रविवार, 12 जुलाई 2020

राजस्थान की राजनीति में कुछ बड़ा होने वाला है ..!!!



राजस्थान की बात, विशाल सूर्यकांत के साथ                           
प्रदेश की गरमाती राजनीति के बड़े सवालों पर विशेष पड़ताल
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 - विशाल सूर्यकांत

" सब कुछ ठीक है, सत्ता और संगठन में तालमेल बरकरार है,"    अब यह कहने की गुंजाइश न तो मुख्यमंत्री के पास है और न ही उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के पास... क्योंकि सियासी खींचतान के बीच एसओजी के नोटिस के मुद्दे से लेकर अल्पमत की सरकार करार देने तक के घटनाक्रम ने प्रदेश कोंग्रेस में आर-पार की लकीरें खींच दी है। संगठन और सत्ता के बीच साजिशों के तार तलाशे जा रहे हैं। राजस्थान कांग्रेस में राजनीति के घटनाक्रम तेजी से बदल रहे हैं

इतने सालों में दोनों नेताओं के बीच संतुलन साध कर अपना काम चला रहे विधायक और मंत्रियों के लिए अब ये निर्णायक वक्त है। सबसे बडा सवाल कि क्या राजस्थान में तख्तापलट होना संभव है , क्या कांग्रेस के हाथों से मध्यप्रदेश की तरह राजस्थान में भी सरकार जा सकती है। हां या ना में जवाब से पहले, स्थितियों को गहराई से हर पहलू की पड़ताल करते हैं। शायद आप खुद इस नतीजे पर पहुंच जाएं कि क्या होने वाला है ।

दरअसल, राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बनने की कहानी ही रूठने और मनाने से शुरु हूई। याद कीजिए वो तस्वीर, जिसमें गहलोत और पायलट के बीच राहुल गांधी दोनों के साथ विक्ट्री का निशान बनाते हुए। इस तस्वीर के साथ ही साफ हो गया था कि राजस्थान में आलाकमान ने संतुलन साधने का जतन तो किया है लेकिन कितने वक्त तक संतुलन चलेगा, पहले दिन से इस पर संशय था। दरअसल, किसी भी पार्टी का आलाकमान हो, उसे कुछ हद तक अंदरूनी खींचतान सुट भी करती है क्योंकि दो प्रतिद्वंद्धी नेताओं में से एक को कमान मिलती है तो दूसरा स्वाभाविक रूप से आलोचक की भूमिका में चाहे-अनचाहे आ ही जाता है।

राजस्थान में जो कुछ हो रहा है इसे जानने के लिए नेताओं के बयानों की बजाए उनकी राजनीति को देखना ज्यादा जरूरी है। क्योंकि नेताओं के बयानों में पार्टी हित,निष्ठा, जुड़ाव इत्यादि शब्दावलियां सुनाई देती हैं। लेकिन इस पर अमल होता तो क्या वाकई राजस्थान कांग्रेस में ये नौबत आती ..?  राजस्थान के मुख्यमंत्री ने बीजेपी पर सरकार गिराने की साजिश का आरोप लगाया। उधर, बीजेपी इन आरोपों से इंकार करते हुए इसे कांग्रेस का अंतर्विरोध करार दिया। इन आरोप-प्रत्यारोप के परे पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट और 16 विधायक कहां है, इसका जवाब नहीं मिल रहा।

क्या वाकई मध्यप्रदेश की तर्ज पर बीजेपी का दांव लग सकता है ...राजनीति संभावनाओं का खेल है लेकिन फिलहाल इसका जवाब है ' नहीं'  ..क्योंकि बीजेपी का दांव तभी लगेगा जब दो परिस्थितियां होंगी ।


पहला तो यह कि बड़ी तादाद में विधायक अपनी विधानसभा सीट से इस्तीफा देने को तैयार हों,
दूसरी परिस्थिति यह कि कांग्रेस में विधायक दल में इतनी बड़ी टूट हो जाए कि दलबदल काूनन का डर भी दरकिनार हो जाए। 

चलिए दोनों स्थितियों पर जरा तफ्सील से बात करते हैं।


सवाल - क्या विधायक इस्तीफा दे सकते हैं ?

जबाव - (1) राजनीति में पहला कदम बहुत महत्वपूर्ण होता है। पहला कदम, अगले किसी व्यक्ति के लिए इतिहास की नजीर बन जाता है। राजस्थान में पार्टियों में दलृबदल तो बहुत हुआ है, भैरोंसिंह शेखावत, अशोक गहलोत, वसुन्धरा राजे जैसे मुख्यमंत्री पद के दावेदारों के लिए नेताओँ ने अपनी परम्परागत सीटें छोड़ी हैं। लेकिन भविष्य की राजनीति के अंधेरे कुएं में छलांग कर कर किसी भी विधायक ने अपनी विधायकी से इस्तीफा नहीं दिया है। कांग्रेस हो या बीजेपी, राजस्थान के विधायकों को आम तौर पता होता है कि उपर के स्तर पर लड़ रहे नेताओं में किसका समर्थन और विरोध कब और कहां तक करना है। समर्थन भरपूर लीजिए लेकिन बदले में विधायिकी से इस्तीफा कोई नहीं देना चाह रहा। चाहे वो दानिश अबरार हों, चेतन डूडी हों, रामनिवास कावडिया हो, पी.आर.मीणा हों या मुकेश भाकर, इन विधायकों के नाम सिर्फ उदाहरण के लिए हैं, क्योंकि ये युवा हैं। इन्हें टिकट किसी न किसी कद्दावर नेता को बाईपास कर मिली है। अगर विधायकी छोड़ेंगे तो अपने ही क्षेत्र में दर्जन भर नेताओं की जमात में खड़े हो जाएंगे। विधायक का ओहदा, इनके लिए भविष्य की राजनीति का आधार है और ये आधार किसी नेता के पीछे छोड़ने की गलती कोई नहीं करने वाला है। हालांकि पायलट जरूर ये आश्वासन देना चाहेंगे कि सब कुछ ठीक होगा, लेकिन विधायिकी जरा संवेदनशील मामला है । इस पर कोई भी आसानी से फैसला नहीं ले पाएगा। 
 
जबाव - (2)  मध्यप्रदेश में भी यही कहा जा रहा था, लेकिन विधायकों के धडाधड़ इस्तीफे हुए हैं। मगर अब इस्तीफा दे चुके विधायकों को अब फिर चुनाव में उतरना है। जहां  एक तरफ कांग्रेस के कार्यकर्ता और नेता हैं तो दूसरी तरफ बीजेपी के परम्परागत नेता ओर कार्यकर्ता। यानि नई सियासी चुनौतियां, नया फैलाव के बीच नए सिरे से जमावड़ा करना होगा। मध्यप्रदेश की तर्ज पर राजस्थान में ऐसा करना संभव नहीं है क्योंकि यहां पार्टी और जातीय समीकरणों में बंधी राजनीति ऐसा करते हुए बहुत कम नेताओं को स्वीकारती है। राजस्थान में ऐसा कोई नहीं जो एक्रोस द पार्टी लाइन अपने दम पर जीत हासिल कर पाए। डॉ.किरोडीलाल मीणा, विश्वेन्द्र सिंह के बाद काफी हद तक हनुमान बेनिवाल जैसे इक्के-दुक्के नेता ही हैं जो पार्टी लाइन को भी धता बता कर राजनीतिक जोखिम लेते हैं, फिर जीत कर विधानसभा या लोकसभा भी चले जाते हैं।

जबाव - (3) ज्यादातर विधायकों के पास पुश्तैनी राजनीति की विरासत नहीं है। त्रिकोणिय मुकाबले, द्विपक्षीय मुकाबले और जातिय समीकरणों के बदौलत चुनाव जीत कर विधानसभा क्षेत्र में पार्टी का चेहरा बने हैं। विधायक बनने के बाद क्षेत्र की जनता की अपेक्षाएं और कार्यकर्ताओं की उम्मीदों को यकीनन कोई भी नेता पूरी तरह से खरा नहीं उतर पाता। ऐसे में उनके पास एक अदद विधायक का ओहदा ही तो है जिससे वो विधानसभा क्षेत्र में अपना दबदबा और स्वीकार्यता कायम रख सकता है। इसे भी खोकर फिर टिकट के तलबगारों की भीड़ में शामिल कौन होना चाहेगा ? 

जबाव - (4) राजस्थान में  चुनावों के वक्त में जिस तरह से जूतमपैजार और मारामारी की स्थितियां बनती है उससे स्पष्ट है कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही राजनीतिक दलों में व्यक्तिवादी गुट पनपते रहे हैं। ये बात नई नहीं है, हर दौर में राजस्थान की राजनीति में हर नेता ने अपने गुट को आगे रखा था। दिल्ली में दोनों ही पार्टियों के आलाकमान के नेता भी राजस्थान की राजनीति के इस मिजाज जानते हैं। आलाकमान की ओर से काफी हद तक इस रणनीति का पोषण भी किया जाता है। सत्ता के एक नहीं कई ध्रूव होंगे तो आलाकमान की पूछ परक बनी रहे। दूसरी पंक्ति के नेताओं में संतुलन साधने की होड़ चलती रही है। मोहनलाल सुखाड़िया, हरिदेव जोशी, भैरोंसिंह शेखावत,वसुन्धरा राजे और अशोक गहलोत कई बार मुख्यमंत्री बने रहे। विरोध भी हुआ, समर्थन भी हुआ, सत्ता आई थी और गई भी, लेकिन इनका कद हमेशा अपनी जगह बना रहा है या कहें कि अपनी सक्रिय राजनीति के दौर में नेपथ्य में कभी नहीं गए। 

राजस्थान की राजनीति का मिजाज है जहां खींचतान बेइंतहा है लेकिन टूटन या खुले आम विद्रोह की नजीरें बहुत कम है। विधायकों को विधायकी प्रिय रही है, यहां सार्वजनिक छवि को लेकर भी जनप्रतिनिधि बेहद सतर्क रहे हैं और इस मामले में पब्लिक पर्सेप्शन भी बखूबी काम करता है।  यहां हम पार्टी बदलने की बात कर रहे हैं, जनता और कार्यकर्ता तो यह भी नजर रखते हैं कि 'अपना नेता किस गुट के ज्यादा करीब' हो रहा है।

तो इन चार पहलूओं पर गौर करें तो साफ है कि भले ही साजिश हुई हो, एसओजी के ट्रेप में कई विधायक आए भी हों। लेकिन बड़ी तादाद में इस्तीफे देने का दौर शुरू करना फिलहाल संभव नहीं है। अगर आने वाले दौर में  राजनीति ही करनी है तो डेढ़ साल की नई-नवेली विधायकी छोड़ कर, अगले साढ़े तीन साल के लिए अंधे कुएं में छलांग लगाना आसान नहीं। लिहाजा साजिशों से इंकार नहीं लेकिन विधायक बड़े पैमाने पर विधायकी छोड़ने का आत्मघाती कदम उठा लें, इसकी संभावनाएं कम हैं। 

दूसरी परिस्थिति यह कि कांग्रेस में विधायक दल में इतनी बड़ी टूट हो जाए कि दलबदल काूनन भी कारगर न रहे। चलिए, इस बात की भी पड़ताल कर लेते हैं ।  

सरकार और संगठन में मतभेद केवल सतह पर ही नहीं आए बल्कि सतह पार कर, झलकने लगे हैं।  मगर क्या ये असंतोष या सेंधमारी इतनी बड़े स्वरूप में हो सकता है कि एक तिहाई सदस्यों की टूट हो जाए। इस लिहाज से अगर पायलट कैंप 107 की कांग्रेस विधायक दल में से एक तिहाई यानि 36 विधायकों को तोडने में कामयाब हो जाए तो स्थितियां बदल सकती हैं। पायलट कैंप ये दावा तो कर रहा है कि 42 विधायक साथ हैं मगर सब सूत्रों के हवाले से है, एक भी विधायक ने खुल कर पायलट का आंखें बंद कर समर्थन करने की बात नहीं की है। यकीनन, बहुत से विधायकों की सहानूभूति और समर्थन दोनों पायलट के साथ होंगी लेकिन वो तब तक रहेगी जब तक पायलट कांग्रेस में हैं। कांग्रेस से अलग होकर चाहे वो नई पार्टी बनाएं या बीजेपी में शामिल हों, उनके दावे के मुताबिक संख्याबल उन्हें मिल जाए, ऐसी संभावनाएं फिलहाल नहीं लग रही। 

फिर भी एक बारगी मान लिया जाए कि पायलट के साथ एक तिहाई विधायक आ गए और अलग पार्टी बना ली तो हासिल क्या होगा, सरकार को अल्पमत में लाकर गिराया तो जा सकेगा लेकिन इससे आगे की राह कैसे तैयार होगी। क्या नई पार्टी बनाकर सचिन पायलट भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बन पाएंगे ?  क्या राजस्थान बीजेपी के नेता, दूसरी पार्टी से आए व्यक्ति को मुख्यमंत्री बना सकते है।  क्या इससे अलग-अलग गुटों में बंटी प्रदेश भाजपा में नई होड़ नहीं शुरू होगी ?  वो क्यों अपना दावा छोड़ सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाएंगे ? चलिए, एक पहलू और देखते हैं। पायलट सीएम न बने और भारतीय जनता पार्टी को समर्थन दें तो भारतीय जनता पार्टी को कांग्रेस से बगावत कर आए 30 से मूल कांग्रेसी नेताओं को संभालना पड़ेगा। उनकी विधानसभा सीटों में बैठे परम्परागत बीजेपी के नेताओं से उनकी कितनी बनेगी, कितनी नहीं बनेगी ...ये भी नहीं पता। इसलिए बीजेपी के लिए पूरे घटनाक्रम में अपने हित में कांग्रेस के नेताओं को उकसाना तो ठीक है लेकिन कांग्रेस के बागियों को बीजेपी अपने संगठन से जोड़ नहीं सकती। राजस्थान में  बीजेपी केडर बेस पार्टी है, जहां असन्तुष्टों का इस्तेमाल तो संभव है लेकिन शरण देने का फैसला, होम करते हाथ जलाने से कम नहीं है।



तो अब आगे क्या
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दरअसल, राज्यसभा चुनावों में ही तय हो गया था कि ये चिनगारी है जो आगे राजनीतिक आग को और भड़काएगी। राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप से परे अब मामला एसओजी तक जा पहुंचा है। राजस्थान के मुख्यमंत्री का अनुभव इस मर्म को जानता है कि आती-जाती सरकारों और मुख्यमंत्रियों के बीच पुलिस के दस्तावेज नहीं बदले जा सकते। इसीलिए पूरा मामला पुलिसिया जांच के दायरे में लाया गया है। मुख्यमंत्री गहलोत को खुद उसके ही अधीन विभाग के अधिकारी नोटिस कर तलब करते हैं। सचिन पायलट को भी इसी तरह का नोटिस मिल गया, पायलट ने इस बार अपनी नाराजगी के पीछे इस नोटिस को बड़ा कारण बना लिया है। 

इधर, तीन विधायक सुरेश टांक, ओम प्रकाश हुड़ला और खुशवीर सिंह जोजावर पर एफआईआर दर्ज कर मुख्यमंत्री ने बता दिया है कि वो इस मामले में कोई समझौते के मूड में नहीं, पैसो के लेन-देन और साजिश के मामले में भरत मालानी और अशोक चौहान के रूप में दो छोटी मछलियों को पकड़ लिया है। 

यकीकन, बात इससे आगे जाएगी, कई चेहरे बेनकाब होंगे। राजनीति में बॉडी लेग्वेज, बयानों में इस्तेमाल की जा रही भाषा का अलग महत्व है। लोगों ने मुख्यमंत्री की बॉडी लेग्वेज तो देख ली है मगर अब तक सचिन पायलट मीडिया के सामने नहीं आए हैं। सामने आया है तो सिर्फ वॉट्सअप मैसेज जिसमें 30 विधायकों के समर्थन का दावा करते हुए गहलोत सरकार को अल्पमत में बताया गया है और साथ में जानकारी दी गई है कि 13 जुलाई को विधायक दल की बैठक में पायलट शामिल नहीं होंगे। 30 विधायकों का समर्थन का दावा बड़ा है, सूची में किन लोगों के नाम है, समर्थन देने वालों को सामने क्यों नहीं लाया जा रहा, ये सवाल पायलट कैंप से हो रहे हैं। इधर , कांग्रेस विधायक दल में कल कितने विधायक जुटते हैं, इस पर सभी की नजरें टिक गई है। क्योंकि पायलट और गहलोत कैंप में पहला शक्ति परीक्षण का दिन सोमवार यानि 13 जुलाई है। 

इससे आगे की कहानी, कल का घटनाक्रम तय करेगा। दिलचस्प पहलू यह है कि राजस्थान कांग्रेस की राजनीति में इतना कुछ चल रहा है और आलाकमान आश्चर्यजनक रूप से चुप्पी साधे बैठा है। देर शाम कांग्रेस के प्रभारी महासचिव अविनाश पांडे, अजय माकन और रणदीप सिंह सूरजेवाला ने जयपुर डेरा डाल दिया है। लेकिन राहुल गांधी,सोनिया गांधी या प्रियंका गांधी की ओर से न तो कोई बयान आया है और न हीं कोई ट्वीट। पूरे घटनाक्रम से अवगत आलाकमान अब तक चुप क्यों है ? ये चुप्पी संकेत दे रही है कि इस घटनाक्रम की  स्क्रिप्ट पहले से लिख दी गई है। किरदारों को तोला जा रहा है। विधायक दल की बैठक में गहलोत के साथ आलाकमान के प्रतिनिधि हैं, सचिन पायलट के साथ शक्ति प्रदर्शन में खड़े रहने वाले विधायकों की टोह ली जा रही है साथ ही अंदरखाने समझाइश का दौर भी चल रहा है । बीजेपी में भी संशय है कि अगर कांग्रेस को बड़ा नुकसान पहुंचाए बिना पायलट और उनके समर्थन बीजेपी में आना चाहेंगे, उन्हें आने दिया जाए या नहीं, अगर वाकई बड़ा गेम करने में पायलट कामयाब हो जाते हैं तो अपनों की नाराजगी का जोखिम उठाकर भी बीजेपी पायलट को साथ ले लेगी। 

सचिन पायलट की ताकत पार्टी के अंदर है। पार्टी से बगावत का एलान करना बता रहा है कि या तो उनके पास असाधारण संख्याबल है जो विश्वासमत साबित करने तक उनका साथ देगा, या फिर वो सब कुछ खोने के डर से ऐसा दांव खेल चुके हैं जो उन्हें कहीं का न छोड़े । अपने ही जाल में ट्रेप होने और सकुशल निकल आने में बहुत फर्क है।                                                                                                                                            
   
देर रात तक प्रयास चल रहे हैं, संख्याबल न बैठा और अभिषेक मनु सिंघवी जैसे कुछ नेताओं का बीच बचाव काम आया तो हो सकता है कि आखिरी मौका मान कर पायलट भी लौट आएं। 10.30 बजे पार्टी व्हिप जारी कर बैठक बुलाई है। रात 2.30 बजे प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कांग्रेस ने 109 विधायकों की और से मुख्यमंत्री गहलोत को सर्मथन देने का दावा किया जा रहा है।  अपने जयपुर दौरे को नेता सोनिया गांधी का आदेश बता रहे हैं। यानि अब मामला स्पष्ट है, गहलोत या पायलट नहीं, अब बैठक कांग्रेस विधायक दल की है। जिसमें न आने का मतलब आलाकमान के विरुद्ध बगावत होगी। इम्तिहान पायलट की सियासी फ्लाइट का है, या तो क्रेश लैंडिंग, ठहराव या फिर नए आसमान की नईं उंचाइयां...चंद घंटों में ये तय होने वाला है। 

UPDATE - 13.07.2020- Time - 4.30 PM

नया अपडेट - 

पायलट कैंप के तमाम दावे फिलहाल खारिज हो गए क्योंकि अशोक गहलोत ने आलाकमान की नेताओं की मौजूदगी में अपने साथ 109 विधायकों की संख्याबल दिखाकर साबित कर दिया कि राजस्थान कांग्रेस की राजनीति कोई उनका विकल्प नहीं। जब मामला शुरू हुआ था तो गहलोत और पायलट की तकरार माना गया लेकिन जब पटाक्षेप हुआ तो मामला कांग्रेस और पायलट के बीच का हो गया है। कांग्रेस के नाम पर पायलट समर्थक भी गहलोत के नेतृत्व में लौट आए हैं। यह ही उनका सियासी जादू मंतर है तो विरोधियों को छूमतंर करता आया है। हालांकि कांग्रेस आलाकमान अब भी सतर्क है और द्वार खुले रखे हुए हैं क्योंकि पायलट ने भी अब तक न तो एक भी बयान दिया है और न कोई ट्वीट। उनका दावा उनके प्रेस एजवाइजर के एक वॉट्सएप मैसेज के जरिए ही वायरल हुआ है।  सभी विधायकों को एकजुट करने के लिए लंच पॉलिटिक्स चल रही है। इससे आगे का घटनाक्रम आपको अगले ब्लॉग में बताउंगा...तब तक कमेंट बॉक्स में अपनी राय लिखते रहिएगा। शाम को मिलते हैं...नए घटनाक्रम की जानकारी के साथ...




शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

भारत- चीन: कौन बनेगा दक्षिण एशिया का ‘बिग ब्रदर’ ...

भारत- चीनकौन बनेगा दक्षिण एशिया का बिग ब्रदर’ ...
. डोकलाम से लेकर गलवान तक भारत-चीन संबंधों पर विशाल सूर्यकांत की कलम से...


भारत और चीन के बीच चल रहे घटनाक्रम के बीच प्रधानमंत्री मोदी का लेह दौरा भारत की कूटनीति के कई गूढ़ पहूलओं को जाहिर कर रहा है। इस दौरे से पहले और बाद में देश की अंदरूनी राजनीति में उठ रहे सवालों को यकीकन नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। चीन ने कहीं न कहीं हमारी सीमाओं का रूख कर दुस्साहस किया है मगर सवाल ये कि क्या हमनें माकूल जवाब दे दिया है ?  क्या मामला गलवान संघर्ष के बाद विराम की स्थिति में हैं या फिर आगे की इबारत लिखी जा रही है  सीधा सवाल कि क्या भारत चीन से दो-दो हाथ करने को तैयार है गलवान में जो कुछ हुआ है उससे साफ है कि 1962 में भारत से अक्साई चीन हड़पने के बाद अब चीन की नजर लद्दाख के सीमावर्ती उन क्षेत्रों में टिकी हैं जहां भारत अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार कर रहा है। चीन ने बड़े पैमाने पर ऐसे इलाकों में अपना सैन्य जमावड़ा कर रखा है। इरादा साफ है कि भारतीय सीमा क्षेत्र में विकास न होने पाए।

तनाव के इस वक्त में भारत के प्रधानमंत्री के लेह जाने के मायने क्या है ?  क्या ये सिर्फ देश की भावनाओं का मामला है या फिर चीन और पाकिस्तान के खिलाफ कोई मनोवैज्ञानिक दांव खेला जा रहा है । दुनिया के किन्हीं दो देशों के बीच सैन्य संघर्ष हो चुका हो और किसी एक देश का प्रमुख, सीमावर्ती क्षेत्र का दौरा करे तो इसके कई मायने हैं। देशों के बीच कूटनीति में सीमाक्षेत्र एक बेहद संवेदनशील मामला है। चीन को भारत से इतने बड़े प्रतिकार की उम्मीद नहीं थी। वो इस सोच में था कि मामला क्षेत्रीय विवाद तक चला जाए ताकि दो दर्जन से ज्यादा विवादित सीमा क्षेत्रों में कुछ क्षेत्र और जुड़ जाएं, कश्मीर में बनी नई परिस्थितियों में उसका दखल थोड़ा और बढ़ जाए । मगर इस बार भारत ने इसे चीन के विरुद्ध ग्लोबल इश्यू बना दिया।
चीन की बैचेनी का पहला कारण - भारत अब किसी भी सूरत में लद्दाख,गलवान क्षेत्र में अपने कदम पीछे खींचने को तैयार नहीं। गलवान घाटी सामरिक रूप से महत्वपूर्ण है, ये चीन भी जानता है और भारत भी जैसे-जैसे सीमा क्षेत्र में भारत सड़क और पुल नेटवर्क तैयार कर रहा है, वो धीरे-धीरे एलएसी के हिस्सों में हलचल बढा रहा है। अब तक लद्दाख, अरूणाचल प्रदेश, सिक्किम पर दांव लगाने वाले चीन के लिए भारत का नया मिजाज परेशान करने वाला है। अब तक चीन ने जो चाहा वो हुआ है। दुनिया को अपने साहूकारी रूख से बाजार बना देने वाले चीन को भारत के इरादों का अहसास तो डोकलाम में ही हो गया था, लेकिन अब जम्मू-कश्मीर में धारा 370 हटने के बाद से चीन चौकन्ना है। क्योंकि भारत की संसद से लेकर राजनीति में बात  बात पीओके की हो रही है जहां उसका सीपैक प्रोजेक्ट आकार ले रहा है। पीओके साथ अक्साई चीन के हिस्से पर भी भारत मजबूती से दावा जता रहा है। तिब्बत को लेकर भारत का नरम रूख हमेशा से चीन को बैचेन रखता है। गलवान घाटी में संघर्ष के बाद आमने-सामने रखी दोनों देशों की सेना में चर्चा का दौर और दूसरी ओर हालात का जायजा लेने प्रधानमंत्री का दौरा असाधारण सामरिक और कूटनीतिक महत्व रखता है।

चीन की बैचेनी का दूसरा कारण -  भारतीय सैनिक गलवान में चीन की सेना की साजिश से लड़ते हुए शहीद हुए या घायल हुए हैं। उनके शौर्य को भारतीय नेतृत्व और जनता में सम्मान दे रही है। ये काम चीन ने नहीं किया है। सम्मान तो छोड़िए चीन ने ये तक नहीं स्वीकारा है कि भारतीय जवानों के साथ संघर्ष में उसके कितने सैनिक मारे गए हैं। पीएलए के जवानों में इस बात का यकीकन मलाल होगा कि साथियों की मौत का न तो जिक्र है और न ही राजनीतिक नेतृत्व में से कोई उनकी खबर लेने सरहद पर आया है। हालांकि यहां चीन और भारतीय जनमानस के अलग-अलग नजरिये को समझना होगा। अपने पड़ौसी 14 देशों की सीमा विवाद में चीनी सेना उलझन में चीनी जनमानस के लिए ज्यादा बड़ा मुद्दा नहीं बन रहा। लेकिन भारत में ये भावना प्रबल है कि पाकिस्तान की तरह चीन के साथ भी हमारी सेना आंखे तरेर कर बात कर रही है। भारत में ये बात राष्ट्रवाद के नए ज्वार का कारण बन रही है । इससे चीन बौखलाया हुआ है क्योंकि जिस देश के साथ सीमा विवाद के बावजूद पिछले 41 सालों में एक गोली तक नहीं चली, उस देश ने इस बार मुकाबले के लिए मिसाइल, टैंक समेत सब कुछ फ्रंट पर उतार दिया है। देश में किसी भी पार्टी की सरकार रही हो, भारत चीन के मामले में थोड़ा नरम ही रहता आया है लेकिन इस बार हालात बिल्कुल बदलते दिख रहे हैं। हालांकि अभी भी भारत की आक्रामकता पाकिस्तान की तरह सर्जिकल या एयर स्ट्राइक के स्तर पर नहीं है लेकिन मौजूदा तेवर भी चीन को सकते में डालने के लिए काफी हैं। भारत की आक्रामकता ने नक्शे से विवाद खड़ा करने वाले नेपाल को भी फिलहाल सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर वर्चस्व की इस लड़ाई में वो किसके साथ रहे। पाकिस्तान को पीओके की फिक्र सता रही है। भारत का इस वक्त में आक्रामक होना वक्त की जरूरत है। इस वक्त में अगर भारत प्रतिकार न करता तो दक्षिण एशिया के समीकरणों में काफी पीछे छूट जाता।

चीन की बैचेनी का तीसरा कारण - चीन की सरकारी एजेंसी ग्लोबल टाइम्स के लेख बता रहे हैं कि भारत और चीन के बीच चल रहे तनाव के चलते दोनों देशों के बीच कारोबार में इस साल 30 फीसदी की गिरावट आएगी। इन्फ्रास्ट्र्क्चर, कन्ज्यूमर गुड्स, ऑटोमोबाइल, एनर्जी, रियलस्टेट, इलेक्ट्रोनिक गैजेट्स इत्यादि के क्षेत्र में चीन की कंपनियों का भारत में बड़ा कारोबार है। चीन से हम 28 फीसदी आयात करते हैं और बदले में सिर्फ 5 फीसदी चीन को निर्यात कर रहे हैं। यानि भारत के कारोबार कम होने का सीधा असर चीनी कंपनियों पर पड़ेगा। हालांकि इसका नुकसान भारत को भी कम नहीं लेकिन भारत बाजार है और चीन उत्पादक, लिहाजा चीन की कंपनियों को ज्यादा नुकसान होगा। कोरोना संकट से चीन की स्थापित कंपनियों के लिए भारत से सिमटता कारोबार किसी बड़े झटके से कम नहीं, दूसरी ओर भारतीय कंपनियों के साथ अन्य देशों की कंपनियों के लिए भारत से चीनी कंपनियों का सिमटता कारोबार नई संभावनाएं लेकर आएगा। एक बार आदत बदल गई, विकल्प मिल गए तो चायना मार्केट फिर भारत में पनपना मुश्किल होगा।

चीन ने जब-जब यूएन में पाकिस्तान की पैरवी की तब-तब भारत में चाइनीज प्रोडक्ट के बायकॉट की अपील की जाती रही लेकिन इस बार बॉयकाट में भारत और राज्यों की सरकारें फ्रंटफुट पर हैं। भारतीय कंपनियों में निवेश पर सरकार की निगरानी से लेकर हाइवे, रेलवे प्रोजेक्ट्स, महाराष्ट्र में पांच हजार करोड का निवेश, हरियाणा में बिजली क्षेत्र में निवेश, उत्तरप्रदेश में इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश की योजनाओं को खटाई में डालकर भारत ने जो काम किया है वो चीन के लिए अप्रत्याशित है। 

4. चीन की बैचेनी का तीसरा कारण - चीनी नेतृत्व ने 2050 के लिए विजन बनाया कि वो दुनिया की महाशक्ति होंगे। इसी तरीके से चीन ने अपने विस्तारवाद को आकार दिया है। चीन दक्षिण एशिया के समीकरणों को इस रूप में मान रहा था कि भारत और पाकिस्तान उलझे रहेंगे और दक्षिण एशिया का दायरा छोड़ चीन ग्लोबल इकॉनोमी पर फोकस करने लगा था। सिल्क रूट के प्रोजेक्ट पर आगे बढ़ गया। प्राचीन चीनी सभ्यता के व्यापारिक मार्ग को चीन ने आधुनिक दौर में इस तरह विकसित किया है कि रास्ते में आने वाले देश आर्थिक रूप से उसके गुलाम बनते चलें। बड़ा प्रोजक्ट, भारी निवेश कर देश को पहले तो साझेदार बनाना फिर उसकी आर्थिक मजबूरी का फायदा उठाकर संसाधनों पर कब्जा कर लेने की चीन की नीति पुरानी है। इस नीति के दम पर वो ग्लोबल लीडरशिप की ओर बढ़ रहा था। लेकिन भारत का दृढ़ रूख ने उसकी महत्वाकांक्षाओं को दक्षिण एशिया में ही अप्रासंगिक कर सकता है। आर्थिक रूप से भारत अगर चीनी प्रोडक्ट और प्रोजेक्ट्स को छोड़ने में सक्षम है तो चीन को ये किसी सीधी चुनौती से कम नहीं है। टिक-टॉक समेत 59 चाइनीज एप पर बैन के बाद चीन जिस तरह से प्रतिक्रिया दे रहा है, उससे जाहिर है कि भारत का दांव सही दिशा में लगा है।

चीन की बैचेनी का पांचवा कारण - – भारत के रूख ने दुनिया के कुछ देशों की उस धारणा को बदला है कि चीन अजेय है। 14 मुल्कों से सीमा विवाद में उलझ चुका चीन 12 देशों से अपनी बात मनवा चुका है। सीमा विवाद में समझौते की बजाए अपनी धौंस जमाकर जमीन हथियाना चीन की फितरत में शामिल है। भारत अब तक चीन से इस तरह के सीधे विवाद से बचता रहा। अक्साई चीन हाथ से गया, फिर चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया, अरूणाचल प्रदेश पर अपना दावा करता रहा । लेकिन भारत ने संयम बनाए रखकर कूटनीतिक चालें चलता रहा। मसलन, तिब्बत पर खुलकर कुछ नहीं बोला लेकिन दलाई लामा को भारत में राजनीतिक शरण दी गई। पाकिस्तान के साथ आतंकवाद से जूझते हुए भारत ने कभी नहीं चाहा कि वो चीन से भी उसी रूप में उलझे। दक्षिण एशिया में बिग ब्रदर की भूमिका निभाने की मंशा रखते हुए चीन ने एक और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान से साथ निभाया तो दूसरी ओर व्यापारिक रिश्तों को भारत से भी बढ़ाता आया है। चीन से साथ भारत के सीधे टकराव ने अमरिका, जर्मनी, रूस, फ्रांस, आस्ट्रेलिया समेत सभी बड़े देशों को भारत के करीब आने का मौका दे दिया है। दुनिया में चीन की आक्रामकता के आगे भारत की उदारवादी छवि का बहुत अच्छा असर पड़ रहा है। इसीलिए दुनिया के देश चीन की तुलना में भारत को ज्यादा समर्थन देने में सहज हो रहे हैं। भारत का कड़ा प्रतिकार, ऐसे देशों के लिए चीन के विरुद्ध किसी टॉनिक से कम नहीं ।


चीन की बैचेनी का छठां कारण – चीन के बाद भारत ही है तो जनसंख्या,भौगोलिक क्षेत्रफल और विकास के लिहाज से दक्षिण एशिया में उसका मुकाबला कर सकता है। चीन ने पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल और मालदीव से अपने रिश्ते बनाए लेकिन वन टू वन पॉलिसी इस रूप में रही कि चीन की छवि बिगड़ती जा रही है। उदारहरण के लिए ग्वादर पोर्ट से लेकर पीओके के रास्ते चीन तक जाने वाला सीपैक प्रोजेक्ट जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है पाकिस्तान की राजनीति और प्रशासन पर इसकी छाप साफ नजर आ रही है। पाकिस्तान की नीतियों में चीन का दखल बढ़ रहा है। सीपैक के जरिए पाकिस्तान के बीचों-बीच अपनी राहगुजर बना चुका चीन अब अपनी संस्कृति और अपनी आर्थिक शक्ति पाकिस्तान पर थोप रहा है। सीपैक के आस-पास के क्षेत्रों में चीनी मुद्रा युआन को अधिकारिक मान्यता मिल जाना इसकी तस्दीक करती है। कोरोना काल में मेडिकल साजो-सामान को बाकी देशों की तरह पाकिस्तान को भी बेच दिया। पाकिस्तान की मीडिया रिपोर्ट्स में चीनी प्रोडक्ट की जमकर आलोचना हुई और कहा गया कि कोरोना के दौर में भी चीन, चूना लगाने के बाज नहीं आया । यानि पाकिस्तान की आवाम को भी चीन पर भरोसा नहीं है। भूटान, डोकलाम में चीन की मंशा को देख चुका है, लिहाजा वो चीन के साथ जाने को तैयार नहीं। श्रीलंका,मालदीव अगर भारत के साथ खुले रूप में नहीं है तो चीन का भी अंधानुकरण नहीं कर रहे हैं। हां, नेपाल में जरूर कम्यूनिस्ट पार्टी के सत्ता में आने के बाद नीतियों का झुकाव चीन की ओर बढ़ा है। लेकिन नेपाल की भौगौलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विरासत भारत के साथ इस तरह जुड़ी हुई है कि चीन राजनीतिक दखल तो बढ़ा सकता है लेकिन चाह कर भी सांस्कृतिक और सामाजिक जुड़ाव खत्म नहीं कर सकता। नेपाल की राजनीति अगर भारत विरोध पर जा टिकी है तो वहां चीन का विरोध करने वालों की तादाद भी कम नहीं। नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली का हश्र क्या होगा, ये दीवार पर लिखी हुई इबारत की तरह साफ दिख रहा है। पाकिस्तान को छोड़ दें तो भारत ने बांग्लादेश, श्रीलंका और मालदीव समेत सभी देशों से संबंध बनाए हैं। सार्क देशों में पाकिस्तान और दक्षिण एशिया के देशों में चीन के बगैर कोई अंतर्राष्ट्रीय संगठन नहीं था। लेकिन भारत ने हाल के दशक में बिमस्टेक बनाया है जिसमें न पाकिस्तान है और न ही चीन, यानि भारत नई संभावनाएं बना रहा है। चीन से जुड़े विवादों में भारत अब चुप रहने के बजाए आवाज उठा रहा है। अभी ताइवान में नई सरकार के गठन में भारत की ओर से दो सांसद वीडियो कांफ्रेसिंग के जरिए शामिल हुए हैं। चीन ने इसका संज्ञान लिया है।

चीन की बैचेनी का सांतवा कारण -  मानव इतिहास के सबसे घातक वायरस की शुरुआत चीन के बुहान में हुई। चीन पर दुनिया भर के देश समय पर सचेत न करने, लैब में वायरस को तैयार करने और कोराना से निपटने के लिए घटिया उपकरण बेचने के आरोप लगा रहे हैं। दुनिया में चीन को लेकर चिढ़ बढ़ रही है। अमरिका में नवम्बर में चुनाव होने वाले हैं। कोरोना काल में दुनिया के देशों के पास लॉकडाउन के अलावा कोई चारा नहीं बचा, यानि आर्थिक बर्बादी की राह खुद को चुननी पड़ी। दुनिया भर में इस विभिषिका का एक मात्र कारण चीन को बताया जा रहा है। इधर कोरोना के दौर में भी चीन की विस्तारवादी नीतियां न ताइवान को बख्श रही हैं और न ही हांग-कांग में हो रहे विरोध प्रदर्शनों पर गौर कर रही हैं। दक्षिण चीन सागर के देश वियतनाम, मलेशिया, ब्रूनई, देरूसलम, फिलिपींस, ताइवान, स्कार्बोराफ रीफ क्षेत्रों में खासा तनाव है।  दक्षिण चीन सागर में स्पार्टली और पार्सल द्वीपों पर कच्चे तेल की उपलब्धता ने चीन को अपने लिए संभावनाएं नजर आ रही हैं तो दुनिया को विस्तारवाद की नीतियों से बड़ा खतरा दिख रहा है। दुनिया के देश चीन को घेरना चाहते हैं और भारत की सामरिक और भौगोलिक स्थितियां चीन के विरुद्ध आसानी से उपयोग में ली जा सकती है। भारत इन वैश्विक परिस्थितियों को समझकर अपना दांव खेल रहा है । वो चीन के विरुद्ध उन मुद्दों पर भी आक्रामक है जो सीधे रूप में भारत को प्रभावित नहीं करती हैं।
भारत-चीन के बीच जो हो रहा है उसे राजनीतिक चश्मे से मत देखिएगा, क्योंकि ये अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों की देन है। चीन का रूख वही है, बदली हैं तो सिर्फ भारत की परिस्थितियां और दुनिया के समीकरण, जिसमें भारत फिलहाल सबसे मुफीद स्थिति में है। अभी चाइनीज प्रोडक्ट के बॉयकाट की गूंज है लेकिन इससे आगे भारत को चीन बनने की जरूरत है। अपने एमएसएमई सेक्टर को नई दिशा देने की जरूरत है। भारत बड़ा बाजार है, इस  अवधारणा को बदलकर भारत गुणवत्ता पूर्ण सस्ती चीजों का बड़ा उत्पादक देश हैं इस धारणा को प्रबल बनाने की जरूरत है। तभी भारत दक्षिण एशिया ही नहीं बल्कि समूचे पूर्वी दुनिया के देशों की अगुवाई कर सकेगा...

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आपका - विशाल सूर्यकांत, वरिष्ठ पत्रकार 


शुक्रवार, 3 जुलाई 2020

#Rajasthan में हुई बड़ी #bureaucraticsurgery...जानिए, विशाल सूर्यकांत के साथ, #राजस्थान_की_बात


कोरोना से जूझती राजस्थान अर्थव्यवस्था के लिए 'राजीव स्वरूप' वैक्सीन ...

. राजस्थान की आर्थिक सेहत सुधारने का टास्क
. औद्योगिक परियोजनाओं का चेहरा रहे हैं राजीव स्वरूप
. सरकार देगी तीन महीने का एक्सटेंशन
 .डीबी गुप्ता के लिए अगला प्लान है तैयार
. कोरोना काल में काम के लिए रोहित कुमार सिंह को मिला बड़ा जिम्मा
. राजस्थान की ब्यूरोक्रेसी का अगला चेहरा




 - विशाल सूर्यकांत

जयपुर,  कोरोना काल में केन्द्र और राज्य की विपरीत सरकारों की राजनीतिक उलझनों के बीच गहलोत सरकार को मुख्य सचिव के रूप में , एक ऐसे चेहरे की तलाश थी जो केन्द्र की मदद के भरोसे नहीं बल्कि अपनी नीतियों के दम पर राजस्थान की आर्थिक सेहत को सुधारने का माद्दा रखता हो। राजीव स्वरूप के रूप में , सरकार को वो चेहरा मिल गया है। राजीव स्वरूप का राजस्थान के औद्योगिक जगत की नीतियों में लंबा जुड़ाव रहा है।

1985 से लेकर अब तक के कार्यकाल में ज्यादातर वक्त राजीव स्वरूप राजस्थान की अर्थव्यवस्था के जुड़े महकमों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं। मुख्यमंंत्री अशोक गहलोत के करीबी राजीव स्वरूप तब भी उनके लिए प्रासंगिक थे जब देश में पहली बार राजस्थान में रोजगार गारंटी एक्ट बनने के बाद राजस्थान में बनी गहलोत सरकार को इसे प्रभावी रूप से लागू करने की जरूरत थी। 2008 दूसरी बार सरकार में आते ही मुख्यमंत्री गहलोत ने उन्हें रोजगार गारंटी योजना का कमिश्नर बनाया।



इससे पहले 1999 में राजस्थान एडीबी, (राजस्थान अरबन डवलपमेंट) का डायरेक्टर बना कर गहलोत ने राजीव स्वरूप को उनकी क्षमताओं को पहला बड़ा मौका दिया। 2002 में ट्यूरिज्म डवलपमेंट कमिश्नर के रूप में राजीव स्वरूप की भूमिका रही। सरकार बदलने के बाद भी राजीव स्वरूप की भूमिकाएं बदलती रही लेकिन लाइम लाइट के डिपार्टमेंट उनके हिस्से में बने रहे। 2010 में गहलोत सरकार ने उन्हें सूचना और जनसंपर्क विभाग का प्रिसिंपल सेकेट्री बनाकर अपनी पसंद को जगजाहिर कर दिया । उन्हीं के कार्यकाल में गहलोत का ड्रीम प्रोजेक्ट हरिदेव जोशी विश्वविद्यालय बनकर तैयार हुआ था।

2014 के बाद से राजीव स्वरूप का प्रशासनिक अनुभव एमएसएमई,स्टेट इंटरप्राइजेज,एनआरआई, दिल्ली-मुंबई इण्ड्रस्टीयल कॉरीडोर, रीको चेयरमैन, भिवाड़ी इण्ड्रस्ट्रीयल डवलपमेट ऑर्थोरिटी , बीआईपी जैसे टास्क में काम आता रहा ..


2014 से लेकर 2018 तक औद्योगिक विकास के महकमों से जुड़े रहे राजीव स्वरूप को गृह विभाग का जिम्मा मिला हुआ था। लॉक डाउन से पहले, क्राइम कंट्रोल को लेकर गहलोत सरकार पर सवाल खड़े करने का मौका विपक्ष को मिल रहा था लेकिन लॉकडाउन की पालना जिस रूप में राजीव स्वरूप के कार्यकाल में हुई, उससे राजस्थान में कोरोना कंट्रोल में काफी मदद मिली। मुख्यमंत्री के पसंद के अफसरों में से एक राजीव स्वरूप, इस अक्टूबर में रिटायर्ड होने वाले हैं। इधर, तय प्रक्रिया की पालना होती तो डीबी गुप्ता अपने पद पर सितम्बर तक बने रहते। लिहाजा, राजीव स्वरूप को ज्यादा अवसर देने के लिए डीबी गुप्ता को तीन महीने पहले ही पद से हटा दिया गया ।


अब अक्टूबर के अलावा तीन महीने का एक्टेंशन पीरियड राजीव स्वरूप को बतौर गिप्ट मिलेगा...लेकिन उससे पहले उन्हें राजस्थान की अर्थव्यवस्था सुधारने के लिए आमूलचूल फैसले लेने होंगे...उनकी क्षमताओं का राजस्थान के अर्थ जगत को फायदा दिलाना होगा। केन्द्र सरकार की ओर से घोषित 20 लाख करोड के पैकेज में राजस्थान के उद्योग जगत के लिए क्या और कैसे फायदा हो सकता है...इसका एक्शन प्लान बनाकर दिखाना होगा। अपने नजरिए को स्पष्ट रूप से रखना, सही शब्दों का चयन और विचारों में शालीन लेकिन दृढ तरीके से अपनी बात मनवाने की खूबी राजीव स्वरूप में हैं। लोगों के विचारों को विस्तार से सुनने के बजाए, उसमें से मूल प्वांइट्स लेकर अपने विचारों के साथ खुद प्रस्तुत कर देना उनकी खूबी है। लोगों के बिखरे विचारों को अपने स्वरूप में ढ़ाल कर नए रूप में प्रस्तुत कर देना उनका स्टाइल हैऔर लोगों को कन्विंस करने का उनका अपना तरीका भी...

बात रोहित कुमार सिंह की...




शादी की सालगिरह के चौथे दिन बड़ा ओहदा....


रोहित कुमार सिंह, राजस्थान ब्यूरोक्रेसी का वो चेहरा है, जिनकी पोस्टिंग पर आती-जाती सरकारों के शुरूआती दौर में भले ही फर्क पड़ा हो लेकिन सरकार के बीच के दौर में वो प्रासंगिक हो ही जाते हैं। वसुन्धरा राजे सरकार में हुए गुर्जर आंदोलन के मुश्किल वक्त में रोहित कुमार सिंह, अपनी तत्परता दिखाते रहे, सरकार के पक्ष की सूचनाओं को त्वरित गति से मीडिया तक पहुंचाने का उनका अपना तरीका, उस वक्त में फेक न्यूज को रोकने में बेहद कारगर रहा । सूचना और जनसंपर्क आयुक्त के रूप में उनकी भूमिका रही। मौजूदा वक्त में रोहित कुमार सिंह ने कोरोना जैसे मुश्किल वक्त में सरकार के लिए अतिरिक्त मुख्य सचिव, स्वास्थ्य के रूप में बेहद कारगर काम किया। मुख्यमंत्री गहलोत और चिकित्सा मंत्री डॉ.रघु शर्मा के प्रमुख सिपाहेसालार बन रोहित कुमार सिंह, अपनी जिम्मेदारियों के लिए किसी ओर पर निर्भर रहने के बजाए खुद व्यवस्थाएं संंभालने में यकीन रखते हैं। राजस्थान में कोरोना की रिकवरी रेट राजस्थान में सबसे ज्यादा है । इसके लिए व्यवस्थाओं की कमान जिस रूप में संभाली गई है, इसका फायदा रोहित कुमार सिंह को मिला है। लेकिन कोरोना से आगे अब कानून व्यवस्था के लिहाज से सरकार को मजबूती देना बड़ा टारगेट है। ये महकमा सीधे मुख्यमंत्री से जुड़ा है और विपक्ष के निशाने पर भी रहता आया है। कोरोना काल में बेरोजगारी जनित अपराध से लेकर ऑर्गेनाइज्ड क्राइम,माफियातंत्र, करप्शन के मामलों पर सीधी कार्रवाई की जरूरत है। इस लिहाज से रोहित कुमार सिंह पर बड़ी जिम्मेदारी है।   89 बैच के आइएएस रोहित कुमार सिंह के हाथ में अब राजस्थान के गृह विभाग की कमान हैं। ख़ास बात यह है कि उनकी पत्नी नीना सिंह भी 1989 बैच की आईपीएस हैं और फिलहाल एडिशनल डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस ट्रेनिंग के रूप में जिम्मेदारियां संभाल चुकी हैं। उनका किरदार भी लेडी सिंघम से कम नहीं है।  सीबीआई में संयुक्त निदेशक रह चुकी नीना सिंह वो तेज-तर्रार आईपीएस महिला अधिकारी हैं, जिन्होंनें यूपी सरकार ने एनएचआरएम घोटाले का पर्दाफाश किया, छोटा राजन केस को सोल्व किया । अक्टूबर 2015 में मायावती के घर पुलिस भेजकर 10 हजार करोड़ के एनएचआरएम घोटाले का पर्दाफाश कर सूर्खियां बटोरने वाली महिला आइपीएस नीना सिंह को 2015 में पीएम मोदी पुलिस मैडल से सम्मानित कर चुके हैं।


डीबी गुप्ता की बात...


डीबी गुप्ता, राजस्थान के प्रशासनिक तंत्र के वो चेहरे रहे हैं जो राजस्थान की राजनीति में दो धूर विरोधी रहे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और वसुन्धरा राजे, दोनों को साधने में कामयाब रहे। चुनावों के वक्त में जिस रूप में अशोक गहलोत और वसुन्धरा राजे के बीच बयानबाजी का दौर चला, ऐसा लगा कि दोनों की पार्टियां तो हाशिए पर चली गई और अदावत सीधे व्यक्तिगत हो गई। राजनीतिक मंचों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं तो आती-जाती सरकारों में इसकी आंच ब्यूरोक्रेसी पर भी आती है लेकिन डी बी गुप्ता, इस कहानी को बदलने में कामयाब हो गए। दोनों विपरीत दिशा की कार्यशैली के मुख्यमंत्रियों के बदलते दौर का गवाह बने डीबी गुप्ता, अपने रिटायर्डमेंट के तीन महीने पहले ही मुख्य सचिव पद से विदा कर दिए गए हैं। हालांकि डीबी गुप्ता, एन.सी.गोयल से पहले ही सीएस बनने वाले थे, वसुन्धरा राजे सरकार में कर्मचारियों के सातवें वेतनमान को लेकर विरोध की स्थितियों में कई मंत्रियों तक ने उनके फैसलों का विरोध कर दिया था और आखिरी दौर की सरकार के लिए बजट तैयार करने की जिम्मेदारियों के चलते एन.सी.गोयल डीबी गुप्ता को सुपरसीड कर गए। सरकार के कार्यकाल में अभी काफी समय है, डीबी गुप्ता ने इस सरकार में अपनी भूमिका निभा ली है..लिहाजा, रिटायर्डमेंट के बाद भी उनके लिए कई रास्ते खुले रहेंगे, आने वाले समय में किसी न किसी आयोग में उनकी नियुक्ति होना तय है।




राजस्थान में इस साल 25 अफसरों का रिटायर्डमेंट 



राजस्थान की ब्यूरोक्रेसी में बड़े पैमाने पर अनुभवी ब्यूरोक्रेट 2020 में रिटायर्ड हो रहे हैं या हो चुके हैं। डीबी गुप्ता, मुकेश शर्मा,प्रीतम सिंह,राजीव स्वरूप,किरण सोनी गुप्ता,मधुकर गुप्ता,संजय दीक्षित के अलावा कई प्रमोटी आइएएस, कुल मिलाकर 25 आइएएस अधिकारी में रिटायर्ड हो रहे हैं। 84 और85 बैच की पंक्ति में डॉ.उषा शर्मा,रविशंकर श्रीवास्तव के बाद 60 से दशक के बाद जन्मे और 86 बैच के बाद की टीम अलग-अलग सरकारों में बड़ी भूमिकाएं निभा सकती हैं। जिसमें वीणु गुप्ता, सुबोध अग्रवाल,पी.के.गोयल,शुभ्रा सिंह, राजेश्वर सिंह, वैभव गलेरिया,संजय मल्होत्रा,निरंजन आर्य जैसे नाम शामिल हैं। इसके आगे की पीढ़ी भी अलग-अलग वक्त में अपनी जिम्मेदारियां निभा रही है।

शनिवार, 11 अप्रैल 2020

हम इस दुनिया में मध्यम वर्ग कहलाते हैं...


न सरकारी व्यवस्था में लिपिबद्ध...
न राजनीति के वोट बैंक में सूचीबद्ध...
अपने चेहरे पर करारा तमाचा खुद मार
गालों को सूर्ख दिखाने में मशगूल हो जाते हैं ...
हम इस दुनिया में मध्यम वर्ग कहलाते हैं

एपीएल सूची अलग, बीपीएल की अलग
लोकतंत्र में हमारे वोट बंटते अलग-थलग
न राजनीतिक शक्ति, न समस्याओं से मुक्ति
अमीर और गरीब के दो पाटों के बीच फंस जाते हैं
हम इस दुनिया में मध्यम वर्ग कहलाते हैं

ईएमआई, अमीर बनने का टिकट है, इसमें क्या डाउट है
मगर तय है किसी भी वक्त इसी से हिट विकेट आउट हैं
हमें मकान, कार से आगे कहां सपनों की आस है ..?
हम ही वो है जिनकी नजर में अपने बच्चे सबसे खास हैं
पढ़े, मार्शल आर्ट, म्यूजिशियन, डांसर भी बन जाएं
कुल मिलाकर जो हम नहीं कर पाए, इन मासूमों से कराएं
पीढ़ियों से रवायत यही,, हम बच्चों से उम्मीद जताते हैं
हम इस दुनिया में मध्यम वर्ग कहलाते हैं

अक्सर सड़क पर वो जो साहब कहकर बुलाता है
उसे पता है कि जो असल साहेब है कब जवाब देते हैं
ये जो मध्यमवर्ग वाले है, वहीं शनि नाम कुछ देते हैं
हम इस इस दुनिया में मध्यम वर्ग कहलाते हैं ...

रिश्तों की कद्र हमारे घरों में, यही संस्कार कहलाते हैं
मामा, बुआ, मौसी, नानी के किस्से ही तो खास बनाते हैं
घर और नौकरी की उधेडबुन ,सबका विश्वास निभाते हैं
इस फेर में कई दफा न घर के, न घाट के कहलाते हैं
तमाम मुश्किलों के बावजूद देश की तरक्की में
हम मध्यम वर्ग के लोग ही ज्यादा काम आते हैं...

विशाल सूर्यकांत - vishal.suryakant@gmail.com - 9001092499

मंगलवार, 12 जून 2018

सोशल मीडिया : सच बनाम वायरल झूठ की जंग


"मुझे मत मारो... प्लीज़ मुझे मत मारो,,मैं असमिया हूं...मेरा विश्वास करो, मैं सच बोल रहा हूँ....मेरे पिता का नाम गोपाल चंद्र दास है और मां का नाम राधिका दास है...प्लीज़ मुझे जाने दो."

                                                                फोटो - दिवंगत- नीलोत्पल,असम ( भीड़ के हाथों मारा गया शख्स)


- विशाल 'सूर्यकांत'

..बस इन्हीं आखिरी शब्दों के साथ,असम के नीलोत्पल का ये आखिरी वीडियो घूम रहा है। क्योंकि इसके बाद भीड़ ने कुछ नहीं सुना। ...नीलोत्पल और उसके साथी को पीट-पीट कर भीड़ ने मार डाला और फिर सरे राह शवों की बेकद्री की गई।

ये दर्दनाक दास्तान, सोशल मीडिया पर बच्चा चोरी की अफवाह के फेर में, असम में भीड़ के हाथों मारे गए दो निर्दोष युवकों की है। लोग मानते हैं कि सोशल मीडिया सिर्फ हमारी जिंदगी से जुड़ चुका है...मगर भीड़ के हाथों नृशंस हत्याओं के मामले बताते हैं कि सोशल मीडिया,मौत के कारणों से भी जुड़ रहा है। मोबाइल टू मोबाइल डर ,नफरत,हिंसा और एक तरफा नजरिया, परोसा जा रहा है। असम की इस घटना के चंद दिन पहले बैंगलुरू में भी ऐसी ही घटना हुई । राजस्थान के पाली के निमाज गांव का  25 साल का युवक कालूराम मेघवाल बैंगलुरू में भीड़ के हाथों मारा गया। किसी ने कालूराम को बैंगलुरू में एक बच्चे से बात करता देख लिया, बस  एक आदमी का शक,भीड़तंत्र में इस तरह बदला कि लोग एक युवक पर टूट पड़े।

कालूराम को इतना मारा,इतना पीटा और घसीटा गया कि जान चली गई। यहां भी जानलेवा पिटाई का वीडियो बनाया गया। बच्चा चोरी की ये अफवाह कैसे बैंगलुरू और असम तक पहुंची ये जानने और समझने का कोई सिस्टम सरकार के पास नहीं है। बैंगलुरू और असम की घटनाओं के वीडियो न जाने कितने सालों तक घूमते रहेंगे हमारे समाज में..?  न जाने कौन कब इसे हिन्दू-मुस्लिम का एंगल देकर वायरल करेगा, कौन इसे दलित-सवर्ण बताएगा और न जाने कौन इसे उत्तर भारतीय-दक्षिण भारतीय या नॉर्थ ईस्ट की तकरार का रंग डाल कर परोसेगा, किसी को नहीं पता।  ये नृशंस हत्याएं न जाने, किस शक्ल में फिर लौटेंगी क्योंकि ये कंटेट,वीडियो देश के करोड़ों मोबाइल में सेव हो चुका है। आज,कल या पता नहीं...दस सालों बाद, कोई सरफिरा ये जूनन फिर फैलाएगा और हमारे बच्चे, सिर्फ अफवाह और शक की बिनाह पर,अपने ही लोगों के हाथों इसी तरह मारे जाते रहेंगे।

सोचिए जरा, सोशल मीडिया के जरिए कैसा समाज तैयार कर रहे हैं हम ? सोशल कनेक्टिविटी के नाम पर बनें एप्स, समाज को तोड़ने का जरिया बनते जा रहे हैं। हमारे लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलते जा रहे हैं।

राजस्थान के राजसमंद में शंभू रैगर ने किस तरह अफराजुल नाम के शख्स की नृशंस हत्या की,कैसे शव को जलाया और इसके बाद कैसे राष्ट्र के नाम संबोधन दिया, देश के करोड़ों मोबाइल में ये वीभत्स वीडियो उस वक्त वायरल हुआ और आज भी सेव होगा।  शंभू रैगर जोधपुर जेल में बंद है,फिर भी उसके वीडियो मैसेज वायरल हो रहे हैं ।  देश में कहीं न कहीं, किसी कोने में नया शंभू रैगर तैयार करने के समर्थन में या अफराजुल की मौत का बदला लेने वाले मैसेज यकीनन वायरल हो रहे होंगे। देश में ऐसे एक दो नहीं बल्कि कई मामले हैं।  कथित गोरक्षकों का न्याय,दलित अत्याचार,पश्चिम बंगाल में हिन्दूओं पर अत्याचार की तस्वीरें, सीरिया में जुल्म,रोहिंग्या का जुल्म, राम मंदिर, कश्मीर की पत्थरबाजी, अरब में अपराधी को फांसी के फंदे पर लटका कर जनता के सामने न्याय, यूपी के किसी शहर में मोहर्रम के जुलुस पर हिन्दुओं पथराव, राम नवमीं के धार्मिक जूलुस पर मुस्लिमों का पथराव, गुरमीत राम रहीम से लेकर आसाराम समर्थक और विरोधियों का टकराव, किसी मासूम बच्ची से बलात्कार, किसी युवती को ब्लैकमेल कर वीडियो तैयार कर वायरल करना, नेताओं के बयानों में आलू से सोना बनाने की फैक्ट्री से लेकर पानी में करंट निकाल देने वाले बयान और उस पर साइन्टिस्ट गहलोत जैसे जुमलों का ट्रेडिंग में आना। राजनीति से लेकर नफरत तक सब कुछ  घर बैठे आपके मोबाइल पर परोसा जा रहा है। कहीं  उन्माद है तो कहीं उपहास, लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रुप में स्वच्छंदता परोसी जा रही है।


सोशल मीडिया के अनगिनत फायदे हैं मगर कायदे भी टूटते जा रहे हैं। सोशल मीडिया पर युवाओं की सक्रियता को देखकर देश में मानों एक फेक इण्डस्ट्री तैयार हो चुकी है। जो सोशल मीडिया पर सभी तरह का कंटेट परोस रही है। अभिव्यक्ति की आजादी का मामला है तो आईटी कानून को छोड़कर सोशल मीडिया के लिए न तो कोई पुख्ता नियम है, न ही कोई सेंसरशिप। कोई सामाजिकता बंधन नहीं न कोई बंदिश। सब कुछ कहने और ओरों को फॉर्वर्ड करने का खुला मंच है सोशल मीडिया..। संदर्भ देश के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की फेक फोटो वायरल करने से जु़ड़ रहा है। कौन हैं जो लोग ऐसा कर रहे हैं..? राजनीतिक मैसेज वायरल होते हैं और नेताओं से इसके बारे में पूछिएगा तो अक्सर जबाव आएगा कि "ये तो जनभावनाएं है,जनता स्वेच्छा से कर रही है" ..। सोशल मीडिया यूजर से पूछिए तो कहेंगें कि भई,डेमोक्रेसी है,हमारी अभिव्यक्ति की आजादी है। पुलिस से पूछिए तो कहेंगे कि बताइए कौन मैसेज फैला रहा है, अभी तुरंत उठाकर अंदर किए देते हैं। यानि हम सोशल मीडिया को ऐसा माध्यम बना चुके हैं जिसके कंटेट पर अतिवादी हो चले हैं। जी हां,अतिवादी...या तो अति सहज या अति संवेदनशील...

वर्चुअल वर्ल्ड का नाम है लेकिन हम वर्चुअल को एक्चुअल वर्ल्ड मान बैठे हैं। जिस तेजी से आइडिया आता है,उससे कई गुना तेजी से वायरल हो जाता है। वाकिया होने के बाद पता चलता है कि मामला जिसे सहजता से ले रहे थे वो तो अतिसंवेदनशील हो गया, किसी शहर में अराजकता फैल गई,फसाद हो गया या कोई नामी शख्सियत का फेक कंटेट पर जबर्दस्त ट्रोल हो गया। दरअसल,सहज और संवेदनशीलता के बीच समझदारी का रास्ता न सरकारों ने बनाया और न ही हमारी सोसायटी अपना रही है। सस्ते होते मोबाइल और डेटा के कारोबार ने देश ने अभिव्यक्ति की आजादी में वाकई क्रांति ला दी है और इस क्रांति की आड़ में फेक और आपत्तिजनक कंटेट,फोटो की फेक इण्डस्ट्री भी तैयार हो चुकी है। फेक इण्डस्ट्री का नतीजा ये कि लोगों के लिए मानहानिकारक,चरित्रहनन से लेकर जानलेवा तक साबित हो रहा है।


लोकतंत्र की सुविधा कैसे दुविधा ये बन जाती है इसका उदाहरण भी लीजिए,अगर आप कंटेट पर सख्ती करेंगे तो पुलिस,प्रशासन की अतिवादिता सामने आ जाती है। सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक कंटेंट या तंज कसने भर का मामला अगर सत्ता के ईर्द-गिर्द बैठे लोगों के खिलाफ तो पुलिस की अतिसक्रियता सामने आ जाती है। कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को याद कीजिएगा या शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे के निधन पर दो दिन के राजकीय अवकाश पर सवाल उठाने वाली मुंबई की दो बच्चियों पर हुई कार्रवाई को याद कर लीजिएगा। ये तो सिर्फ उदाहरण है,ऐसे कई मामले हैं जिनमें कौन 'एंटी सोशल एलीमेंट्स' है, ये सत्ता और रसूखदारों के हिसाब से पुलिस तय करने लगती है और अगर कार्रवाई न हो तो देश के प्रधानमंत्री,पूर्व प्रधानमंत्री,राष्ट्रपति,पूर्व राष्ट्रपति के फोटो की भी मॉर्फिंग होकर गलत कंटेट और इनफोर्मेंशन भी चल पड़ती है।


 राष्ट्रपिता महात्मा गांधी या देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू,सोनिया गांधी राहुल गांधी या आडवाणी और प्रधानमंत्री मोदी जैसी शख्सियतों का चरित्र हनन,मान-मर्दन कर रोज वायरल हो रहा है। व्यक्ति ही नहीं संस्थाएं भी नकारी जा रही हैं।  मीडिया को भांड, बिकाऊ मीडिया कहना, जजों को  बिकाऊ,राष्ट्रवादी,गैरराष्ट्रवादी कहने तक में गुरेज नहीं।  जज या  पत्रकार, सरकार, पुलिस, नौकरशाही कोई ऐसी संस्था नहीं है जिस पर अविश्वास को बढ़ाने वाली टिप्पणियां न हो रही हों, कंटेट वायरल न हो रहे हों। ऐसी टिप्पणियां हो रही हैं, जिसमें गोया हर शख्स, हर संस्था, हर सरकार अविश्वास के अतिरेक की चुनौती से रुबरू है।


यकीकन, लोकतंत्र है कुछ भी कहा जा सकता है, कुछ भी लिखा जा सकता है लेकिन आने वाली नस्लों में जाने-अनजाने हम देश की संस्थाओं के प्रति 'आशावाद' को  खत्म कर रहे हैं। आने वाली नस्ले, एक-दूसरे को कोसती हुई, उपहास करती हुई पैदा करने जा रहे हैं हम। जो सुधार नहीं बल्कि मोबाइल पर खामियों को गिनाती हुई बड़बड़ाती रहेगी। क्योंकि न्याय और विश्वास के सारे प्रतिमान तो हम तब तक ध्वस्त कर चुके होंगे। चंद गलत उदाहरण और खामियां होंगी मगर आप परसेप्शन ही अगर गलत बना लीजिएगा तो कहां और किससे उम्मीद बचेगी ?  नेताओंं के खिलाफ टिप्पणी तो लोकतंत्र में फिर भी एक हद तक स्वीकारी जा सकती है, मगर धर्म विशेष को लेकर कंटेट तैयार कर वायरल होना इस देश में आम घटनाओं में शामिल हो चुका है। अभी कैराना में नव निर्वाचित सांसद तबस्सुम ने सांसद बनते ही पहला मामला ये दर्ज करवाया है कि उनकी जीत के बाद कुछ लोगों ने राम पर अल्लाह की जीत का मैसज बनाकर वायरल कर ड़ाला है। इसी तरह इस्लाम और राम पर कोई मैसेज अचानक वायरल हो जाता है।


सोशल मीडिया का आर्थिक पहलू 

समस्या कितनी बड़ी है ये आर्थिक पहलू से भी समझ लीजिए। आर्थिक मामलों की संस्था आईसीआरआईईआर (ICRIER) की एक स्टडी का उदाहरण दे रहा हूं। भारत में सोशल मीडिया और इंटरनेट कोई कंटेट वायरल होते ही साम्प्रदायिक तनाव और कानून-व्यवस्था का मुद्दा बन जाता है। पुलिस,प्रशासन को इंटरनेट शटडाउन के सिवाय कोई रास्ता नहीं सूझता। 2012 से 2015 तक की स्टडी में सामने आया कि भारत में 'नेटबंदी' के चलते साल 2012 से 2015 तक 3 बिलियन डॉलर का अनुमानित घाटा हुआ। साल 2012 से साल 2017 के दौरान भारत में 16,315 घंटे के इंटरनेट शटडाउन की इकोनॉमी में कुल लागत 3.04 बिलियन डॉलर रही है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 12,615 घंटे के मोबाइल इंटरनेट शट डाउन की भारतीय अर्थव्यवस्था को कुल लागत लगभग 2.37 अरब अमेरिकी डॉलर थी और वहीं 3,700 घंटे के लिए मोबाइल एवं फिक्स्ड लाइन इंटरनेट के शटडाउन से भारतीय अर्थव्यवस्था को साल 2012 से 2017 के दौरान 678.4 मिलियन डॉलर का नुकसान हुआ।


मामूली तनाव से लेकर राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के मामले में जिस तेजी से पुलिस-प्रशासन इंटरनेट बंदी का फैसला ले लेते हैं, वो भारत की डिजीटल इंडिया मुहिम को भी करारा आर्थिक तमाचा जड़ रहा है। ऐसे मामलों से देश की छवि का क्या बन रही है ? तस्वीर का एक और रुख आप यूनेस्को की रिपोर्ट में देखिए 'दक्षिण-एशियाई प्रेस फ्रीडम रिपोर्ट 2017-18 में यूनेस्को की ओर से जारी रिपोर्ट के मुताबिक दक्षिणी एशियाई देशों में इंटरनेट बैन के कुल 97 मामले सामने आए हैं जिनमें से 82 मामले अकेले भारत में हैं। जबकि पाकिस्तान में सिर्फ 12 मामले हैं। भारत के इन 82 मामलों में आधे से ज्यादा मामले कश्मीर घाटी में सामने आए हैं। जहां सेना ने आतंकवादी गतिविधियों के चलते कई शहरों में लगातार इंटरनेट बैन करने का निर्णय लिया। पिछले साल घाटी में आतंकवदी और अन्य नागरिकों के मारे जाने के बाद होने वाले दंगों पर लगाम लगाने के लिए कई बार इंटरनेट बैन किया गया। कश्मीर का मामला वाकई राष्ट्र से जुड़ा हुआ है, ये समझ में आता है लेकिन क्या राजस्थान,बिहार,पश्चिम बंगाल,पंजाब,हरियाणा जैसे राज्यों में कश्मीर जैसा संकट होता है।


ये सवाल इसीलिए क्योंकि सबसे ज्यादा इंटरनेट बैन वाले राज्यों में इन राज्यों का नाम भी शामिल है। वीभत्स वीडियो,फोटो और कंटेट पर उदासीनता बरतना अाश्चर्यजनक सहजता के उदाहरण हैं और मामूली तनाव की स्थिति में इंटरनेट बैन जैसे ब्रम्हास्त्र का उपयोग हमारे सिस्टम की अति संवेदनशीलता को उजागर कर रहा है। सोशल मीडिया अब मनोरंजन और सोशल कनेक्टिविटी नहीं बल्कि ओपनियन मेकिंग यानि मत निर्माण का प्रभावी टूल बन चुका है। मगर न देश की संसद में कोई सवाल, न विधानसभाओं में इस पर कोई चिंता सामने आई है। देश में जितनी विविधता है उतनी ही विशालता भी है लेकिन वायरल कंटेट दोनों दायरों को लांघता हुआ चंद मिनटों में उत्तर,दक्षिण,पूरब,पश्चिम का सफर तय कर रहा है। कोई रोकने वाली एजेंसी नहीं,कोई टोकने वाले लोग नहीं। देश के पूर्व प्रधानमंत्री से लेकर मौजूदा तक पूर्व राष्ट्रपति से लेकर मौजूदा राष्ट्रपति तक सब ट्रोलिंग और फेक न्यूज के दायरे में है...। सरकारी सिस्टम कार्रवाई के मामले में या तो अतिवादी है या अति सहज...

तो फिर क्या होना चाहिए ..? 

ऐसा नहीं कि सोशल मीडिया की सिर्फ स्याह तस्वीर ही है, यकीकन वीवीआईपी कल्चर वाले इस देश में आम आदमी को सेलेब्रिटी बनने का हक सरकारों ने नहीं बल्कि सोशल मीडिया ने ही दिया है। देश के दूर-दराज में बैठा युवा सीधे पीएमओ से जुड़ रहा है। सरकार के काम-काज सोशल मीडिया के जरिए निपटाए जा रहे हैं। देश की रेल सेवाओं में खामियों का मुद्दा हो या विदेश में फंसे भारतीय की दास्तान...देश में सोशल मीडिया ने कई मामलों में कमाल कर रखा है।

1. इसका उपयोग पर पाबंदी लगाना कतई जायज नहीं...लेकिन फेक कंटेट,फोटो शॉप,मॉर्फिंग से ओपनियन बनाने और बिगाड़ने की प्रवृत्ति बंद होनी चाहिए। इसमें पहल आम जनता की नहीं बल्कि राजनीतिक दलों को करनी है। अपने-अपने आईटी सेल को सख्त निर्देश दे कि योजनाओं का प्रचार-प्रसार खूब करें लेकिन किसी विरोधी की छवि बिगाड़ने या झूठे कंटेट को वायरल न करें।

 2.  सरकारों की छोड़िए, आप खुद तय कीजिए कि आपकी ओर से सोसायटी को, दोस्तों ऐसे मैसेज नहीं भेजे जो धर्म,सम्प्रदाय पर चोट करते हों, देश के एक कोने में हुई घटना देश की समस्या नहीं है। इसे आप भी समझें और अपने बच्चों को भी बताएं कि वायरल मैसेज और भीड़तंत्र से देश नहीं चलाया जा सकता। सरकार,राजनीतिक दल,मीडिया,न्यायपालिका,कार्यपालिका पर टिप्पणी करना अलग बात है लेकिन उनके वजूद को नकारने की कोशिश का मतलब  लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं में अविश्वास जगाना है। अगर आप जिम्मेदार ओहदे पर है, सामाजिक प्रतिष्ठापूर्ण भूमिका में हैं, तो विशेष रुप से ध्यान रखें कि कौनसा मैसेज आगे फॉर्वर्ड करना है और कौनसा रोकना है। याद रखिए, आपसे समाज सीख रहा है।

3. एक सुझाव है ये भी है कि जब सब कुछ आधार पर निर्भर हो चला है तो क्यों न फेसबुक,वॉट्सएप को निर्देशित किया जाए कि देश के सभी सोशल मीडिया अकाउंट फेरिफाइड ही हों।

4.  ऐसी व्यवस्था हो जिसमें आपके मोबाइल पर मैसेज आने के साथ ही सबसे पहले मैसेज भेजने वाले या यानि कंटेट क्रिएटर का नाम और नंबर चस्पा हो। अगर ऐसा करेंगे कि तो एक फायदा ये भी होगा कि सोशल मीडिया अच्छे क्रिएटिव लोगों को उनकी वाजिब पहचान भी मिलेगी।


5. सबसे अहम बात ये कि सरकार ये तय करे कि देश में वो ही चेटिंग एप्स और सोशल मीडिया चलेंगी जिनके सर्वर देश में ही हो। ताकि संकट के समय हमें विदेश में बैठे ऑपरेटर्स से गुहार न लगानी पड़े। मुझे यकीन है कि दुनिया का कोई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म,चेटिंग एप इतनी बड़ी आबादी और यूजर्स वाले देश की सरकार के इन फैसलों को मानने से इंकार कर पाएगा...। सोशल मीडिया लोगों को जोड़ता है या नहीं, ये अलग बहस हो सकती है। लेकिन इस बहस की आड़ में समाज में विभेद, टकराव और अविश्वास की कोशिशों को कतई स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए...

बुधवार, 31 जनवरी 2018

#Budget वोट बैंक की उम्मीदों वाला या आर्थिक मजबूती वाला....जेटली के पिटारे से कैसा निकलेगा बजट ?

 बजट सत्र में 'वोट बैंक' खातों में घोषणाएं भरेगी मोदी सरकार ...!!!


 - विशाल 'सूर्यकांत'

प्रधानमंत्री के खास सिपाहेसालार और देश के वित्त मंत्री अरुण जेटली के लिए ये मौक़ा किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं...। वजह कई हैं मसलन, 2018 -2019 का बजट,मोदी सरकार के इस कार्यकाल का आखिरी पूर्ण बजट होगा। इस माहौल में मोदी सरकार को वोट बैंक भी साधना है और देश की तरक्की के लिए मजबूत आर्थिक फैसले भी लेने हैं। प्रधानमंत्री मोदी जरुर संकेत दे चुके हैं कि जरुरी नहीं कि देश को लोक लुभावन बजट मिले। लेकिन राजनीतिक परिस्थितियां ऐसी है कि वोट बैंक के खातों में मोदी सरकार को कुछ न कुछ राजनीतिक वादे और घोषणाएं भरनी होंगी। वित्त मंत्री अरुण जेटली जो बजट लाएंगे वो देश में जीएसटी लागू होने के बाद का पहला बजट होगा और सरकार का आखिरी संपूर्ण बजट। चुनौती ये भी है कि 2018 में आठ राज्यों में चुनाव होने हैं और ज्यादातर राज्य बीजेपी या एडीए शासित सरकारों वाले हैं। अगर बजट लुभावना नहीं हुआ तो यहां वोट बैंक को साधने में मुश्किल होगी। इस बजट और बजट सत्र में राजनीति रुप से मोदी सरकार को कुछ वोट बैंक के खातों को भरना होगा। कुछ अहम तबकों के लिए, बड़ी घोषणाएं करनी होंगी। आइए आपको बताते हैं कौनसे है वो वोटबैंक के खाते, जिनमें घोषणाएं और वादे भरने हैं मोदी सरकार को...



वोट बैंक खाता नंबर -1

आम उपभोक्ता, छोटे व्यापारियों की आस

वोट बैंक का पहला खाता आम उपभोक्ता,गृहस्थ और छोटे व्यापारियों का है। जीएसटी लागू होने के बाद,आम गृहस्थ के लिए अब महंगा,सस्ता की कोई अलग से फेहरिस्त नहीं आने वाली है। जीएसटी में सब कुछ समाहित है इसीलिए अलग-अलग वस्तुओं पर राहत, रियायत या टैक्स की अलग से कोई घोषणा नहीं होगी। एक्साइज जैसे तमाम इनडायरेक्ट टैक्स जीएसटी काउंसिल के हवाले हैं,इसलिए जेटली के बजट में ज्यादा कुछ करने की गुंजाइश नहीं। लेकिन पेट्रोल और डीजल के आसमान छूते दाम,रसोई गैस के दाम आसमान छूते रहे हैं। क्या इन्हें जीएसटी में शामिल किया जाएगा ? इस पर सभी की नजर रहेगी...सरकार की परेशानी ये है कि जीएसटी को लेकर कोई भी फैसला जीएसटी काउंसिल में होता है और डीजल,पेट्रोल पर राज्य सरकारें हैवी टैक्स कलेक्शन का हथियार केन्द्र को देने के लिए तैयार नहीं। बिना आम सहमति के ये काम हो नहीं सकता लेकिन पेट्रोल के रोज बढ़ते दामों पर आम जनता मोदी सरकार की ओर आस भरी नजर से देख रही है। ये काम मोदी सरकार के लिए अग्निपरीक्षा से कम नहीं।



वोट बैंक खाता नंबर -2

 नौकरी पेशा,बेरोजगार तबका  
मोदी सरकार के लिए इस बार के बजट में दूसरा बड़ा इम्तिहान, नौकरीपेशा और बेरोजगार तबका होगा। देश में तेजी से सर्विस सेक्टर बढ़ रहा है। वो बजट में सीधे रुप से दो चीजें बारिकी से देखेंगे कि इनकम टैक्स के स्लैब,पीएफ की दरों को लेकर मोदी सरकार अपने आखिरी पूर्ण बजट में क्या सौगात देने जा रही है। अगर इस दिशा में कुछ काम नहीं हुआ तो नौकरीपेशा तबका ना-उम्मीद हो सकता है,क्योंकि इसके बाद इस कार्यकाल में सरकार को ऐसा दूसरा मौका नहीं मिलने वाला। दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है रोजगार के अवसर पैदा करना। मोदी सरकार का मैक इन इंडिया कन्सेप्ट फिलहाल करिश्मा नहीं दिखा पाया है। इस पहलू को आप नकार नहीं सकते कि नोटबंदी, जीएसटी ने रोजगार की व्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया और रोजगार के मामले में मोदी सरकार अपने चुनावी वायदे के मुताबिक अब तक परफोर्म नहीं कर पाई है। आखिरी बजट में रोजगार सृजन की योजना क्या तैयार होगी और कैसे एक साल की अवधि में अमल में लाया जाएगा, ये दूसरी बडी अग्निपरीक्षा होगी क्योंकि पिछले चुनावों में, ये तबका मोदी सरकार के लिए पुख्ता वोटबैंक बना था।




वोट बैंक खाता नंबर -3
खेती और किसान

मोदी सरकार, सत्ता में आने के बाद जिस मुद्दे पर सबसे ज्यादा घिरी है वो खेती और किसानी है। भूमि अधिग्रहण से लेकर किसानों की कर्ज़ माफ़ी की मांग छाई रही। किसान आत्महत्या के मामले आते रहे हैं और राज्यों में किसान आंदोलन प्रभावी तरीके से उठे हैं। बीजेपी ने अपनी प्रयोगशाला कहे जाने वाले गुजरात में विधानसभा चुनावों के दौरान ग्रामीण अंचल में अपना जनाधार खोया और चंद सीटों के फासले पर सरकार बना पाई। मध्यप्रदेश,महाराष्ट्र,राजस्थान,तमिलनाडू समेत कई राज्यों में किसान आंदोलन की आंच हिंसक हुई।  सरकारी आंकड़ों के जरिए उजली तस्वीर बनाने की कोशिश हुई, किसान आंदोलन में विपक्षी पार्टियों पर आरोप लगाकर
सरकार अपना बचाव करती आई है लेकिन आखिरी पूर्ण बजट में किसानों के लिए क्या होगा, ये देखने लायक बात होगी। ख़ासकर तब जब मोदी सरकार 2022 में किसानों की आमदनी दोगुनी करने का वादा करती आई है। कांग्रेस यूपीए टू में किसानों का देशव्यापी 72 हजार करोड़ कर्ज माफ कर चुकी है। मोदी सरकार के दौर में 19 राज्यों में बीजेपी की सरकार है और किसानों को राहत देने के मामले में हर राज्य ने अपनी राजनीति के मुताबिक निर्णय किए हैं। ये बजट ऐसा होगा जिसमें केन्द्र सरकार की किसानों के प्रति खुली मंशा सामने आएगी। मोदी सरकार को किसान और ग्रामीण विकास की योजनाओं पर आखिरी बजट में जरूर कुछ करना होगा। ताकि शहरी और अमीर तबके की पार्टी के दुष्प्रचार का जवाब दिया जा सके। ये मुद्दा भी सरकार के लिए बड़ी अग्निपरीक्षा है।



वोट बैंक खाता नंबर - 4

महिलाओं की स्थिति

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी महिलाओं में खासे लोकप्रिय हैं। लेकिन देश में तीस सालों बाद आई पूर्ण बहुमत की सरकार ने महिला आरक्षण बिल को लेकर कोई पहल नहीं की है। प्रधानमंत्री मोदी महिला वोट बैंक को साधने का जतन करते रहे है। रसोई गैस को लेकर चलाई गई उज्जवला योजना की भी ब्रांडिंग भी महिलाओं को केन्द्र में रखते हुए की गई है। निर्भया फंड में राशि का उपयोग ही नहीं हो पाना भी महिला सुरक्षा को सरकारों की गंभीरता पर सवाल खड़े करता आया है।महिला स्वयं सहायता समूह, महिलाओं की आर्थिक समृद्धि के लिए मोदी सरकार को इस बजट में कुछ न कुछ ज़रूर देना होगा। ट्रिपल तलाक पर मुस्लिम महिलाओं को राहत देने का कदम उठाया लेकिन मुस्लिम महिलाओं के लिए फंड बनाए जाने की मांग सरकार के सामने उठती रही है। ट्रिपल तलाक की शिकार महिलाओं के भरण-पोषण को लेकर बजट में क्या सरकार क्या कुछ कहती है। सभी की नजर इस पर भी टिकी होगी।

वोट बैंक खाता नंबर -5


कोर इश्यू पॉलिटिक्स
2018 -2019 का आम बजट राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है। बीजेपी राम मंदिर,ट्रिपल तलाक,धारा 370,कॉमन सिविल कोड जैसे मुद्दों पर कोर्ट में मामले चलते रहे हैं लेकिन मोदी सरकार अब तक सीधे कुछ करने से बचती रही है। ट्रिपल तलाक में कुछ पहल की है लेकिन मामला राज्यसभा में जाकर अटक गया है।  मोदी सरकार का 2019 के चुनाव से पहले मोदी सरकार का यह आखिरी पूर्ण बजट सत्र है। जेटली के बजट में भले कुछ हो न हो लेकिन इस बजट सत्र में मोदी सरकार को अपने कोर इश्यू वाले पॉलिटिकल मुद्दो पर पहल करनी होगी। अप्रेल में राज्यसभा  की तस्वीर कुछ बदलने वाली है। राज्यसभा में 55 सदस्यों का कार्यकाल खत्म होगा। देश में बीजेपी और यूपीए शासित ज्यादातर राज्यों में राज्यसभा की सीटें रिक्त होने वाली है।  यूपी,हरियाणा,मध्यप्रदेश, राजस्थान,हिमाचल प्रदेश आंध्रप्रदेश,कर्नाटक,गुजरात, छत्तीसगढ़,बिहार,हिमाचल प्रदेश,ओडिसा की सीटों के बाद राज्यसभा में हर हाल में बीजेपी अपने समीकरण साधना चाहेगी। ताकि कोर इश्यू पर मोदी सरकार बड़े राजनीतिक फैसले ले सके। हाल ही में कुछ चैनल्स को दिए इंटरव्यू में, मन की बात में  खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहल की और देश में राष्ट्रपति अभिभाषण में दूसरा मौका था जब एक देश,एक चुनाव को लेकर मोदी सरकार की सक्रियता सामने आई। अगर ऐसा है तो ये भी संभावनाएं है कि 2019 की बजाए 2018 मे या उसके तुरंत बाद आम चुनाव हो जाएं। ऐसे में कोर पॉलिटिकल इश्यू वाले वोट बैंक के खाते में भी मोदी सरकार को इस बजट सत्र में कुछ न कुछ देना होगा

मंगलवार, 30 जनवरी 2018

क्या सच में बच्चों के लिए 'हानिकारक' बापू बन रहे हैं 'बाप' ..! घरेलू हिंसा के शिकार बच्चों की दास्तान..जरूर पढ़ें ...

       'बचपन' पर घरेलू हिंसा करते 'हानिकारक बापू '...!!!

 

- विशाल 'सूर्यकांत'

बचपन,अगर घर में महफूज़ नहीं होगा,तो और कहां होगा..? लेकिन आज का दौर ऐसा होने नहीं दे रहा।  चाहे-अनचाहे देश में अपने ही घरों में बच्चों के विरुद्ध 'घरेलू हिंसा' हो रही है। ताजा मामला राजस्थान के राजसमंद जिले में देवगढ़ थाना 'फूंकिया की थड़' गांव का है। यहां एक घर के भीतर बच्चों पर जुल्म का वीडियो वायरल हुआ है। दो मासूम बच्चों को,उनका पिता सिर्फ इसीलिए खूंटी से बांधकर पीट रहा है क्योंकि बच्चे मना करने के बावजूद बच्चे मिट्टी खाते थे और जहां-तहां गंदगी कर बैठते थे। बच्चों के चाचा ने वीडियो बनाया और वायरल कर दिया। मामला उठा तो पुलिस कार्रवाई हुई। बच्चों को पीटने वाला पिता गिरफ्तार हुआ, चाचा भी कार्रवाई की जद में आया। इस घटना की तरह ऐसा ही एक और मामला बेंगलूरु में भी सामने आया। 

 

देश के दो अलग-अलग मामले और घटनाक्रम एक जैसे ...। आप राजसमंद में बच्चों के साथ हुई मारपीट का पूरा 'वीडियो' देखें तो यकीकन सिंहर जाएंगे।  लेकिन बच्चों की मां,अब भी इसे सहज मामला बता कर पति पर कोई कार्रवाई नहीं चाहती। वो कह रही है - 'एक-दो थप्पड़ ही तो जड़े थे'। बच्चों पर घर में ही हो रही मारपीट के के मामलों में भारतीय परिवारों में  'मां' की क्या स्थिति होगी, ये अलग से समझाने की जरुरत नहीं। राजसमंद मामले में महिला आयोग के पंचायत स्तरीय सदस्यों ने मामला दर्ज करवाया तब पुलिस कार्रवाई हुई। गांव के लोगों का कहना है कि इन बच्चों का पिता, बच्चों के साथ ऐसे ही आदतन मारपीट करता रहा है। गांव के कुछ लोगों ने पुलिस को इसकी खबर भी की, लेकिन तब पुलिस वालों ने सुना नहीं, जब जब देश में ये वीडियो फैल गया तब पुलिस वालों को लगा कि कार्रवाई होनी चाहिए।

दरअसल, बच्चों के लिए 'हानिकारक बापू' के मामले नए नहीं है। देश में बच्चे, घरेलू हिंसा के शिकार होते रहे हैं। ये दीगर बात है कि इसका कोई ऑफिशियल आंकड़ा तब ही रिकॉर्ड होता है, जब शिकायत दर्ज होती है। गंभीर बात यह है कि आम तौर पर  परिवारों में बच्चों के साथ मारपीट को सामान्य रूप से लिया जाता है। ये धारणा बन गई है कि  बच्चों के साथ सख्ती न हो, तो वो बिगड़ जाते हैं। लाड़-प्यार के साथ थोड़ा डर बहुत जरूरी है। लेकिन 'डर' का दौर बढ़ता जा रहा है और घर वालों को ये अहसास तक नहीं कि उनके अपने बच्चे,अपने ही परिवार में, अपनों के ही हाथों, जाने-अनजाने 'घरेलू हिंसा' झेल रहे हैं। ये भी सच है कि देश में बच्चों के साथ घर में 'बुरे बर्ताव' का हर मामला,  राजसमंद या बेंगलुरु की तरह क्रूर और हिंसक हो लेकिन घर में किसी बच्चे की  उपेक्षा या उससे ज्यादा अपेक्षा हो या फिर बेटा-बेटी में फर्क या किसी एक पर अतिरिक्त दायित्व बोध थोपा जाए, बच्चों को अनावश्यक डर और धमकी भरे मिजाज का सामना करना पड़े। या फिर बच्चों के प्रति गैर जरूरी सख्ती बरती जाए, ये भी मामला घरेलू हिंसा से जुड़ता है।

अगर बच्चों को वक्त नहीं देते हैं तो भी आप जाने-अनजाने बच्चों को घरेलू हिंसा का शिकार बना बैठते हैं। बच्चों के कोमल मन पर ऐसा है कि जिस्मानी चोट से ज्यादा मन की चोट ज्यादा घातक होती है। क्योंकि मन की चोट, सोच और नजरिया बदल कर रख सकती है।

इस पहलू से देखें तो भारत में औसतन घरों में बचपन उस स्थिति में नहीं हैं, जिस स्थिति में होना चाहिए। अच्छी पेरेन्टिंग के लिए हमारा समाज,हमारे परिवार, अभी भी तैयार नहीं और न सरकारें देश की नई पीढ़ी के लिए सचेत है।

चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट्स डॉ.अखिलेश जैन के मुताबिक ऐसे बच्चे, जो घर में शारीरिक,मानसिक प्रताड़ना के शिकार होते हैं वो आगे चल कर या तो बहुत निम्न आत्मविश्वास और कमजोर निर्णय क्षमता के साथ जीते हैं या फिर परिवार के प्रति दुराव इतना हो जाता है कि वो समाज में भी सहज नहीं रह पाते और अापराधिक मामलों में लिप्त हो सकते हैं। जिन घरों में बच्चे प्रताड़ना के शिकार होते हैं,उन बच्चों के डीएनए तक में इसका प्रभाव रहता है। देश में वाकई ऐसे मामले बढ़ रहे हैं। 

एनसीआरबी के सरकारी आंकडे बताते हैं कि देश में हर घंटे एक बच्चा आत्महत्या कर रहा है। 2011 से 2015 के बीच पांच सालों में देश भर में करीब 40 हजार बच्चों ने आत्महत्या कर ली। क्या इसके पीछे घरेलू परिस्थितियों को आप नकार सकते हैं ? बच्चों के बर्ताव से जुड़ा दूसरा पहलू देखिए, देश में बाल अपराध की संख्या में तेजी से इज़ाफ़ा हो रहा है। चाहे चर्चित निर्भया मामला हो या दिल्ली के एक निजी स्कूल में साथी की हत्या का मामला, गंभीर मामलों में किशोर बच्चों के शामिल होने की घटनाएं बढ़ रही हैं। बाल अपराध के मामले इतने गंभीर माने गए कि देश की संसद में भी नए 'जुवेनाइल कानून' पारित किया गया जिसमें गंभीर अपराधों के मामले में 16 से 18 साल की उम्र के नाबालिग को वयस्क मान कर मुकदमा चलाने की मंजूरी दी है। चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट की राय में बच्चों के अतिवादी बर्ताव में घरेलू कारण सबसे प्रमुख है। निर्धन परिवारों के बच्चों की समस्याएं अलग और मध्यमवर्गीय परिवारों में कहानी अलग...आज के दौर की चुनौती है घर में मां-बाप,डिजीटल और वर्चुअल,सोशल मीडिया में  मशगुल हैं और बच्चे घर में अकेले हो चले हैं। अक्सर मां-बाप अगर परेशान हैं, तो उनके वक्ती गुस्से का खामियाजा अक्सर बच्चों पर ही निकल जाया करता है।  सवाल ये है कि क्या मां-बाप होने की जिम्मेदारी का मतलब बच्चों के साथ मारपीट का अधिकार है ? क्या हम अपनी उम्मीदों की गठरी, अपने बच्चों के सिर रखकर चलते हैं ? क्यों हम ये मान कर चलते हैं कि बच्चा दुनिया में आए और पैदा होते ही हमारी उम्मीदों पूरा करने का जरिया बन जाए ? आपकी तरक्की और आपकी जरूरतों की राह में  बच्चों का, मासूम बचपन पीछे छूट रहा है। घर के अलावा कहीं और ज्यादा वक्त बीतता है तो वो स्कूल है मगर यहां भी हालात कहां अलग हैं ?

देश में करीब 10 करोड़ बच्चे स्कूल का रास्ता नहीं जानते जबकि देश में शिक्षा का अधिकार लागू है। जो स्कूल जाते हैं वो कहां और कौनसा बचपन जीते है ? हमारे एजुकेशन सिस्टम में प्रोफेशनल अप्रोच के नाम पर टीचर और स्टूडेंट्स के संबंधों के मायने बदल चुके हैं। सरकारी सिस्टम में सुधार के नाम पर नए प्रयोग ही चलते आए हैं और निजी संस्थानों में  'टास्क बेस्ड टीचर्स' हैं। ज्यादातर टीचर्स के लिए अच्छा होमवर्क  और रिजल्ट देने वाले और न देने वालों की केटेगरी में बच्चे बंटते जा रहे हैं। फिर बस्तों का बोझ ऐसा कि मानों  पूरा स्कूल कंधे पर टांग दिया हो। स्कूल से  कुछ राहत मिली तो कोचिंग की टेंशन शुरु..। बचपन से उसका 'मलंग' अंदाज और 'बेफिक्री' छिन लेंगे तो कहां और कैसे बचपन सुरक्षित रह गया बच्चों का ?

 देश में बचपन की ही बात हो रही है तो ये आंकड़ा भी जान लीजिए कि कुपोषण से हर साल दस लाख से ज्यादा बच्चों की मौतें हो जाती है भारत में 5 साल से कम आयु के 21 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। 1998-2002 के बीच भारत में बाल कुपोषण 17.1 प्रतिशत था, विकसित होते भारत में 2012 से 2016 के दौरान बच्चों में कुपोषण के मामले बढ़कर 21 प्रतिशत हो गए। चाहे वो गरीबी हो,अज्ञानता हो या अनदेखी वजह हो, लेकिन हमारे बच्चे कुपोषण का दंश झेल रहे हैं। देश के कई हिस्सों में बच्चों की कुल आबादी का आधा हिस्सा बाल मजदूर है। देश में 5 से 18 साल की उम्र के तीन करोड तीस लाख से ज्यादा बच्चे बाल-मजदूरी कर रहे हैं। इन आंकड़ों को देखें तो लगता है कि बच्चों का बचपन हम बड़ों ने अपने जीवन से भी ज्यादा 'दुरुह' बना लिया है। देश में बचपन के सामने कई चुनौतियां खड़ी हैं। 

 

बचपन के सामने चुनौतियां घर और बाहर कम नहीं। आज भी बड़ी आबादी बच्चों को अस्पताल तक नहीं आने देती। घरेलू नुस्खों से इलाज या अंधविश्वासी तरीके अजमाए जाते हैं। बेटी हो तो इलाज के खर्च में हाथ रोकने की अमानवीय परिपाटी पीढ़ियों से चली आई और आज नया भारत बनाने की घोषणाओं में भी तस्वीर नहीं बदली है।  राजस्थान को ही लीजिए यहां कई हिस्सों में निमोनिया जैसी बीमारी का इलाज बच्चों को गर्म सलाखों से दाग कर किया जाता है। भीलवाड़ा और राजसमंद में ऐसे एक नहीं कई मामले हैं। बनेड़ा में दो साल की मासूम बच्ची पुष्पा को निमोनिया होने पर इतना दागा गया कि दर्द से तड़पते हुए उसकी सांसे टूट गई। तीन महीने की परी को निमोनिया हुआ तो आधा दर्जन जगहों पर गर्म सलाखें चिपका दी गई। 

कहने तो बच्चों का बचपन का हक़ दिलाने सरकारी सिस्टम में 'बाल-अधिकार संरक्षण आयोग' बने हैं, सरकारी विभाग भी काम कर रहे हैं मगर 'आती-जाती' सरकारों में सिस्टम जबावदेह कहां बन पाया है ? बाल आयोगों में राजनीतिक दखल भी कम नहीं। राजनीतिक नियुक्तियों की भरमार वाले आयोग में जब बच्चों के विरुद्ध अपराध को सवाल पूछे जाते हैं तो जबाव किसी सरकारी संस्था की मानिंद ही आता है। इन संस्थाओं का व्यावहारिक पक्ष है,राजनीतिक स्थितियों के मुताबिक इन संस्थाओं का असर घटता-बढ़ता रहता है।

देश में बच्चे परेशान हैं क्योंकि हमनें बचपन की परिभाषा बदल दी है। राजसमंद की ये घटना भारतीय परिवारों में बच्चों की स्थिति पर सोचने के लिए मजबूर करती है कि क्या अपने ही घर में असुरक्षित होता जा रहा है बचपन ? कौन है इन परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार ?

सबसे जरुरी बात ये कि हमनें बच्चों की देख-रेख,बच्चों की परवरिश को पूरी तरह 'पारिवारिक मामला' बना रखा है। विकसित देशों में सरकारें मॉनिटर करती है कि घर में बच्चे के साथ क्या सलूक होता है...हमें ये बात अजीब लगती है कि बच्चों को कैसे रखना है ये कोई सरकार कैसे सीखा सकती है ? मगर नार्वे की घटना को याद कीजिए जिसमें एक भारतीय दंपत्ति से  बच्चा इसीलिए नार्वे की सरकार ने छीन लिया क्योंकि वहां के नियमों के मुताबिक वो उसके सोने के लिए अलग से व्यवस्था नहीं कर रहे थे।  भारतीय समाज में बच्चों के लालन-पालन का 'अपना विशिष्ट चलन' है। सरकारें ज्यादा दखल नहीं दे सकती । भारत में भी बच्चे के कानूनी हक़ तो गर्भ में आते ही शुरु हो जाते हैं और घरेलू हिंसा समेत बाकी सारे मामले तो दुनिया में आने के बाद की समस्याएं है। देश में बाल अधिकार संरक्षण के पुख्ता कानून हैं पर कार्रवाई की कोई नजीर लोगों को याद नहीं।

दरअसल, मासूम बच्चे वोटर नहीं, इसीलिए 18 साल से पहले उनकी सुध लेना जनप्रतिनिधियों को भी नहीं सुहाता। संसद, विधानसभा में बच्चों के मामले में कुपोषण से मौत के मामले गूंजते हैं या फिर बेरोजगारी पर शोर-शराबा,हंगामा होता है। मगर इन दो मसलों के बीच एक बच्चा किन चुनौतियों को पार कर बचपन बीता रहा है, कैसे बड़ा हो रहा है ? ये पहलू राजनीतिक दलों को मुद्दा नहीं लगते। 

 

बच्चों की घरेलू हिंसा और प्रताड़ना का मुद्दा, न सामाजिक मंच पर सामने आता है और न ही धर्म,जाति की जटिलताओं में मुद्दे खोजती राजनीति इस ओर झांकती है। ये बात आखिर में जरुर रेखांकित की जानी चाहिए कि ऐसा नहीं है कि भारतीय परिवारों को बच्चों से प्यार नहीं, मुद्दा सिर्फ हम बच्चों के लिए भविष्य की दुनिया आज बनना चाहते हैं जबकि बचपन को चाहिए, अपने दौर की अपनी दुनिया । 

परवरिश के लिए जरुरी नहीं कि बच्चों को अपनी बनाई दुनिया में खींच लाएं, कभी आप भी बच्चों की दुनिया में चले जाया कीजिए.  

 

 -  विशाल 'सूर्यकांत'

  पत्रकार, लेखक

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