क्या सच में बच्चों के लिए 'हानिकारक' बापू बन रहे हैं 'बाप' ..! घरेलू हिंसा के शिकार बच्चों की दास्तान..जरूर पढ़ें ...
'बचपन' पर घरेलू हिंसा करते 'हानिकारक बापू '...!!!
- विशाल 'सूर्यकांत'
बचपन,अगर घर में महफूज़ नहीं होगा,तो और कहां होगा..? लेकिन आज का दौर ऐसा होने नहीं दे रहा। चाहे-अनचाहे देश में अपने ही घरों में बच्चों के विरुद्ध 'घरेलू हिंसा' हो रही है। ताजा मामला राजस्थान के राजसमंद जिले में देवगढ़ थाना 'फूंकिया की थड़' गांव का है। यहां एक घर के भीतर बच्चों पर जुल्म का वीडियो वायरल हुआ है। दो मासूम बच्चों को,उनका पिता सिर्फ इसीलिए खूंटी से बांधकर पीट रहा है क्योंकि बच्चे मना करने के बावजूद बच्चे मिट्टी खाते थे और जहां-तहां गंदगी कर बैठते थे। बच्चों के चाचा ने वीडियो बनाया और वायरल कर दिया। मामला उठा तो पुलिस कार्रवाई हुई। बच्चों को पीटने वाला पिता गिरफ्तार हुआ, चाचा भी कार्रवाई की जद में आया। इस घटना की तरह ऐसा ही एक और मामला बेंगलूरु में भी सामने आया।
देश के दो अलग-अलग मामले और घटनाक्रम एक जैसे ...। आप राजसमंद में बच्चों के साथ हुई मारपीट का पूरा 'वीडियो' देखें तो यकीकन सिंहर जाएंगे। लेकिन बच्चों की मां,अब भी इसे सहज मामला बता कर पति पर कोई कार्रवाई नहीं चाहती। वो कह रही है - 'एक-दो थप्पड़ ही तो जड़े थे'। बच्चों पर घर में ही हो रही मारपीट के के मामलों में भारतीय परिवारों में 'मां' की क्या स्थिति होगी, ये अलग से समझाने की जरुरत नहीं। राजसमंद मामले में महिला आयोग के पंचायत स्तरीय सदस्यों ने मामला दर्ज करवाया तब पुलिस कार्रवाई हुई। गांव के लोगों का कहना है कि इन बच्चों का पिता, बच्चों के साथ ऐसे ही आदतन मारपीट करता रहा है। गांव के कुछ लोगों ने पुलिस को इसकी खबर भी की, लेकिन तब पुलिस वालों ने सुना नहीं, जब जब देश में ये वीडियो फैल गया तब पुलिस वालों को लगा कि कार्रवाई होनी चाहिए।

दरअसल, बच्चों के लिए 'हानिकारक बापू' के मामले नए नहीं है। देश में बच्चे, घरेलू हिंसा के शिकार होते रहे हैं। ये दीगर बात है कि इसका कोई ऑफिशियल आंकड़ा तब ही रिकॉर्ड होता है, जब शिकायत दर्ज होती है। गंभीर बात यह है कि आम तौर पर परिवारों में बच्चों के साथ मारपीट को सामान्य रूप से लिया जाता है। ये धारणा बन गई है कि बच्चों के साथ सख्ती न हो, तो वो बिगड़ जाते हैं। लाड़-प्यार के साथ थोड़ा डर बहुत जरूरी है। लेकिन 'डर' का दौर बढ़ता जा रहा है और घर वालों को ये अहसास तक नहीं कि उनके अपने बच्चे,अपने ही परिवार में, अपनों के ही हाथों, जाने-अनजाने 'घरेलू हिंसा' झेल रहे हैं। ये भी सच है कि देश में बच्चों के साथ घर में 'बुरे बर्ताव' का हर मामला, राजसमंद या बेंगलुरु की तरह क्रूर और हिंसक हो लेकिन घर में किसी बच्चे की उपेक्षा या उससे ज्यादा अपेक्षा हो या फिर बेटा-बेटी में फर्क या किसी एक पर अतिरिक्त दायित्व बोध थोपा जाए, बच्चों को अनावश्यक डर और धमकी भरे मिजाज का सामना करना पड़े। या फिर बच्चों के प्रति गैर जरूरी सख्ती बरती जाए, ये भी मामला घरेलू हिंसा से जुड़ता है।
अगर बच्चों को वक्त नहीं देते हैं तो भी आप जाने-अनजाने बच्चों को घरेलू हिंसा का शिकार बना बैठते हैं। बच्चों के कोमल मन पर ऐसा है कि जिस्मानी चोट से ज्यादा मन की चोट ज्यादा घातक होती है। क्योंकि मन की चोट, सोच और नजरिया बदल कर रख सकती है।
इस पहलू से देखें तो भारत में औसतन घरों में बचपन उस स्थिति में नहीं हैं, जिस स्थिति में होना चाहिए। अच्छी पेरेन्टिंग के लिए हमारा समाज,हमारे परिवार, अभी भी तैयार नहीं और न सरकारें देश की नई पीढ़ी के लिए सचेत है।

चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट्स डॉ.अखिलेश जैन के मुताबिक ऐसे बच्चे, जो घर में शारीरिक,मानसिक प्रताड़ना के शिकार होते हैं वो आगे चल कर या तो बहुत निम्न आत्मविश्वास और कमजोर निर्णय क्षमता के साथ जीते हैं या फिर परिवार के प्रति दुराव इतना हो जाता है कि वो समाज में भी सहज नहीं रह पाते और अापराधिक मामलों में लिप्त हो सकते हैं। जिन घरों में बच्चे प्रताड़ना के शिकार होते हैं,उन बच्चों के डीएनए तक में इसका प्रभाव रहता है। देश में वाकई ऐसे मामले बढ़ रहे हैं।
एनसीआरबी के सरकारी आंकडे बताते हैं कि देश में हर घंटे एक बच्चा आत्महत्या कर रहा है। 2011 से 2015 के बीच पांच सालों में देश भर में करीब 40 हजार बच्चों ने आत्महत्या कर ली। क्या इसके पीछे घरेलू परिस्थितियों को आप नकार सकते हैं ? बच्चों के बर्ताव से जुड़ा दूसरा पहलू देखिए, देश में बाल अपराध की संख्या में तेजी से इज़ाफ़ा हो रहा है। चाहे चर्चित निर्भया मामला हो या दिल्ली के एक निजी स्कूल में साथी की हत्या का मामला, गंभीर मामलों में किशोर बच्चों के शामिल होने की घटनाएं बढ़ रही हैं। बाल अपराध के मामले इतने गंभीर माने गए कि देश की संसद में भी नए 'जुवेनाइल कानून' पारित किया गया जिसमें गंभीर अपराधों के मामले में 16 से 18 साल की उम्र के नाबालिग को वयस्क मान कर मुकदमा चलाने की मंजूरी दी है। चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट की राय में बच्चों के अतिवादी बर्ताव में घरेलू कारण सबसे प्रमुख है। निर्धन परिवारों के बच्चों की समस्याएं अलग और मध्यमवर्गीय परिवारों में कहानी अलग...आज के दौर की चुनौती है घर में मां-बाप,डिजीटल और वर्चुअल,सोशल मीडिया में मशगुल हैं और बच्चे घर में अकेले हो चले हैं। अक्सर मां-बाप अगर परेशान हैं, तो उनके वक्ती गुस्से का खामियाजा अक्सर बच्चों पर ही निकल जाया करता है। सवाल ये है कि क्या मां-बाप होने की जिम्मेदारी का मतलब बच्चों के साथ मारपीट का अधिकार है ? क्या हम अपनी उम्मीदों की गठरी, अपने बच्चों के सिर रखकर चलते हैं ? क्यों हम ये मान कर चलते हैं कि बच्चा दुनिया में आए और पैदा होते ही हमारी उम्मीदों पूरा करने का जरिया बन जाए ? आपकी तरक्की और आपकी जरूरतों की राह में बच्चों का, मासूम बचपन पीछे छूट रहा है। घर के अलावा कहीं और ज्यादा वक्त बीतता है तो वो स्कूल है मगर यहां भी हालात कहां अलग हैं ?
देश में करीब 10 करोड़ बच्चे स्कूल का रास्ता नहीं जानते जबकि देश में शिक्षा का अधिकार लागू है। जो स्कूल जाते हैं वो कहां और कौनसा बचपन जीते है ? हमारे एजुकेशन सिस्टम में प्रोफेशनल अप्रोच के नाम पर टीचर और स्टूडेंट्स के संबंधों के मायने बदल चुके हैं। सरकारी सिस्टम में सुधार के नाम पर नए प्रयोग ही चलते आए हैं और निजी संस्थानों में 'टास्क बेस्ड टीचर्स' हैं। ज्यादातर टीचर्स के लिए अच्छा होमवर्क और रिजल्ट देने वाले और न देने वालों की केटेगरी में बच्चे बंटते जा रहे हैं। फिर बस्तों
का बोझ ऐसा कि मानों पूरा स्कूल कंधे पर टांग दिया हो। स्कूल से कुछ राहत मिली तो कोचिंग की टेंशन शुरु..। बचपन से उसका 'मलंग' अंदाज और
'बेफिक्री' छिन लेंगे तो कहां और कैसे बचपन सुरक्षित रह गया बच्चों का ?
देश में बचपन की ही बात हो रही है तो ये आंकड़ा भी जान लीजिए कि कुपोषण से हर साल दस लाख से ज्यादा बच्चों की मौतें हो जाती है भारत में 5 साल से कम आयु के 21 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं।
1998-2002 के बीच भारत में बाल कुपोषण 17.1 प्रतिशत था, विकसित होते भारत में 2012 से 2016 के दौरान बच्चों में कुपोषण के मामले बढ़कर 21 प्रतिशत हो गए। चाहे वो गरीबी हो,अज्ञानता हो या अनदेखी वजह हो, लेकिन हमारे बच्चे कुपोषण का दंश झेल रहे हैं। देश के कई हिस्सों में बच्चों की कुल आबादी का आधा हिस्सा बाल मजदूर है। देश में 5 से 18 साल की उम्र के तीन करोड तीस लाख से ज्यादा बच्चे बाल-मजदूरी कर रहे हैं। इन आंकड़ों को देखें तो लगता है कि बच्चों का बचपन हम बड़ों ने अपने जीवन से भी ज्यादा 'दुरुह' बना लिया है। देश में बचपन के सामने कई चुनौतियां खड़ी हैं।
बचपन के सामने चुनौतियां घर और बाहर कम नहीं। आज भी बड़ी आबादी बच्चों को अस्पताल तक नहीं आने देती। घरेलू नुस्खों से इलाज या अंधविश्वासी तरीके अजमाए जाते हैं। बेटी हो तो इलाज के खर्च में हाथ रोकने की अमानवीय परिपाटी पीढ़ियों से चली आई और आज नया भारत बनाने की घोषणाओं में भी तस्वीर नहीं बदली है। राजस्थान को ही लीजिए यहां कई हिस्सों में निमोनिया जैसी बीमारी का इलाज बच्चों को गर्म सलाखों से दाग कर किया जाता है। भीलवाड़ा और राजसमंद में ऐसे एक नहीं कई मामले हैं। बनेड़ा में दो साल की मासूम बच्ची पुष्पा को निमोनिया होने पर इतना दागा गया कि दर्द से तड़पते हुए उसकी सांसे टूट गई। तीन महीने की परी को निमोनिया हुआ तो आधा दर्जन जगहों पर गर्म सलाखें चिपका दी गई।

कहने तो बच्चों का बचपन का हक़ दिलाने सरकारी सिस्टम में 'बाल-अधिकार संरक्षण आयोग' बने हैं, सरकारी विभाग भी काम कर रहे हैं मगर 'आती-जाती' सरकारों में सिस्टम जबावदेह कहां बन पाया है ? बाल आयोगों में राजनीतिक दखल भी कम नहीं। राजनीतिक नियुक्तियों की भरमार वाले आयोग में जब बच्चों के विरुद्ध अपराध को सवाल पूछे जाते हैं तो जबाव किसी सरकारी संस्था की मानिंद ही आता है। इन संस्थाओं का व्यावहारिक पक्ष है,राजनीतिक स्थितियों के मुताबिक इन संस्थाओं का असर घटता-बढ़ता रहता है।

देश में बच्चे परेशान हैं क्योंकि हमनें बचपन की परिभाषा बदल दी है। राजसमंद की ये घटना भारतीय परिवारों में बच्चों की स्थिति पर सोचने के लिए मजबूर करती है कि क्या अपने ही घर में असुरक्षित होता जा रहा है बचपन ? कौन है इन परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार ?
सबसे जरुरी बात ये कि हमनें बच्चों की देख-रेख,बच्चों की परवरिश को पूरी तरह 'पारिवारिक मामला' बना रखा है। विकसित देशों में सरकारें मॉनिटर करती है कि घर में बच्चे के साथ क्या सलूक होता है...हमें ये बात अजीब लगती है कि बच्चों को कैसे रखना है ये कोई सरकार कैसे सीखा सकती है ? मगर नार्वे की घटना को याद कीजिए जिसमें एक भारतीय दंपत्ति से बच्चा इसीलिए नार्वे की सरकार ने छीन लिया क्योंकि वहां के नियमों के मुताबिक वो उसके सोने के लिए अलग से व्यवस्था नहीं कर रहे थे। भारतीय समाज में बच्चों के लालन-पालन का 'अपना विशिष्ट चलन' है। सरकारें ज्यादा दखल नहीं दे सकती । भारत में भी बच्चे के कानूनी हक़ तो गर्भ में आते ही शुरु हो जाते हैं और घरेलू हिंसा समेत बाकी सारे मामले तो दुनिया में आने के बाद की समस्याएं है। देश में बाल अधिकार संरक्षण के पुख्ता कानून हैं पर कार्रवाई की कोई नजीर लोगों को याद नहीं।
दरअसल, मासूम बच्चे वोटर नहीं, इसीलिए 18 साल से पहले उनकी सुध लेना जनप्रतिनिधियों को भी नहीं सुहाता। संसद, विधानसभा में बच्चों के मामले में कुपोषण से मौत के मामले गूंजते हैं या फिर बेरोजगारी पर शोर-शराबा,हंगामा होता है। मगर इन दो मसलों के बीच एक बच्चा किन चुनौतियों को पार कर बचपन बीता रहा है, कैसे बड़ा हो रहा है ? ये पहलू राजनीतिक दलों को मुद्दा नहीं लगते।
बच्चों की घरेलू हिंसा और प्रताड़ना का मुद्दा, न सामाजिक मंच पर सामने आता है और न ही धर्म,जाति की जटिलताओं में मुद्दे खोजती राजनीति इस ओर झांकती है। ये बात आखिर में जरुर रेखांकित की जानी चाहिए कि ऐसा नहीं है कि भारतीय परिवारों को बच्चों से प्यार नहीं, मुद्दा सिर्फ हम बच्चों के लिए भविष्य की दुनिया आज बनना चाहते हैं जबकि बचपन को चाहिए, अपने दौर की अपनी दुनिया ।
परवरिश के लिए जरुरी नहीं कि बच्चों को अपनी बनाई दुनिया में खींच लाएं, कभी आप भी बच्चों की दुनिया में चले जाया कीजिए.

- विशाल 'सूर्यकांत'
पत्रकार, लेखक
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