्स के हिस्से में मजबूरन आपकी तारीफ करने का ही विकल्प बच जाए।  मन को टटोलिए और बताइए, मेरी इस बात में, सच्चाई हैं कि नही !!! 

हमें खुद से ज्यादा अपनी फोटो से प्यार इसीलिए हो जाता है क्योंकि वो हमारे सुनहरे अतीत की कहानी कहता है। हमारे यहां चलन नहीं है कि हम दुख के वक्त में फोटो लें। हमारे यहां फोटो हमेशा सुकाल में खिंचाई जाती है। दुखियारा सा चेहरा भी फोटो खिंचवाते वक्त अच्छा-खासा कॉन्शियस होकर हंसमुख बन जाता है। अब अपनी फोटो लेने के लिए 'सेल्फी' शब्द अपना लिया गया है। पहले लगता था कि सेल्फी का चलन सिर्फ कॉलेज गोइंस स्टुडेंट्स और टीन एजर में ही था। मगर जब से मोदी जी ने सेल्फी को 'राष्ट्रीय आयोजन' बना दिया है तब से लोगों की सेल्फी लेने में हिचक ज़रा कम हो गई है। बच्चों के साथ, छोटे और बड़ों के साथ हर मौक़े-बेमौक़े पर '' फोटों-खिंचाई '' धीरे-धीरे दिनचर्या का हिस्सा बन रही है।  



 आजकल तो मोबाईल की शक्ल में एक कैमेरा हमेशा  साथ चलता है। खुशी या गम,जो भी मिला वो जिंदगी  के अनुभवों के साथ-साथ एक क्लिक पर आपके  मोबाइल फोल्डर में भी सेव होते रहे है। जिंदगी के  अनुभवों की तुलना में यहां आपके पास ये सुविधा है  कि आप अनुभव को बदल नहीं सकते लेकिन अपने  अतीत का फोटो, जब चाहें तब जरूर एडिट कर सकते  हैं। फोटो खिंचवाने का चलन बंद फोटो स्टूडियों से  सरकते हुए सेल्फी के जमाने तक आ पहुंचा है।

हम आम लोगों की जिंदगी में फोटो और राजनीति में फोटो खिंचवाने के अलग-अलग मायने है।  हम लोग अपनी खुशियां जताने फोटो खिंचवाते हैं मगर नेतागिरी में फोटो खिंचवाने और उसे लगाने का मतलब है अपनी पहचान को बढ़ाना और अपने मुस्कुराते मुखौटों की मानिंद लगे फोटो को भी वोट हासिल करने का जरिया बनाना।  


"फोटो- खिंचाई" की ये राम कहानी इसीलिए गढ़ी है क्योंकि अभी टीवी में देखा कि सरकारी विज्ञापनों में नेताओं की फोटो लगने पर पाबंदी लग गई है। देश की सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया है कि प्रधानमंत्री,राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के अलावा देश भर में किसी भी संवैधानिक संस्था के ओहदेदार बने नेता की फोटो सरकारी विज्ञापनों में नहीं लगेगी। मतलब ये कि आजादी के इतने सालों तक सरकारी खर्च पर अपने चेहरे का नूर दिखाते घूम रहे नेताओं पर अब लगाम लग गई है।  नेताओं के ''बे-वजह मुस्कुराते चेहरे''  सरकारी विज्ञापनों में अब आपको देखने नहीं मिलेंगे। 


सुप्रीम कोर्ट की ओर से प्रधानमंत्री के पद को इन आदेशों से अलग रखा गय है । मतलब, सारे देश को सेल्फी का चस्का लगवाने वाले मोदी साहब तो बच गए लेकिन उनके अलावा सारे मंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल, बोर्ड-निगमों के चैयरमेन, पॉलिटिकल अवॉइन्टमेंट वाले लालबत्ती धारी सब के नूरानी चेहरे सुप्रीम कोर्ट के फैसले की जद में आ गए। देश में अब तक चुनाव आयोग की आचार संहिता के अलावा तो कोई ऐसा मौक़ा नहीं था जब सरकारी कार्यक्रमों के विज्ञापन में नेताजी की फोटो लगाने पर रोक हो। लेेकिन अब बारहमासी रोक लगा दी गई है। नेताओं के सामने दिक्कत तो ये है कि कोर्ट के निर्देशों पर किस दलील के साथ एतराज करें ...???  क्योंकि ये  उनका हिडन एजेंडा होता है कि सरकारी विज्ञापनों के बहाने अपना फोटो भी लग जाएगा। 

गंभीर पहलू ये हैं कि ये फैसला सही वक्त पर आया है क्योंकि सरकारी विज्ञापनों में फोटोबाजी की रवायत कुछ अलग राह पर चल पड़ी थी। अपनी फोटो की माया में उलझ रहे नेताओं की भीड़ में मायावती तो इतनी आगे निकल गई कि खुद की मूर्ति ही लगा ड़ाली। लखनऊ में बना अम्बेडकर पार्क बसपा नेता और पार्टी के चुनाव चिन्ह की मूर्तियों का खुला संग्रहालय बना हुआ है जहां 1200 करोड़ की मूर्तियां मायावती की सियासत चमकाने के लिए हमेशा के लिेए स्थापित कर दी गई हैं। जाहिर है कि फोटो लगाने की ख्वाहिश से शुरु हुआ ये सिलसिला मू्र्तियां स्थापित करने तक आ पहुंचा था, इस पर रोक जरूरी थी। 


 नेताओं की महत्वाकांक्षाओं पर लगाम कसने के मामले में सुप्रीम कोर्ट का  ये फ़ैसला एतिहासिक होगा !   ये कहना ज़रा जल्दबाजी नहीं कर सकते....  क्योंकि जमात तो नेताओं की ठहरी... यहां से नहीं... तो वहां से, सरकार  नहीं तो कार्यकर्ता और दानदाताओं के हवाले से अपने फोटो वाला विज्ञापन  कहीं ना कहीं से तो छपवा ही देंगे। सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला तभी मुफीद है  जब ये अखबारों तक नहीं बल्कि सरकारी बेवसाइट्स और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में जारी सरकारी अपीलों पर भी लागू हो।

 ये सच हैं कि तमाम आदेशों के बावजूद भी किसी बहाने नेताजी चेहरा दिखाए बिना नहीं मानेंगे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी विज्ञापनों में नेताओं के चेहरे दिखाने पर रोक लगाकर, सरकारी खर्च पर निजी प्रचार की मंशा पालने वाले नेताओं को आईना जरूर दिखाया है। ये फ़ैसला सरकारी ओहदों और सिस्टम में बढ़ते व्यक्तिवाद पर सीधा और करारा प्रहार है। हमारे देश को विज्ञापनों में मुस्कुराते मुखौटे नहीं, जमीन पर काम करने वाले जनप्रतिनिधियों की ज्यादा ज़रूरत है।           - शुक्रिया सुप्रीम कोर्ट !!! 

विशाल सूर्यकांत शर्मा
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लेखक पत्रकार-फर्स्ट इंडिया न्यूज़ में हैड, इनपुट हैं। 

सोमवार, 11 मई 2015

केजरीवाल को भी पसंद मीडिया की मिठास ....

                                           
                 
 विशाल सूर्यकांत शर्मा
पुरानी कहावत है -  मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कडवा थू ... । मीडिया के साथ बर्ताव की ये नीति बरसों पुरानी है लेकिन मीडिया की पतवार के सहारे सियासत में उतरे नए-नवेले नेता अरविन्द केजरीवाल भी इस नीति पर चल पडेंगे, इसकी उम्मीद ज़रा कम थी। एक सर्कुलर निकाल कर अरविन्द केजरीवाल ने सारी मीडिया को घेरने की जुगत लगाई है, उसमें गंभीरता कम, बचकानापन ज्यादा लग रहा है। केजरीवाल शायद नए नेता हैं इसीलिए तो मीडिया पर सीधा अटैक कर बैठे है। क्योंकि बाकी नेता तो किसी ना किसी बहाने मीडिया को अपने डंडे से हांक ही लेते है। जिसे सोसायटी का वॉच डॉक करार दिया गया है वो मीडिया सबको तभी पसंद आता है, जब वो अच्छी, पॉजेटिव या मिठास भरी खबरें दिखाता रहे। दांत दिखाने वाला मीडिया किसी को पसंद नहीं। ' नेिंदक नियरे राखिए' की बात अभी भी हमारे कल्चर में किताबी ज्ञान से बाहर नहीं निकल पाई है। हर कोई चाहता है कि वो काम करता रहे और पीछे एक दो पिठ्ठू उसकी सोंच को निराली कहते फिरें और जब मीडिया इस शैली को अपनाने लगे तो फिर और क्या चाहिए।  पिठ्ठू बन जाओ तो विज्ञापन और नियामतें न्यौछावर होती चली जाएंगी। रसूखदार लोग चाहते हैं कि सोसायटी के वॉच डॉग सिर्फ उनकी पहरेदारी करे, उन्हें खुश रखें। वो इसे आस-पास भी इसीलिए रखना चाहते हैं ताकि दूसरी ताकतों से अपना बचाव होता रहे। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जो किया वो नई बात नहीं है। अक्सर सरकारें और नेता अपनी पसंद और नापसंद के मुताबिक मीडिया डिलिंग करती आई है। मीडिय़ा की मिठास के तलबगारों की जमात में केजरीवाल भी शामिल थे। बस दिक्कत ये हो गई कि जब वो क्रांतिवीर की भूमिका में थे तब जमकर मीडिया की पब्लिसिटी मिली और खूब छपे, खूब दिखे। अब जब वो प्रशासन बन गए... तो पब्लिसिटी की जाजम सरक गई और अब कडवी दवाओं का दौर शुरु हो गया। 


उन्हें सत्ता विरोधी शख्स के रूप में जो प्रचार मिला जब सत्ता में बैठ गए तो वो ही प्रचार सवालों की शक्ल में आगे-पीछे घूमने लगा। केजरीवाल ही नहीं, किसी भी नए नवेले नेता के लिए ये ट्रांजिशन गले नहीं उतरता । केजरीवाल के लिए कोढ़ में खाज की स्थिति ये हो गई कि केजरीवाल उस दिल्ली के मुख्यमंत्री बन बैठे हैं जहां मीडिया रेटिंग्स के लिए सबसे ज्यादा टीआरपी मीटर्स लगे हैं। यहां तो एक गली में कुत्ता भी मर जाए तो देश भर के कुत्तों की मौत के मामले एक ही दिन में उठ सकते हैं। ये वो शहर हैं जहां बैठकर जिस तरह से नेता देश की नीति तय करते हैं, ठीक उसी तरह मीडिया में लोग देश भर के लोगों को आज क्या दिखाना है, ये तय करते हैं।

आज मीडिया के खिलाफ सर्कुलर निकालने वाले केजरीवाल की शख्सियत मीडिया के जरिए ही संवरी है। जब-तब उन्हें पब्लिसिटी का मीठा डोज मिलता रहा, उनके तेवर और बयानों का जिक्र होता रहा तब तक कोई सर्कुलर या नैतिकता की दुहाई नहीं दी गई। अन्ना आंदोलन में और उसके बाद मफलन मैन और ना जाने कितने नामों की उपाधियां उन्हें मीडिया के प्रचार-प्रसार से ही तो मिली थी। अपनी शुरुआत से लेकर अब तक अरविन्द जिस मीडिया की नैय्या पर ही सवार रहे अब उस नैय्या का समन्दर बदल गया है। दरअसल, अरवेिन्द केजरीवाल के साथ एक ज्यादती ये हो गई कि योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण के मामले पर पार्टी में दो फाड़ ,दिल्ली में जंतर-मंतर में एक शख्स की सरेआम फांसी के बावजूद केजरीवाल की सभा जारी रखने का फ़ैसला, कुमार विश्वास के चरित्र का मामला या कानून मंत्री की डिग्री का मामला, आईएएस को आनन-फानन में केन्द्र की सेवा में फिर भेजना का मामले एक के बाद सामने आ गए।  उन्हें लग रहा है कि मीडिया उनके पीछे पड़ गया है। जबकि हकीकत ये हैं कि मीडिया का ये चरित्र है कि वो अतिवादी भी तब ही होता है जब कुछ सतही पहलू सामने आते है।



सवाल ये हैं कि केजरीवाल क्या इसके जरिए मीडिया पर नकेल लगाना चाहते हैं ? क्या वो तय कर चुके हैं कि सच वो ही होगा जो उनके हिस्से की कहानी बताएगा?  मान लिया कि मीडिया बिकाऊ है तो क्या आप उसे नकार देंगे?  क्या वाकई किसी सर्कुलर की जद में लाकर नख-दंत विहिन बना सकते है ?  
 पहले मीडिया के दिल्ली सचिवालय में प्रवेश बंद करने का फैसला हुआ और अब ये सर्कुलर, आखिर क्या कहना चाहते हैं अरविन्द केजरीवाल ?  मीडिया पर रोक लगाने वाले वो पहले मुख्यमंत्री तो नहीं लेकिन हां, ऐसा खुला सर्कुलर जारी करने वाले तो शायद वो पहले मुख्यमंत्री होंगे मीडिया को नैतिकता के बंधन में बांधने के बजाए केजरीवाल ने कानूनी शिकंजा तैयार कर दिया।  मुद्दा तो बस इतना सा ही होगा कि मीडिया पर भी कुछ नैेतिक दबाव रहे ताकि कही-सुनी रिपोर्टिंग के बजाए तथ्यों के आधार पर मीडिया खबरें चलाए। इसके लिए ये रास्ता क्यों अपनाया गया ? बेहतर तो ये होता कि दिल्ली सरकार के विभाग, अपने विभाग की गलत रिपोर्टिंग करने पर पूरी मुस्तैदी से सरकारी बेवसाइट और सोशियल मीडिया पर अखबार या टीवी चैनलों की खबरों का नामजद खंडन जारी करते। मीडिया पर दबाव बनाए रखने के लिए ये ही तरीका काफी था कि  अगर कोई खबर गलत है और आपको लगता हैं कि मीडिया नाहक मुद्दा बना रहा है, दुष्प्रचार कर रहा है तो आप इसका जबाव दें। लोकतंत्र में आखिरकार  कोई कुछ भी कहे, कोई कुछ भी करें लेकिन जनता को ही तय करना है। चुनावों के वक्त साफ हो ही जाएगा कि केजरीवाल सहीं है या फिर मीडिया की टारगेटेड रिपोर्टिंग।
जिस तरह से केजरीवाल को खुद को सही साबित करने के लिए अगली बार फिर चुनाव जीतकर दिखाना होगा, ठीक उसी तरह ये मान कर चलिए , देश में मी़डिया पर भी ये नैतिक दबाव रहेगा कि उसके पास जनता की नज़रों में  विश्वसनीयता का तमगा है या नहीं। 
अक्सर आपने देखा होगा कि कई बार मीडिया के लाख पॉजेटिव जतन के बावजूद भी नेता चुनाव हार जाते हैं या बहुत नेगेटिव न्यूज के बावजूद चुनाव जीत जाते हैं। इन घटनाओं का मतलब क्या है ??? जो जनता अपना नेता चुनती है उसे आप इतना बेवकूफ नहीं मान सकते, वो भी तो मीडिया की  विश्वसनीयता की मूक कसौटी पर जनता मीडिया को भी अभी परख रही है। तभी तो सोशियल मीडिया इतनी तेजी से रफ्तार पकड रही है। 



मीडिया को लेकर बन रही सोच में एक बडी दिक्कत ये भी है कि कई बार ऐसे मौक़े भी बन जाते हैं कि कोई नेता या पूरी की पूरी सरकारें, एक के बाद एक घटनाक्रमों के झंझावातों में फंसती चली जाती है कि मीडिया को कवरेज दिखाती रहती है। चाहे-अनचाहे घटनाक्रम के रेफरेंस जु़डते चले जाते हैं।  वो दौर ऐसा होता है जब खबरों से ज्यादा परसेप्शन दर्शकों पर अपना असर दिखाता है। अगर ये परसेप्शन किसी के खिलाफ हो तो उसे सारी मीडिया अपने खिलाफ नजर आती है। लेकिन हकीकत में ऐसा होता नहीं है। ये कभी नहीं हो सकता कि सारी मीडिया बिरादरी एक टारगेट बनाकर काम करे। मेरा दावा है कि ये कभी संभव ही नहीं है। मीडिया में अंदरूनी प्रतिस्पर्धा और टीआरपी का खेल, ये काम कभी होने ही नहीं देगी। जो ऐसा सोचता है उसे मीडिया की बारिकियों को और गंभीरता से समझना होगा। 

  दरअसल, अरविन्द केजरीवाल ही क्यों देश का कोई नेता, सरकार या कंपनी नहीं चाहती कि मीडिया उनके लिए पॉजेटिव की रट छोडकर नेगेटिव बोले। कोई नहीं चाहता कि  मीडिया नेगेटिव डायरेक्शन में जाए। हर कोई चाहता है कि रिपोर्टर, उनके लिए एक अच्छे पब्लिक रिलेशन पर्सन की  मानिंद पेश आए। अच्छी बातें कहे, अच्छा लिखे और अच्छा दिखाए। इसीलिए तो मीठी बांतें, मीठे बोल और मीठी रिपोर्टिंग से विज्ञापन और रेवेन्यू का स्वाद और भी मीठा होता जा रहा है। हर मंत्री और नेता अपनी टेबल में रखी विज्ञापन फाइल पर साइन करने से पहले देखता है कि  किस मीडिया चैनल या अखबार ने अपने मामलों की रिपोर्टिंग में कितनी चाशनी चढ़ाई है ? जब से ये मीडिया में मिठास का चलन चल पड़ा है तब से और अच्छे पत्रकारों की धार कुंद होती चली गई। पत्रकारों की जिंदगी की बड़ी हकीकत ये हैं कि वो बड़ी खबरों के साथ ही औरों की तरह मासिक तनख्वाह का भी तलबगार है। इस पूरी स्थिति का फायदा वो लोग उठा रहे हैं जिनके पास विज्ञापन जारी करने के अधिकार हैं। देश में ये हकीकत है कि मीडिया से ज्यादा मीडिया के परजीवी सेक्टर ज्यादा कमाई कर रहे हैं। मसलन, विज्ञापन एजेंसियां, पब्लिक रिलेशन एजेंसियां। अच्छे-खासे नामचीन पत्रकार मीडिया की मेन स्ट्रीम छोड़कर मीडिया की मिठास में मशगुल हो रहे है। या खुलकर रहें तो मीडियाकर्मी तेजी से पीआर एजेंसियों और विज्ञापन एजेंसियों की कठपुतलियां बनते जा रहे है।  सब तरफ यही दौर चल रहा है लेकिन अभी ये वो अंतिम अवस्था नहीं आई कि हम इसे मीडिया के वजूद का निष्कर्ष मान लें, इन परिस्थितियों को अंतिम सत्य मान लें। 

मुझे लगता है कि ये संक्रमण का दौर चल रहा है। मीडिया के एथिक्स और कारोबार के बीच अनकही जंग चल रही है। लेकिन आखिरकार मीडिया को विश्वसनीयता और सत्यता की धार पर आना ही होगा क्योंकि अगर अब मीडिया ने ये कदम नहीं उठाया तो वो वक्त दूर नहीं जब लोगों की बढती समझ और लॉजिकल थिकिंग के आगे ट्रेडिशनल और इलेक्ट्रोनिक मीडिया इर्रीलिवेंट हो जाएगा।  अपने देश के दर्शकों को आप कडवी रिपोर्ट्स के साथ कुछ मीठी चाशनी भरी पीआर रिपोर्ट दिखा दो तो फिर भी चल जाएगा लेकिन किसी के हक में खबरों का खालिस मीठा पकवान परोसना मतलब, अपनी विश्वसनीयता और साख से समझौता करना है। जो चैनल ऐसा कर रहे है, उनके लिेए वो आत्मघात से कम नहीं है क्योंकि बाजार में अफवाहें उड़ाने के लिए ऐसे चैनल्स का सहारा लिया जाता है। कहां तो पैमाने ये थे कि घटनाक्रम की पुष्टि चैनल  से होती थी और कहां अफवाहों का केन्द्र बन गए चैनल्स और अखबार। बताइए क्या ये आत्मघाती कदम नहीं है ? 
दरअसल, देश के लोगों का मिजाज ये हैं कि दो सौ साल की गुलामी सहने वाले देश की जनता को सत्ता की सेवा कतई पसंद नहीं आती। हमें विरोध के स्वर ज्यादा सुहाने लगते हैं। इसीलिए ही सोशियल मीडिया तेजी से मुखर हो रहा है, यहां अभिवयक्ति की स्वतंत्रता यहां अपने असली स्वरूप में सामने आ रही है। सोशियल मीडिया, धीरे-धीरे  ट्रेडिशनल मीडिया और इलेक्ट्रोनिक मीडिया को निगलता जा रहा है। आप खुद ही देख लीजिए कि तमाम  नेता, कंपनियां, फिल्म स्टार, क्रिकेटर, आम पत्रकार सभी फेसबुक,ट्विटर, ब्लॉग में अपनी बात रखना शुरु कर चुके हैं और मीडियाकर्मी खुद फोलोवर्स की भीड़ में शामिल होकर उनके ट्विट चुराकर खबरें दिखा रहे हैं। रही-सही कसर टीआरपी के खेल ने पूरी कर रखी है। ये सच्चाई है कि अब खबर की ग्रेविटी, उनकी प्रमुखता के साथ नहीं बल्कि टीआरपी मीटर्स की मौजूदगी के साथ जुड रही है। ऐसे में मीडिया की विश्वसनीयता खतरे में है।

ये सारी चर्चा सिर्फ इसीलिए की जा रही है ताकि ये बताया जा सके कि देश की मीडिया के सामने केजरीवाल के सर्कुलर से भी ज्यादा कई बड़े खतरें मुंह बायें खड़े है। केजरीवाल के सर्कुलर से तो मीडिया की सेहत में ज्यादा असर नहीं पड़ने वाला, अलबत्ता, मिठास भरा मीडिया पसंद करने के शौक में केजरीवाल का सर्कुलर, कहीं खुद उनके लिए गले की फांस ना बन जाए. ये चिंता ज़रूर है । ये चिंता केजरीवाल या उनकी पार्टी आप को लेकर कतई नहीं है। लेकिन हां, उनके जरिए देश में जो वैकल्पिक और भ्रष्टाचार विरोधी राजनीति का माहौल एक लंबे दौर के बाद चैक एंड बेलेन्स की स्थिति में आया है। इस दौर को, इस माहौल को, इस राजनीति को यूं ही खत्म नहीं होने दिया जाना चाहिए। उम्मीद है केजरीवाल और उनके समर्थक, इस मर्म को समझेंगे।

 - विशाल सूर्यकांत शर्मा
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 लेखक पत्रकार- फर्स्ट इंडिया न्यूज में इनपुट हैड हैं।