शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

भारत- चीन: कौन बनेगा दक्षिण एशिया का ‘बिग ब्रदर’ ...

भारत- चीनकौन बनेगा दक्षिण एशिया का बिग ब्रदर’ ...
. डोकलाम से लेकर गलवान तक भारत-चीन संबंधों पर विशाल सूर्यकांत की कलम से...


भारत और चीन के बीच चल रहे घटनाक्रम के बीच प्रधानमंत्री मोदी का लेह दौरा भारत की कूटनीति के कई गूढ़ पहूलओं को जाहिर कर रहा है। इस दौरे से पहले और बाद में देश की अंदरूनी राजनीति में उठ रहे सवालों को यकीकन नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। चीन ने कहीं न कहीं हमारी सीमाओं का रूख कर दुस्साहस किया है मगर सवाल ये कि क्या हमनें माकूल जवाब दे दिया है ?  क्या मामला गलवान संघर्ष के बाद विराम की स्थिति में हैं या फिर आगे की इबारत लिखी जा रही है  सीधा सवाल कि क्या भारत चीन से दो-दो हाथ करने को तैयार है गलवान में जो कुछ हुआ है उससे साफ है कि 1962 में भारत से अक्साई चीन हड़पने के बाद अब चीन की नजर लद्दाख के सीमावर्ती उन क्षेत्रों में टिकी हैं जहां भारत अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार कर रहा है। चीन ने बड़े पैमाने पर ऐसे इलाकों में अपना सैन्य जमावड़ा कर रखा है। इरादा साफ है कि भारतीय सीमा क्षेत्र में विकास न होने पाए।

तनाव के इस वक्त में भारत के प्रधानमंत्री के लेह जाने के मायने क्या है ?  क्या ये सिर्फ देश की भावनाओं का मामला है या फिर चीन और पाकिस्तान के खिलाफ कोई मनोवैज्ञानिक दांव खेला जा रहा है । दुनिया के किन्हीं दो देशों के बीच सैन्य संघर्ष हो चुका हो और किसी एक देश का प्रमुख, सीमावर्ती क्षेत्र का दौरा करे तो इसके कई मायने हैं। देशों के बीच कूटनीति में सीमाक्षेत्र एक बेहद संवेदनशील मामला है। चीन को भारत से इतने बड़े प्रतिकार की उम्मीद नहीं थी। वो इस सोच में था कि मामला क्षेत्रीय विवाद तक चला जाए ताकि दो दर्जन से ज्यादा विवादित सीमा क्षेत्रों में कुछ क्षेत्र और जुड़ जाएं, कश्मीर में बनी नई परिस्थितियों में उसका दखल थोड़ा और बढ़ जाए । मगर इस बार भारत ने इसे चीन के विरुद्ध ग्लोबल इश्यू बना दिया।
चीन की बैचेनी का पहला कारण - भारत अब किसी भी सूरत में लद्दाख,गलवान क्षेत्र में अपने कदम पीछे खींचने को तैयार नहीं। गलवान घाटी सामरिक रूप से महत्वपूर्ण है, ये चीन भी जानता है और भारत भी जैसे-जैसे सीमा क्षेत्र में भारत सड़क और पुल नेटवर्क तैयार कर रहा है, वो धीरे-धीरे एलएसी के हिस्सों में हलचल बढा रहा है। अब तक लद्दाख, अरूणाचल प्रदेश, सिक्किम पर दांव लगाने वाले चीन के लिए भारत का नया मिजाज परेशान करने वाला है। अब तक चीन ने जो चाहा वो हुआ है। दुनिया को अपने साहूकारी रूख से बाजार बना देने वाले चीन को भारत के इरादों का अहसास तो डोकलाम में ही हो गया था, लेकिन अब जम्मू-कश्मीर में धारा 370 हटने के बाद से चीन चौकन्ना है। क्योंकि भारत की संसद से लेकर राजनीति में बात  बात पीओके की हो रही है जहां उसका सीपैक प्रोजेक्ट आकार ले रहा है। पीओके साथ अक्साई चीन के हिस्से पर भी भारत मजबूती से दावा जता रहा है। तिब्बत को लेकर भारत का नरम रूख हमेशा से चीन को बैचेन रखता है। गलवान घाटी में संघर्ष के बाद आमने-सामने रखी दोनों देशों की सेना में चर्चा का दौर और दूसरी ओर हालात का जायजा लेने प्रधानमंत्री का दौरा असाधारण सामरिक और कूटनीतिक महत्व रखता है।

चीन की बैचेनी का दूसरा कारण -  भारतीय सैनिक गलवान में चीन की सेना की साजिश से लड़ते हुए शहीद हुए या घायल हुए हैं। उनके शौर्य को भारतीय नेतृत्व और जनता में सम्मान दे रही है। ये काम चीन ने नहीं किया है। सम्मान तो छोड़िए चीन ने ये तक नहीं स्वीकारा है कि भारतीय जवानों के साथ संघर्ष में उसके कितने सैनिक मारे गए हैं। पीएलए के जवानों में इस बात का यकीकन मलाल होगा कि साथियों की मौत का न तो जिक्र है और न ही राजनीतिक नेतृत्व में से कोई उनकी खबर लेने सरहद पर आया है। हालांकि यहां चीन और भारतीय जनमानस के अलग-अलग नजरिये को समझना होगा। अपने पड़ौसी 14 देशों की सीमा विवाद में चीनी सेना उलझन में चीनी जनमानस के लिए ज्यादा बड़ा मुद्दा नहीं बन रहा। लेकिन भारत में ये भावना प्रबल है कि पाकिस्तान की तरह चीन के साथ भी हमारी सेना आंखे तरेर कर बात कर रही है। भारत में ये बात राष्ट्रवाद के नए ज्वार का कारण बन रही है । इससे चीन बौखलाया हुआ है क्योंकि जिस देश के साथ सीमा विवाद के बावजूद पिछले 41 सालों में एक गोली तक नहीं चली, उस देश ने इस बार मुकाबले के लिए मिसाइल, टैंक समेत सब कुछ फ्रंट पर उतार दिया है। देश में किसी भी पार्टी की सरकार रही हो, भारत चीन के मामले में थोड़ा नरम ही रहता आया है लेकिन इस बार हालात बिल्कुल बदलते दिख रहे हैं। हालांकि अभी भी भारत की आक्रामकता पाकिस्तान की तरह सर्जिकल या एयर स्ट्राइक के स्तर पर नहीं है लेकिन मौजूदा तेवर भी चीन को सकते में डालने के लिए काफी हैं। भारत की आक्रामकता ने नक्शे से विवाद खड़ा करने वाले नेपाल को भी फिलहाल सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर वर्चस्व की इस लड़ाई में वो किसके साथ रहे। पाकिस्तान को पीओके की फिक्र सता रही है। भारत का इस वक्त में आक्रामक होना वक्त की जरूरत है। इस वक्त में अगर भारत प्रतिकार न करता तो दक्षिण एशिया के समीकरणों में काफी पीछे छूट जाता।

चीन की बैचेनी का तीसरा कारण - चीन की सरकारी एजेंसी ग्लोबल टाइम्स के लेख बता रहे हैं कि भारत और चीन के बीच चल रहे तनाव के चलते दोनों देशों के बीच कारोबार में इस साल 30 फीसदी की गिरावट आएगी। इन्फ्रास्ट्र्क्चर, कन्ज्यूमर गुड्स, ऑटोमोबाइल, एनर्जी, रियलस्टेट, इलेक्ट्रोनिक गैजेट्स इत्यादि के क्षेत्र में चीन की कंपनियों का भारत में बड़ा कारोबार है। चीन से हम 28 फीसदी आयात करते हैं और बदले में सिर्फ 5 फीसदी चीन को निर्यात कर रहे हैं। यानि भारत के कारोबार कम होने का सीधा असर चीनी कंपनियों पर पड़ेगा। हालांकि इसका नुकसान भारत को भी कम नहीं लेकिन भारत बाजार है और चीन उत्पादक, लिहाजा चीन की कंपनियों को ज्यादा नुकसान होगा। कोरोना संकट से चीन की स्थापित कंपनियों के लिए भारत से सिमटता कारोबार किसी बड़े झटके से कम नहीं, दूसरी ओर भारतीय कंपनियों के साथ अन्य देशों की कंपनियों के लिए भारत से चीनी कंपनियों का सिमटता कारोबार नई संभावनाएं लेकर आएगा। एक बार आदत बदल गई, विकल्प मिल गए तो चायना मार्केट फिर भारत में पनपना मुश्किल होगा।

चीन ने जब-जब यूएन में पाकिस्तान की पैरवी की तब-तब भारत में चाइनीज प्रोडक्ट के बायकॉट की अपील की जाती रही लेकिन इस बार बॉयकाट में भारत और राज्यों की सरकारें फ्रंटफुट पर हैं। भारतीय कंपनियों में निवेश पर सरकार की निगरानी से लेकर हाइवे, रेलवे प्रोजेक्ट्स, महाराष्ट्र में पांच हजार करोड का निवेश, हरियाणा में बिजली क्षेत्र में निवेश, उत्तरप्रदेश में इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश की योजनाओं को खटाई में डालकर भारत ने जो काम किया है वो चीन के लिए अप्रत्याशित है। 

4. चीन की बैचेनी का तीसरा कारण - चीनी नेतृत्व ने 2050 के लिए विजन बनाया कि वो दुनिया की महाशक्ति होंगे। इसी तरीके से चीन ने अपने विस्तारवाद को आकार दिया है। चीन दक्षिण एशिया के समीकरणों को इस रूप में मान रहा था कि भारत और पाकिस्तान उलझे रहेंगे और दक्षिण एशिया का दायरा छोड़ चीन ग्लोबल इकॉनोमी पर फोकस करने लगा था। सिल्क रूट के प्रोजेक्ट पर आगे बढ़ गया। प्राचीन चीनी सभ्यता के व्यापारिक मार्ग को चीन ने आधुनिक दौर में इस तरह विकसित किया है कि रास्ते में आने वाले देश आर्थिक रूप से उसके गुलाम बनते चलें। बड़ा प्रोजक्ट, भारी निवेश कर देश को पहले तो साझेदार बनाना फिर उसकी आर्थिक मजबूरी का फायदा उठाकर संसाधनों पर कब्जा कर लेने की चीन की नीति पुरानी है। इस नीति के दम पर वो ग्लोबल लीडरशिप की ओर बढ़ रहा था। लेकिन भारत का दृढ़ रूख ने उसकी महत्वाकांक्षाओं को दक्षिण एशिया में ही अप्रासंगिक कर सकता है। आर्थिक रूप से भारत अगर चीनी प्रोडक्ट और प्रोजेक्ट्स को छोड़ने में सक्षम है तो चीन को ये किसी सीधी चुनौती से कम नहीं है। टिक-टॉक समेत 59 चाइनीज एप पर बैन के बाद चीन जिस तरह से प्रतिक्रिया दे रहा है, उससे जाहिर है कि भारत का दांव सही दिशा में लगा है।

चीन की बैचेनी का पांचवा कारण - – भारत के रूख ने दुनिया के कुछ देशों की उस धारणा को बदला है कि चीन अजेय है। 14 मुल्कों से सीमा विवाद में उलझ चुका चीन 12 देशों से अपनी बात मनवा चुका है। सीमा विवाद में समझौते की बजाए अपनी धौंस जमाकर जमीन हथियाना चीन की फितरत में शामिल है। भारत अब तक चीन से इस तरह के सीधे विवाद से बचता रहा। अक्साई चीन हाथ से गया, फिर चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया, अरूणाचल प्रदेश पर अपना दावा करता रहा । लेकिन भारत ने संयम बनाए रखकर कूटनीतिक चालें चलता रहा। मसलन, तिब्बत पर खुलकर कुछ नहीं बोला लेकिन दलाई लामा को भारत में राजनीतिक शरण दी गई। पाकिस्तान के साथ आतंकवाद से जूझते हुए भारत ने कभी नहीं चाहा कि वो चीन से भी उसी रूप में उलझे। दक्षिण एशिया में बिग ब्रदर की भूमिका निभाने की मंशा रखते हुए चीन ने एक और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान से साथ निभाया तो दूसरी ओर व्यापारिक रिश्तों को भारत से भी बढ़ाता आया है। चीन से साथ भारत के सीधे टकराव ने अमरिका, जर्मनी, रूस, फ्रांस, आस्ट्रेलिया समेत सभी बड़े देशों को भारत के करीब आने का मौका दे दिया है। दुनिया में चीन की आक्रामकता के आगे भारत की उदारवादी छवि का बहुत अच्छा असर पड़ रहा है। इसीलिए दुनिया के देश चीन की तुलना में भारत को ज्यादा समर्थन देने में सहज हो रहे हैं। भारत का कड़ा प्रतिकार, ऐसे देशों के लिए चीन के विरुद्ध किसी टॉनिक से कम नहीं ।


चीन की बैचेनी का छठां कारण – चीन के बाद भारत ही है तो जनसंख्या,भौगोलिक क्षेत्रफल और विकास के लिहाज से दक्षिण एशिया में उसका मुकाबला कर सकता है। चीन ने पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल और मालदीव से अपने रिश्ते बनाए लेकिन वन टू वन पॉलिसी इस रूप में रही कि चीन की छवि बिगड़ती जा रही है। उदारहरण के लिए ग्वादर पोर्ट से लेकर पीओके के रास्ते चीन तक जाने वाला सीपैक प्रोजेक्ट जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है पाकिस्तान की राजनीति और प्रशासन पर इसकी छाप साफ नजर आ रही है। पाकिस्तान की नीतियों में चीन का दखल बढ़ रहा है। सीपैक के जरिए पाकिस्तान के बीचों-बीच अपनी राहगुजर बना चुका चीन अब अपनी संस्कृति और अपनी आर्थिक शक्ति पाकिस्तान पर थोप रहा है। सीपैक के आस-पास के क्षेत्रों में चीनी मुद्रा युआन को अधिकारिक मान्यता मिल जाना इसकी तस्दीक करती है। कोरोना काल में मेडिकल साजो-सामान को बाकी देशों की तरह पाकिस्तान को भी बेच दिया। पाकिस्तान की मीडिया रिपोर्ट्स में चीनी प्रोडक्ट की जमकर आलोचना हुई और कहा गया कि कोरोना के दौर में भी चीन, चूना लगाने के बाज नहीं आया । यानि पाकिस्तान की आवाम को भी चीन पर भरोसा नहीं है। भूटान, डोकलाम में चीन की मंशा को देख चुका है, लिहाजा वो चीन के साथ जाने को तैयार नहीं। श्रीलंका,मालदीव अगर भारत के साथ खुले रूप में नहीं है तो चीन का भी अंधानुकरण नहीं कर रहे हैं। हां, नेपाल में जरूर कम्यूनिस्ट पार्टी के सत्ता में आने के बाद नीतियों का झुकाव चीन की ओर बढ़ा है। लेकिन नेपाल की भौगौलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विरासत भारत के साथ इस तरह जुड़ी हुई है कि चीन राजनीतिक दखल तो बढ़ा सकता है लेकिन चाह कर भी सांस्कृतिक और सामाजिक जुड़ाव खत्म नहीं कर सकता। नेपाल की राजनीति अगर भारत विरोध पर जा टिकी है तो वहां चीन का विरोध करने वालों की तादाद भी कम नहीं। नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली का हश्र क्या होगा, ये दीवार पर लिखी हुई इबारत की तरह साफ दिख रहा है। पाकिस्तान को छोड़ दें तो भारत ने बांग्लादेश, श्रीलंका और मालदीव समेत सभी देशों से संबंध बनाए हैं। सार्क देशों में पाकिस्तान और दक्षिण एशिया के देशों में चीन के बगैर कोई अंतर्राष्ट्रीय संगठन नहीं था। लेकिन भारत ने हाल के दशक में बिमस्टेक बनाया है जिसमें न पाकिस्तान है और न ही चीन, यानि भारत नई संभावनाएं बना रहा है। चीन से जुड़े विवादों में भारत अब चुप रहने के बजाए आवाज उठा रहा है। अभी ताइवान में नई सरकार के गठन में भारत की ओर से दो सांसद वीडियो कांफ्रेसिंग के जरिए शामिल हुए हैं। चीन ने इसका संज्ञान लिया है।

चीन की बैचेनी का सांतवा कारण -  मानव इतिहास के सबसे घातक वायरस की शुरुआत चीन के बुहान में हुई। चीन पर दुनिया भर के देश समय पर सचेत न करने, लैब में वायरस को तैयार करने और कोराना से निपटने के लिए घटिया उपकरण बेचने के आरोप लगा रहे हैं। दुनिया में चीन को लेकर चिढ़ बढ़ रही है। अमरिका में नवम्बर में चुनाव होने वाले हैं। कोरोना काल में दुनिया के देशों के पास लॉकडाउन के अलावा कोई चारा नहीं बचा, यानि आर्थिक बर्बादी की राह खुद को चुननी पड़ी। दुनिया भर में इस विभिषिका का एक मात्र कारण चीन को बताया जा रहा है। इधर कोरोना के दौर में भी चीन की विस्तारवादी नीतियां न ताइवान को बख्श रही हैं और न ही हांग-कांग में हो रहे विरोध प्रदर्शनों पर गौर कर रही हैं। दक्षिण चीन सागर के देश वियतनाम, मलेशिया, ब्रूनई, देरूसलम, फिलिपींस, ताइवान, स्कार्बोराफ रीफ क्षेत्रों में खासा तनाव है।  दक्षिण चीन सागर में स्पार्टली और पार्सल द्वीपों पर कच्चे तेल की उपलब्धता ने चीन को अपने लिए संभावनाएं नजर आ रही हैं तो दुनिया को विस्तारवाद की नीतियों से बड़ा खतरा दिख रहा है। दुनिया के देश चीन को घेरना चाहते हैं और भारत की सामरिक और भौगोलिक स्थितियां चीन के विरुद्ध आसानी से उपयोग में ली जा सकती है। भारत इन वैश्विक परिस्थितियों को समझकर अपना दांव खेल रहा है । वो चीन के विरुद्ध उन मुद्दों पर भी आक्रामक है जो सीधे रूप में भारत को प्रभावित नहीं करती हैं।
भारत-चीन के बीच जो हो रहा है उसे राजनीतिक चश्मे से मत देखिएगा, क्योंकि ये अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों की देन है। चीन का रूख वही है, बदली हैं तो सिर्फ भारत की परिस्थितियां और दुनिया के समीकरण, जिसमें भारत फिलहाल सबसे मुफीद स्थिति में है। अभी चाइनीज प्रोडक्ट के बॉयकाट की गूंज है लेकिन इससे आगे भारत को चीन बनने की जरूरत है। अपने एमएसएमई सेक्टर को नई दिशा देने की जरूरत है। भारत बड़ा बाजार है, इस  अवधारणा को बदलकर भारत गुणवत्ता पूर्ण सस्ती चीजों का बड़ा उत्पादक देश हैं इस धारणा को प्रबल बनाने की जरूरत है। तभी भारत दक्षिण एशिया ही नहीं बल्कि समूचे पूर्वी दुनिया के देशों की अगुवाई कर सकेगा...

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आपका - विशाल सूर्यकांत, वरिष्ठ पत्रकार 


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