गुरुवार, 7 मई 2015

@Abhijeetsinger # बाबूजी....इसीलिए हम सोते हैं फुटपाथ पर

      
              विशाल सूर्यकांत शर्मा 
अभिजीत बाबू , मैं आपका वो फैन तो नहीं जो पागलपन की हद तक चला जाऊं लेकिन हां, आपके गाने मैं शिद्दत से सुनता हूं, समझता हूं। मुझे आपकी आवाज बहुत पसंद है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि आपकी हर बेवकूफी भी मुझे पसंद आए !!!  क्या बेवकूफी भरा ट्विट किया है साहब ...!  उम्मीद है कि इसके पीछ चीप पब्लिसिटी की आरजू ही रही होगी, क्योंकि अगर वाकई ये आपकी सोच हैं तो मुझे आपके इंसान होने पर ही शर्म आ रही है। 

सलमान ख़ान को सज़ा हो गई तो क्या गलत हो गया ? 13 साल तक उन्हें अपनी बेगुनाही को साबित करने
और अपराधी होने के बावजूद फिल्मों में काम करने का भी खूब मौक़ा मिला। इन तेरह सालों में उनकी फिल्मों ने करोड़ो कमाए...और आपको मालूम है कि उनकी फिल्में चलाने के पीछे उनके सिर्फ़ वो फैन ही नहीं हैं जो आपकी तरह आलिशान बंगलों में सोते हैं। उनकी फिल्मों की कामयाबी के पीछे आप जैसे लोगों से कई गुना ज्यादा वो लोग हैं जो फुटपाथ पर सोते हैं। कभी-कभी भूखे भी रहते हैं लेकिन अपनी दिन भर की कमाई का एक हिस्सा इसीलिए फिल्मों पर खर्च करते हैं ताकि एक अदद टिकट के
बदले, चंद घंटों में वो अपने लिए सुनहरे सपने खरीद कर ला सकें।   


'' अभिजीत जी, आप कैसे ऐसा लिख सकते हैं ??? अपनी सफाई में फिर कह रहे हैं कि किसी देश में ऐसा नहीं होता। अरे, आप ये बताईए कि कौनसे देश का कानूून फुटपाथ पर सोते कुत्ते को भी कुचल डालने का हक़ देता है ? ...आप उस देश में रहते हो, जहां कोई कुत्ता भी गाड़ी के नीचे आ जाए तो परिवार के लोग अपने ही घर के उस शख्स को कोसने से नहीं चूकते, जो गाडी चला रहा होता है।''


आपके ट्विट से उपजी पीड़ा ने  मुझे मजबूर किया कि मैं फुटपाथ का रुख करूं और आपके जेहन में उठी निहायत ही घटिया सोच का माकूल लेकिन गंभीर जबाव दूं। कोई आखिर फुटपाथ पर क्यों सोना चाहेगा??? क्या ये वाकई उनके लिए लाइफ का एडवेंचर है ???  मुंबई की फुटपाथ हो या जयपुर की...मुझे लगता नहीं कि कोई ज्यादा फर्क होगा दोनों में। आपके शब्दों में कहूं तो जिंदगी यहां और वहां दोनों जगह उसी जानवर की तरह ही होगी। 
चलिए मेरे साथ जयपुर की फुटपाथ पर इधर-उधर बिखरी जिंदगियों में कुछ झांकते हैं...और वाकई पूछते हैं कि फुटपाथ पर क्यों सोते हो भाई ???   ​

नाम- रवि, निवासी-पूना 
स्थान-नारायण सिंह सर्किल
समय-6 मई,रात 9.30 बजे

- मायानगरी के नजदीक का शहर छोड़ कर जयपुर इसीलिए आ गया क्योंकि यहां के बारे में सुना था कि यहां बेगारी करने वालों की भीड़ कम है। दिन भर बेगारी के बाद सोने की पसंदीदा जगह है नारायण सिंह सर्किल का फुटपाथ। 

सवाल- फुटपाथ पर क्यों सोते हों ?
जबाव- कमरे के लिए पैसा नहीं, दिन में कमाई बस इतनी भर हैं कि पेट भर जाए। घर-परिवार नहीं है।

सवाल- डर नहीं लगता कि कोई शराब पीकर गाडी फुटपाथ पर चढ़ा दे तो ...?  
जबाव- हां वो तो हैं, इसीलिए दीवार से सटकर सोते हैं...और रात भर गाड़ियों की बत्तियों से गहरी नींद नहीं आती। 

सवाल- सलमान खान और सिंगर अभिजीत को जानते हों ? 
जबाव- हां, अभी पेपर में पढा उनको सजा हो गई । अभिजीत ( कुछ सोचते हुए) हां, चांद तारे तोड़ लाऊं वाला, अच्छा गाता है। 

सवाल- सिंगर अभिजीत ने कहा कि फुटपाथ पर तो (***)  सोते हैं 
जबाव- कुछ पल खुद में खो गया और फिर बोला- ये बात तो गलत बात हो गई साहब !  फिर भी ...सही बात कह रहा है वो ...क्या करें ??
  
सवाल- सोने के लिए ऐसी रोड क्यों , जहां दिन-रात भारी ट्राफिक चलता है ? 
जबाव- साहब ! शहर की गलियों में कोई सोने नहीं देता, उन्हें लगता है कि कोई चोर है। हम भी सोचते हैं कि कहीं कुछ हो गया तो पुलिस वाले और कॉलोनी वाले हम पर ही सबसे पहले आरोप लगाएंगे। इसीलिए यहां ऐसी रोड पर सोते हैं जहां सबको पता रहता है हम कब सो रहे हैं,कब जाग रहे हैं। फालतू में ऐसा काम क्यों करना कि कोई आरोप लगाए ?? 
                                                                   चलिए दूसरी लॉकेशन पर ...   




नाम-शंकरलाल, निवासी-पन्ना-शहडोल( मध्यप्रदेश) 
जगह- सवाई मानसिंह अस्पताल के बाहर,जयपुर 
तारीख- 6 मई, समय रात - 10 बजे

सवाल- पैरों से विकलांग हो तो फिर ट्राफिक में क्यों घूम रहे हो ? 
जबाव- साहब ! मेरे लिए गाड़ी लेने जयपुर आया था। 

सवाल- कौन सी गाड़ी ? 
जबाव- हमारे जैसे लोगों के लिए गाड़ी, वो पन्ना में एक मैडम लिख कर दी थी कि जयपुर चले जाओ, गाड़ी मिल जाएगी। 

सवाल- वो गाड़ी तो वहां भी मिल जाती, शहडोल से जयपुर क्यों आए ? 
जबाव- पता नहीं, मैडम चिठ्ठी बना कर दी है, इसीलिए आ गये थे । 

सवाल- गाड़ी मिल गई ? 
जबाव- नहीं साहब, अभी तो कोई चिठ्ठी ही नही मान रहा है, घर जाने के भी पैसे नहीं। 

सवाल- चिठ्ठी हैं तुम्हारे पास ? 

जबाव- हां, साहब....( जेब में प्लास्टिक की थैली में बंद की हुई चिठ्ठी को निकाल कर दिखाते हुए...
( इस चिठ्ठी में कुछ नहीं लिखा है सिवाय इसके कि इन्हें कहीं भी विकलांग साइकल मिल सकती है ) 
ना जाने किसने इसे सलाह दी ? और जयपुर भेज दिया साइकल की आस में ...!!! अब साइकिल तो मिली नहीं तो घर किस मुंह से जाए तो सवाई मानसिंह अस्पताल के बाहर ही बना लिया ठिकाना।

सवाल- फुटपाथ पर क्यों सोते हो ? 
जबाव- साहब ! अभी पिछले महिने ही हम सो रहे थे तो कोई सारे पैसे और सामान ले गया। इसीलिए भीड़ में ही रहते हैं, यहां रात भर ऐसे ही रहता है, तो हम भी आराम से रह लेते है।   
   
                         चलिए अगली लॉकेशन पर 

नाम- बनवारीलाल,बांदीकुई, राजस्थान
स्थान- बाईस गोदाम ब्रिज, जयपुर 
समय- 6 मई, रात- 10.30 बजे 

सवाल- तुम एक बात बताओ, फुटपाथ पर क्यों सोते हो ? 
जबाव- सोने की जगह नहीं साहब 

सवाल- क्यों, सरकार बनाती है रैन बसेरे, वहां क्यों नहीं जाते ? 
जबाव- साहब, वहां एक बार गए थे, कई तरह के लोग वहां आते हैं, लूटपाट करते है, इसीलिए नहीं जाते। 

सवाल- यहां तो रात भर ट्रक चलते हैं, गाड़ियां आती हैं, डर नहीं लगता कोई चढा देगा तो फिर...
जबाव- साहब, मजदूरी कर रहे हैं, इतना तो भगवान पर भरोसा करना पड़ेगा ना, ऊपर चढ़ा देगा तो ऊपर वाला कुछ तो देखेगा। यहां आजकल लूट बहुत होती है, एक बार किराए पर लाए थे साईकिल रिक्शा, गली में सोने चले गए थे, रात में दो तीन लोग आकर लूट ले गए। अब साइकिल का पैसा भी भरना है और अपना काम भी चलाना है ... तो कचरा बीन लेते हैं। 

सवाल- तुम लोग ऐसे रहते हो तो फिल्म वाले कहते हैं ये ( कु**) वाली जिंदगी है। 
जबाव- हम तो अपनी मजदूरी करके आराम से रहते हैं, कोई हमको (कु**) कहेगा तो सुन लो, हमसे बडा वो (कु**) है। बाऊजी तुम ही बताओ, इतनी देर बैठे तो हमने कौन सा काट लिया आपको ??? 

                                                                            ---- ***----

शोहरत की बुलंदी पर बैठे अभिजीत जी, मेरी सलाह हैं कि आप भी मेरी तरह मुंबई की सड़कों पर उन लोगों के बीच कुछ घंटे बिताईए.. जिन्हें आप इंसान नहीं कुत्ता समझते हैं। हो सकता हैें कि आपकी फिल्मी दुनिया धोखेबाजी और साजिशों से घिरी होगी लेकिन मेरा दावा है कि इनके बीच जाओगे तो अपना बिछाया अखबार भी आपको देकर बिठाएंगे ये लोग।

किसी के साथ मजबूरी है तो किसी के साथ मेहनत की खुद्दारी। अपने बंगले के बाहर तो हम इन्हें सोने नहीं देते और फुटपाथ पर सोएं तो इंसान और कुत्ते में फर्क नही रखते...। क्या गुरबत में जीने का हक़ भी छिन लिया जाता है ??? जीना भी गुनाह हो गया क्या इनका ??? आपके ट्विट में लिखा हैं कि आप जेब में एक पैसा नहीं था तो भी सड़क पर नहीं सोए। 

साहब, आपकी आरजू तो बस एक सिंगर बनने की ही रही होगी...यहां तो जुस्तजू अपना पेट भरने की है, यहीं इनकी रोज़ की जंग है और ये जंग नहीं लड़नी पड़े ये है इनका सपना ।  आप गुनगुनाते हों कि चांद तारे तोड लाऊं, सारी दुनिया पर मैं छाऊं बस इतना सा ख्वाब है.... । सारी दुनिया पर छा जाने का ख्बाव अभिजीत सिंगर का होगा। मगर इनका ख्वाब तो बस ये हैं कि रोज़ अपना और अपने परिवार का अच्छे से पेट भरने का है। ... इसीलिए फुटपाथ पर सोते हैं ये लोग....

अभिजीत जी, आप चाहते तो आरटीआई लगाकर सरकार से पूछते कि आखिर इन लोगों के नाम पर इतना भारी भरकम इनकम टैक्स काटने के बावजूद भी सरकार कुछ क्यों नहीं कर रही ? क्यों स्ट्रीट वेंडर्स पॉलिसी कामयाब नहीं होती ? क्यों बेगर्स और मजदूरों के रिहेबिलिटेशन की कोई पॉलिसी नहीं है ? जो चुनी हुई सरकारें हैं वो क्यों अपना काम नहीं कर रही ? 

मुझे पता है कि आप कहोगे कि इस काम के लिए तो आप जैसे पत्रकार हैं।  क्योंकि आप जैसे लोग इतने डरपोक होते हैं कि ना तो सवाल पूछने की हिम्मत रखते हैं और ना ही जिम्मेदारी लेने से। आप ट्विटर पर उन लोगों को इसीलिए कुत्ता कह गए क्योंकि आपको पता हैं कि जिसके पेट में खाना नहीं वो ट्विटर पर आपको कैसे जबाव देगा ? आप इनकी गरीबी का सवाल सरकारों और रसूखदारों से करने की हिम्मत भी सिर्फ इसीलिए नहीं दिखा सकते क्योंकि ना जाने कितने सरकारों के मंत्री, रसूखदार और अंडरवर्ल्ड की महफिलों में आप जैसे सुपर स्टार, सुपर सिंगरों ने दुम हिलाई हुई होगी। माफ कीजिएगा, ये मेरे लिखने की स्टाइल नहीं है लेकिन आपने आज मजबूर कर दिया। 
  



विशाल सूर्यकांत शर्मा
पत्रकार- फर्स्ट इंडिया न्यूज में इनपुट हैड
Contact- +919001092499
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            vishal.suryakant@gmail.com
  












बुधवार, 6 मई 2015

HIT AND RUN ... ARE WE TRUE INDIAN !!!

                                                                                     
                     

                                                - विशाल सूर्यकांत शर्मा -

   आज का दिन सलमान ख़ान के नाम...। पब्लिसिटी से लेकर पनिश्मेंट तक का सलमान का सफर !
तेरह साल पुराने हिट एंड रन मामले में सलमान खान अपराधी साबित हो गए और अब जेल जाना पड़ेगा। सज़ा पर हाईकोर्ट में आगे सुनवाई हो सकेगी और हाईकोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा भी खुला है। लेकिन इस सफर में कितना वक्त लगेगा और ना जाने कितने दिन जेल के भीतर और जेल के बाहर गुजरेगा, ये अभी तय नहीं। आज सलमान पर तो दुनिया बात कर रही है लेकिन मैं बात करूंगा उस समस्या कि जिसमें असल जिंदगी में कोई भी कभी भी अनचाहे सलमान खान का रोल निभा जाता है। ये समस्या है हिट एंड रन की...।

हिट एंड रन; सेलिब्रिटी केसेज से चर्चा में आया ये शब्द.., हमारे देश की सड़कों में आए दिन अपनी सूरत दिखाता है। पुलिस थानों की रिपोर्ट और अखबारों की कतरनें, ऐसे मामलों से भरी पड़ी है कि एक शख्स को अज्ञात वाहन टक्कर मार गया । गाड़ी चलाने वाले का लाईसेंस था या नहीं, शराब पी है या नहीं, ये तो पड़ताल तब होती है जब कोई पकड़ में आ जाता है। मेरा दावा है कि देश में 70 फीसदी मामलों में तो टक्कर मारने वाला पकड़ में ही नहीं आता। आलम ये हैं कि आप सड़क पर चले जा रहे हों और कोई भी आपकी कोहनी पर अपनी दुपहिया गाड़ी का मिरर जोर से टकरा कर चलता बनेगा। टक्कर के बाद, अपनी रफ्तार बढ़ाने के साथ पीछे मुड़ कर वो शख्स आपको गरियाना नहीं भूलेगा, ऊंची आवाज से तो बोलेगा ही, ...और अपनी आंखों की पुतलियां घूमाते हुए आपको आपके गंवारपन का अहसास करवाएगा सो अलग...।
आप चाहे किसी उधेडबुन में हों या फिर मस्त मौला मूड़ में लेकिन आपके अच्छे-खासे मूड़ का कोई भी जायका बिगाड़ सकता है। रोज देखने में आता है कि कुछ लोग तो सड़क पर ऐसे गाड़ी चलाते हैं मानों गाड़ी नहीं बल्कि आसमान में अंतरिक्षी रॉकेट उड़ा रहे हो। हवा के रूख को चीरते हुए कई मनचले शोहदे आपको सड़क पर स्टंट दिखाते मिल जाएंगे। आपकी किस्मत हैं कि सड़क पर चलते हुए उस वक्त, आपसे कोई गफ़लत नहीं हुई, वरना तो सड़​क पर गाड़ियां दौड़ाते ये लोग , कब यमदूत की शक्ल में आपको चपेट में ले लें और हवा तक ना लगें ।
इंसान के मिजाज से जु़ड़ा बुनियादी सवाल पूछता हूं कि क्या गाड़ी में बैठकर इंसान का ओहदा बदल जाता है ??? सड़क पर चलने वाले, फुटपाथ पर सोने वालों के सामने गाड़ी में बैठकर गुजरने वाला शख्स ऐसा मिजाज क्यों अपना लेता कि भैय्या !!! अपन को आम आदमी समझने की गलती मत कर देगा, अपना मामला ज़रा वीआईपी केैटेगरी वाला है।
कनअखियों से देखते हुए... तो कभी घूरते हुए, गहरी सांसें लेते हुए या फिर गरियाते हुए आपको राह चलते  ' जाहिल ' साबित करने वालों की कमी नही हैं हमारे देश मे। ये तो रहा गाडी चलाने वालों का मिज़ाज...।
मगर इसका मतलब ये नहीं है कि स़ड़क पर चलने वाला कोई निरीह प्राणी है, बेचारगी का मारा हुआ है और सारी गलती गाड़ी चलाने वालों की ही होती है। हिट एंड रन...के मामलों की असल जड़ को सड़कों पर दुर्घटना के समय भीड़ का बर्ताव है। अपने-अपने दिल में झांकिए और बताईए कि क्या सलमान खान, अगर वहां से नहीं भागता तो भीड़ उसे चुपचाप पुलिस के हवाले कर देती ??? चलिए, सलमान खान को छो़ड़िए ये आप खुद पर लागू करके देखिए कि अगर आपके हाथ से कोई हादसा हो गया तो क्या आप वहां रुक कर सुरक्षित महसूस कर सकते हैं ?हम सब की जिंदगी खासी तनाव भरी है। ऐसे में, खुद या किसी और को  टक्कर मार देने वाला कोई भी शख्स हमें सॉफ्ट टारगेट नजर आता है।
लिहाजा, अपनी जिंदगी का पूरा फ्रस्ट्रेशन हम उस घड़ी में निकालते हुए बेचारे गाड़ी चलाने वाले निकालते हैं और आफत बनकर पर टूट पड़ते हैं, उस इंसान पर जो या तो अनचाही टक्कर के बाद या तो ... खुद भलमनसाहत से रुका ... या फिर मौक़े की नजाकत को संभालने में नाकामयाब रहा और आपके चंगुल में फंस गया। मेरा दावा है कि टक्कर से घायल की सुध लेने वाले तो कम मिलेंगे लेकिन शर्तिया तौर पर कह सकता हूं कि आपको चांटे रसीद करने वालों की तादाद इतनी होगी कि आप गिन नहीं पाएंगे। हादसे के बाद बदसलूकी करना ये हमारे देश की जनता में आम चलन है। इसमें ना तो जाति-धर्म का भेद है और ना ही राज्यों की सीमा का।

 भीड़ का संविधान देखिए कि हादसे के बाद अगर कोई जैसे-तैसे कोई निकल भागा तो भीड़ गाड़ियों को आग के हवाले कर देती है, सड़कों पर जाम लगा देती है। जिन मानवीय संवेदनाओं के नाम पर टक्कर मारने वाले को घेरा जाता है, वहीं संवेदनशीलता, गाड़ियों को जलाते,सड़कें जाम करते वक्त अराजकता में बदल जाती है। ये मामला साधारण नहीं है। अपने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी हाल ही में मन की बात में इसका जिक्र किया है। 


दरअसल, हम भारतीय हर मामले में दो अलग चेहरे लेकर चलते हैं। एक चेहरा खुद की प्रस्तुति के लिए और दूसरा चेहरा भीड़ में शामिल होने के लिए। सड़कों पर रोडरेज की होड़ करने वाले, आपको घूरने वाले, गरियाने वाले, सड़क पर ग़लत तरीके से चलने वाले, पुलिस को कोसने वाले, मारपीट करने वाले हम लोग ही तो हैं। बस, फर्क़ ये हैं कि सड़क पर पैदल चलते हुए हमारा नज़रिया कुछ और होता है और गाड़ी चलाते हुए कुछ और...।

सलमान खान के साथ तो दिक्कत ये हो गई कि वो सेलिब्रिटी था, भागने के बावजूद भी पुलिस ने धर दबोचा। मगर आप और हम तो सड़क पर रोज कभी गुनाहगार और कभी शिकार बन जाते हैं। मामूली हादसे का शिकार बन गए तो ढ़िढोरा सहानूभूति बटोरने में हम पीछे नहीं रहते और गुनाहगार बन जाए तो उम्मीद करते हैं कि किसी को कानों-कान ख़बर तक ना हों। दरअसल,हमनें सड़क को हमारी अपनी संपत्ति मान ली है। जब तक हम सड़क पर चलने का सलीका सीखने के साथ ही जब तक हादसों पर प्रतिक्रिया का सलीका नहीं बदलेंगे... तब तक....एक नहीं, कई सलमान खान होंगे...एक नहीं...कई हिट एंड रन मामले होंगे....

 - विशाल सूर्यकांत शर्मा 
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लेखक -: पत्रकार - फर्स्ट इंडिया न्यूज़,राजस्थान में हैड,इनपुट हैं। 

सोमवार, 4 मई 2015

#‎GoBackIndianMedia ...हंगामा क्यों हैं बरपा ???

           

   मीडिया                      

                     
   



  

                                      #‎GoBackIndianMedia ...हंगामा क्यों हैं बरपा ???  

 #GoBackIndianMedia, #GoHomeIndianMedia जैसे ट्विटर हैंडल के जरिए भारतीय मीडिया पर जमकर हमले हो रहे हैं। खूब चर्चा हो रही है कि इंडियन मीडिउ,नेपाल की व्यथा को बेंच रहा है। रिपोर्टिंग कम, किसी टीवी सीरियल की तरह शूटिंग ज्यादा हो रही है। नेपाल के लोगों के हवाले से इंडियन इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर ऐसे-ऐसे तंज कसे जा रहे हैं, ऐसे जॉक्स चल रहे हैं कि मानों इंडियन इलेक्ट्रोनिक मीडिया, मीडिया ग्रुप्स ना होकर बंच ऑफ इडियड्स हो। कुछ तो भाई ऐसे हैं जो ट्विटर पर इंडियन मीडिया के रवैये पर दुनिया भर के लोगों से माफी मांग रहे हैं। कुछ पुराना राग अलापते हुए इसे टीआरपी का खेल मान रहे हैं तो कुछ लोग इसे टफ कम्पिटिशन में इनसेन्सिटिव रिपोर्टिंग करार दे रहे हैं। लेकिन मैं आपसे जानना चाहता हूूं कि अगर ये सच भी हैं तो सालों से चला आ रहा है, अचानक ऐसा विरोध क्यों, ऐसा क्या हो गया ??  

चंद पलों की जमीन के भीतर की हलचल, नेपाल का नक्शा ही बिगाड़ गई, जमीन पर लाशों के ढ़ेर लग गए। मकान, मलबे में बदल गए। इस पीड़ा को उजागर करने के लिए जो लोग पीड़ित हैं, उनसे कुछ तो सवाल पूछने ही होंगे !!! भारतीय मीडिया ही क्या, किसी भी देश की मीडिया यहीं सवाल करती आई है। भले ही ये सवाल आपको बचकाने लगें लेकिन आम आदमी से आप ये तो नहीं पूछ सकते कि बताओ ;  भूकंप की रिक्टर पैमाने पर इन्टेन्सिटी क्या थी ???  अक्सर इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर ये तोहमत लगती है कि ये मीडिया वाले कुछ भी सवाल पूछते हैं। मेरा सवाल उन्हीं लोगों से हैं कि आप बताओ कि क्या पूछें ? किसी की मौत पर परिवार वालों से पूछना, जानकारी लेना, ये इलेक्ट्रोनिक मीडिया की बुनियादी जरूरत है, ठीक वैसे ही जैसे अदालत में अपराध की जानकारी होने के बावजूद भी फरियादी से, आरोपी से जिरह होती है। 

इलेक्ट्रोनिक मीडिया की विश्वसनीयता ही इसी बुनियाद पर टिकी है कि आप असलियत में वो ही दिखा रहे हैं जो कि हकीकत है। विश्वसनीयता की कसौटी पर खरा उतरने के लिए आपको ऐसे विजुअल्स ( वीडियो) भी चाहिए और ऐसी बाइट्स( लोगों के इंटरव्यू) भी चाहिए। 


... यहां मामला अंडरस्टूड नहीं होता, कहानी कहने के लिए किरदार तो गढ़ने ही पडेंगे ना साहब...!!! सिर्फ ज्ञान बांटने से ही काम चलता तो फिर स्टूडियो के बंद कमरे ही ठीक थे, फील्ड रिपोर्टिंग इसीलिए ही तो हो रही है कि जमीनी सच्चाई सामने आए । किसी से उसके दुख का कारण पूछे बगैर किसी की पीड़ा को अखबार में कैसे लिखा जा सकता है?  टीवी पर कैसे दिखाया जा सकता है ??? मीडिया को लेकर अजीब जुमले हैं लोगों के, मसलन मीडिया वाले ये मत पूछो, वो मत पूछो।  देखो ! ये पूछ लिया, देखो ! वो पूछ लिया...! ये मीडिया वाले मदद कम ,तमाशा ज्यादा करते है!!!

 मीडिया ही क्यों किसी भी सिस्टम को कोसना आसान है लेकिन अंदर की हकीकत तो समझ लिजिए. किसी भी स्टोरी को तैयार करने के लिए बुनियादी बांतें होती है,माहौल में ढ़लने के लिए कुछ सवाल होते ही हैं। जैसे आपके घर में कोई सही सलामत इंसान खुद अपने पैरों पर चल कर आया हो और आप पूछ बैठते हैं -'' How r you !!! ..'' या इंसान के घर के भीतर आने और आपके दरवाजा बंद करने के बाद आप पूछें कि -''  क्योे भाई साहब ! आप अकेले ही आए हैं ???..'',  किसी को चोट लगे और वो आंसू बहा रहा हो तो बरबस ही मुंह से निकल पडता है कि क्या वाकई बहुत दर्द हो रहा है....!!! ... जैसे आप, वैसे आपका मीडिया...!!! 

कुछ सवाल जबाव के लिए नहीं बल्कि कम्फर्ट लेवल बनाने के लिए किए जाते है। इसका मतलब ये नहीं है कि पूछने वाले बेवकूफ है. माहौल संभालने के लिए अगर कोई बचकाना सवाल कर भी लिया तो क्या गलत हो गया ? अरे भाई ! भले ही लोगों से उलटे सीधे सवाल पूछतें हैं लेकिन इसके जरिए यही तो दर्शाते हैं ना कि फलाना व्यवस्था कैसी चल रही है ? वो सिस्टम कैसा चल रहा है ??? मीडिया को कोसने वाले समाज से ये सवाल जरूर पूछना चाहता हूं कि सवालों से इतना परहेज क्यों है आप लोगों को ...???

 ख़ैर, बात नेपाल में इंडियन मीडिया के विरोध की है.  मुझे लगता है कि नेपाल में इंडियन मीडिया की  रिपोर्टिंग और उसके तौर-तरीको पर जानबूझ कर मुद्दा  बनाया जा रहा है। मैंने इंडियन मीडिया की कई ऐसी  रिपोर्ट भी देखी हैं जो नेपाल के लोगों की जीजीविषा  बता रही थी, वहां के लोगों की जिंदगी के संघर्ष को  जुबान दे रही थी। मैं उन्हीं का जिक्र कर रहा हूं जिनकी  रिपोर्ट मैं देख पाया हूं। सीनियर जर्नलिस्ट दिबांग की  रिपोर्ट मैंने देखी जिसमें स्टोरी थी कि एक ऐसी  गर्भवती महिला भूकंप के वक्त बच गई और अब एक  बच्चे को जन्म दे चुकी है। भूकंप में विनाश लीला के  बीच कुदरत ने एक सृजन भी किया। बताईए क्या  गलत हैं इस तरह की रिपोर्टिंग में ??? कुदरत के कहर का जिक्र करते हुए कुदरत के करिश्मों और नेपाल के लोगों की जीजीविषा को बताने पर क्या किसी समझदार आदमी से उम्मीद कर सकते हैं कि वो नेपाल में भारतीय मीडिया से कहे कि -#GoBackIndianMedia ???

भारतीय मीडिया, नेपाल में पल-पल के घटनाक्रम की गवाह बन रही है। भारत ही नहीं बाकी देशों के रेस्क्यू ऑपरेशन का जिक्र हो रहा है। सीनियर जर्नलिस्ट  ह्यदेश जोशी काठमांडू से बता रहे हैं कि चायना सरकार ने ''स्नैक आई'' इक्विप्टमेंट भेजा है जिससे मलबे में दबे लोगों को कैमेरे के जरिए तलाशा जा सकता है। क्या ये बेवजह की रिपोर्टिंग हैं ??? काठमांडू में खुले मैदान में पड़े लोगों के बीच अगर कोई फसाद हो रहा हो तो मौक़े पर खड़ा रिपोर्टर क्या करें ??? जब अव्यवस्थाओं की कहानी कहने के लिए उसे विजुअल्स मिल रहे हैं और ऐसे विजुअल्स, जो खुद कहानी बयां कर दें तो क्या गलत हैं इसमें ???  क्या मीडिया का ये बताना गलत हैं कि नेपाल में त्रासदी के वक्त भी कुछ लोग लूटपाट में लगे हुए हैं, वहां की आर्मी के इंतजाम और सरकार इन्हें रोकने में विफल हो रही है। लोग कह रहे हैं कि भारतीय मीडिया का अंदाज ऐसा है कि नेपाल की कवरेज नहीं बल्कि किसी टीवी सीरियल की शूटिंग की जा रही है। 

टीवी देखते हुए जो कार्यक्रम,सीरीयल आपको रिमोट कंट्रोल की जद में लगती है। उसे बनाने के लिए कितने लोगों का इन्वॉल्वमेंट होता है ? मीडिया पर इस तरह की टिप्पणी करने वाले लोगों में बहुत कम लोगों को इसका अंदाजा होगा...! यकीन जानिए, कि टीवी सीरियल बनाना भी कोई आसान या कम जिम्मेदारी भरा काम नहीं है। ये तो फिर त्रासदी में रिपोर्टिंग का मामला है। फील्ड से जानकारियां जुटाने के लिए सो कॉल्ड रिस्पोंसिबल ऑफिशियल्स और लीडर्स, रिपोर्टर्स और कैमेरापर्सन्स को कितना आगे-पीछे भगाते हैं, ये मीडिया वाले बखूबी जानते हैं।  कहने तो सिर्फ ये ही कह कर काम चलाया जा सकता है कि भूकंप के बाद नेपाल बर्बाद हो गया। तो क्या सिर्फ ये कहने भर से काम चल जाएगा ? फिर मत कहिएगा कि मीडिया ज्यादा विश्वसनीय होना चाहिए, मौक़े पर खडा होना चाहिए । क्योॆकि विश्वसनीयता के लिए जिस तरह के विजुअल्स और बाइट्स चाहिए उसे तो आपने नैतिक मूल्यों की बेरिकेटिंग में रख दिया है। आप खुद सोंचिए मशीनी कैमेरे को इंसान की आँखों की तरह इस्तेमाल करवाना क्या आसान काम है ??? 

बर्बादी की दास्तान को दिखाने के लिए आपको बताना होगा कि उसका अतीत क्या था और अब वर्तमान क्या है। मीडिया इन हालातों को दिखाने के लिए अपने तरीके से शूटिंग भी ना करे ??? ऐसा भी क्या गलत कर दिया नेपाल में इंडियन मीडिया ने !!! नेपाल की त्रासदी के वक्त ये पहला मौक़ा है जब भारतीय मीडिया ने इसे गैर मूल्क में अपनी प्रभावी दस्तक दी है। फिर भी गो बैक इंडियन मीडिया का नारा बुलंद हो रहा है ... मुझे लगता है कि वजह कुछ और है। 

दरअसल, सार्क देशों में ये पहला मौक़ा है जब किसी देश में हुई त्रासदी कवर करने भारतीय पत्रकार इतनी बड़ी तादाद में पहुंचे हो। त्रासदी ही नहीं, हर मौक़े पर भारतीय मीडिया देश के बाहर कदम रखकर अंतर्राष्ट्रीय माहौल से जूड़ रहा है। लंदन, न्यूयॉर्क,आस्ट्रेलिया,न्यूजीलैंड,कनाडा, जाने कहां-कहां खुद पहुंच रही है भारतीय पत्रकारों की टीम। एक दौर था जब इंडियन मीडिया बीबीसी, रायटर,सीएनएन, रशियन एजेंसी तास पर निर्भर थी। वो दौर तो मैंने ही देखा हैं जिसमें देश के अखबार या रेडियो चाहे जितना लिख दें, चाहे जितना बोलें लेकिन खबर पर मुहर बीबीसी रेडियों की न्यूज़ पर चलने के बाद ही लगती थी। 


आज नेपाल त्रासदी की रिपोर्टिंग में भारतीय मीडिया सबसे अव्वल है। भारतीय पत्रकारों की समझ,संसाधन और प्रजेन्टेशन को अंतर्राष्ट्रीय मीडिया आँखे चौड़ी कर देख रहा है। बात सिर्फ नेपाल की नहीं बल्कि कई देशों में त्रासदी से लेकर क्रिकेट जैसे मसलों पर इंडियन मीडिया नेपाली,पाकिस्तानी,श्रीलंकन मीडिया के साथ मंच साझा करने से नहीं चूक रहा। बुलेट ट्रेन का नजारा आपको दिखाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय न्यूज एजेंसियों के भरोसे रहने के बजाए इंडियन मीडिया खुद चीन और जापान में जाकर बुलेट ट्रेन में सफर कर रहा है। मीडिया में विदेशी निवेश ने भारतीय इलेक्ट्रोनिक मीडिया की उड़ान को नई ऊंचाइयां दे दी है। भले ही आप इसे मीडिया में विदेशी निवेश कह दीजिए या फिर देश के विकास की रफ्तार का असर, लेकिन अब भारतीय इलेक्ट्रोनिक    मीडिया, देश की सीमाओं को लांघने के लिए बेताब  नजर आता है। सत्ता से कितना पास और कितना दूर  है  हमारा मीडिया, ये अलग बहस का विषय हो सकता  है  लेकिन पूरे दक्षिण एशिया में इंडियन  इलेक्ट्रोनिक  मीडिया की अलग पहचान बन रही है।  अंतर्राष्ट्रीय  जगत में एक ताकतवर मीडिया के रूप में  स्थापित हो  रही है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की मीडिया का  नया चेहरा दुनिया देश रही है।  भारतीय  मीडिया की  साख का असर हैं कि नेपाल में अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों  की रिपोर्टिंग देखने और पढ़ने के तलबगारों की मांग  न के बराबर रह गई है।

 हिन्दी हो या इंग्लिश, सूचनाओं की हर खुराक आपको  देश की मीडिया मुहैया करवा रही हैं। ऐसे मौके पर  मान लिजिए कि ट्विटर हैंडल पर कोई टिप्पणी चली,  तो क्या इसे भारतीय मीडिया के मजाक का जरिया बना देंगे आप ...???  अंतर्राष्ट्रीय मीडिया दिवस के ऐन मौक़े पर बीबीसी ने ट्विटर हैंडल #GoBackIndianMedia की विस्तार से बीबीसी ने जिस तरह से अपनी बेवसाइट पर खबर दी और इंडियन इलेक्ट्रोनिक मीडिया की भूमिका की चर्चा की वो वाकई चौंकाने वाला है। क्योंकि जिस तरह से भारतीय मीडिया ने पाकिस्तान की ओर से नेपाल में राहत सामग्री में बीफ भेजे जाने का मुद्दा उठाया, राहत के कामों को दर्शाया, पूरे नेपाल के चप्पे-चप्पे की खबर दी वो खबरों के लिहाज से तो वाकई तारीफ-ए-काबिल है। ये बात सही है कि भारतीय मीडिया अभी अतिरेक से भरा हुआ है। लेकिन ये भी सच हैं कि अतिरेक और अतिउत्साह में ही सही लेकिन भारत का पत्रकार वहां भी पहुंचा जहां अब तक नेपाली सरकार की राहत नहीं पहुची थी। 


अंतर्राष्ट्रीय मीडिया नेपाल में भूकंप त्रासदी को उस इन्टेन्सिटी से उठा तक नहीं पाया। हालाँकि इसके पीछे हमारी साँझा संस्कृति और भाषा भी एक बड़ी वजह रही। हमें टीवी पर देख कर लग ही नहीं रहा हैं कि ये मामला किसी गैर मूल्क का है, हम इस त्रासदी से ऐसे ही जुड़ गए हैं मानों भारत के किसी राज्य में ये त्रासदी हुई हो। क्या इसका क्रेडिट आप इंडियन मीडिया को नहीं देंगे ...??? हमारे टीवी चैनल्स ने हिन्दी और इंग्लिश दोनों तरह की भाषाओं के भारतीय दर्शकों की मांग पूरी की है। भारतीय मीडिया की सक्रियता से वाकई नेपाल सरकार पर दबाव बढ़ा होगा, क्योंकि  इस दबाव का असर भारत सरकार पर भी नजर आ रहा है। त्रासदी के वक्त नेपाल पहुंचने में भारतीय मीडिया, भारतीय राहतकर्मियों से कतई पीछे नहीं रहा। ऐसे में सवाल ये उठता हैं कि फिर नेपाल के किन लोगों के हवाले से #GoBackIndianMedia अभियान चलाया जा रहा है ?


मेरा मानना है कि जिस भूकंप ने अस्सी फीसदी काठमांडू को तबाह कर दिया हो, वहां लोग वाकई ट्विटर हैंडल के जरिए इस तरह का कोई कैंपन चला रहे हैं और इसे नेपाली जनता का भारी समर्थन मिल रहा है, तो मुझे विश्वास कम है। 

चलिए फिर भी ऐसा हो रहा है तो नेपाल के कितने लोग इससे जुडे होगें ??? ...आज के हालात में बिजली तक तो ठीक से मयस्सर नहीं है नेपाल में . तो इंटरनेट कहां से रहा है , वो भी इतना कि भारतीय मीडिया विरोधी कैम्पेन सोशियल मीडिया पर वायरल हो जाए।  जाहिर हैं नेपाल से ज्यादा ये हैंडल पाकिस्तान,चीन या बाकी देशों के काम आ रहा है। मीडिया की संवेदनशीलता हमेशा एक मुद्दा रहा है, हो सकता है कि इस बार भी रहा हो लेकिन आखिर अचानक नेपालियों के मन में इतनी नफरत क्यों ? 

अगर वाकई इतनी नफरत हैं तो फिर सिर्फ मीडिया पर ही निशाना क्यों ??? दरअसल, नेपाल काफी अर्से से राजनीतिक और कूटनीतिक मोर्चों पर अधरझूल में रहता आया है। भारत से पुराने संबंधों के बीच नेपाल में ऐसे नेताओं की जमात भी कम नहीं जिन्हें चीन का साथ ज्यादा सुहाना लगता है। वहां भारत के खिलाफ ये प्रचार हैं कि हिन्दुस्तान, नेपाल की अस्मिता को कब्जे में ले लेगा। भारत का स्वाभाविक साथी होना वहां के नए नेताओं को इसीलिेए भी पसन्द नहीं क्योंकि वहां के नए नेताओं को नया मुद्दा चाहिए। पर्यटकों की बड़ी आमद के फेर में नेपालियों के कई देशों से रिश्ते बन रहे हैं और वो नहीं चाहते कि नेपाल अपनी जरूरतों के लिए सिर्फ भारत तक ही सीमित रहे। इसी कड़ी में चीन और सार्क के कई देश भी अपनी भूमिका निभा रहे हैं। 


मुझे लगता है कि इस अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में  इंडियन मीडिया सॉफ्ट टारगेट बन गया, ये शुरुआत भर हैं अभी मीडिया तो कल भारत सरकार की भी बारी आएगी। हो सकता है कि नेपाल अपने अंदरूनी दबाव के चलते भारत को मदद करने से ही इंकार भी कर दे। लेकिन हमें इसका अभी अहसास नहीं हो रहा। अभी तो हम लुत्फ ले रहे हैं कि देखों किस तरह से इन टीवी चैनल वालों की फजीहत हो रही है। हम तो सोशियल मीडिया में   चल रहे किसी भी कैंपन का हिस्सा बन सकते हैं,      चाहे वो  भारतीय मीडिया के खिलाफ ही क्यों न हो.

 हमारे देश के लोग    भी #GoBackIndianMedia का  हिस्सा बनकर      दुनिया के सामने अपनी मीडिया  को बेवकूफ साबित  करते हुए माफी मांग रहे है, खुद  अपने घर के चिराग  को कोस रहे हैं।  ये बात सही हैं  कि आप इंडियन  इलेक्ट्रोनिक मीडिया के तौर-  तरीकों को सौ फीसदी  सही होने का सर्टिफिकेट नहीं  दे सकते । भारत की  मीडिया को किसी भी घटना  की कवरेज दिखाने के  लिेए एक दायरा तय करना  होगा। आप दिन भर  टीवी पर एक घटनाक्रम  दिखाकर बाकी राज्यों के  साथ अन्याय नहीं कर  सकते। लेकिन इसके पीछे टीआरपी का खुला खेल  है। जी हां, ये सच हैं कि हम  टीआरपी के ऐसे खेल के  खिलाड़ी हैं, जिस खेल के रूल्स और रेग्यूलेशन हमें ही ठीक से नहीं मालूम। इसीलिए जिस माहौल में ज्यादा टीआरपी मिलती है, उसी माहौल में चाहे-अनचाहे ढ़लना पड़ता है सभी को। अब ये व्यवस्था ऐसी क्यों है ये बहस का अलग विषय है। हमारी मीडिया कितनी संवेदनशील है और कितनी नहीं, और क्यों नहीं बन पा रही है, इसके पीछे यहीं वजह है। ये कहना आसान है कि टीवी चैनल टीआरपी का खेल खेलते हैं। लेकिन कौन खेलना चाहता हैं ये खेल ? क्या मीडिया खुद इच्छुक है या फिर बाजार मजबूर कर रहा है। आज की तारीख मे टीआरपी हासिल करना चैनल्स के लिए उतनी ही जरूरी है जितनी आपके लिए सांस लेना। अगली बार टीआरपी पर विस्तार से बात करेंगे लेकिन अभी इलेक्ट्रौनिक मीडिया को घेर रहे लोगों से इतना कहना चाहता हूं कि ज़रा रूकिए साहब !!!  किसी भी व्यवस्था पर इतनी तोहमतें मत लगाईए कि हर बात एक ढोंग नजर आए,इसमे आखिरकार नुकसान तो हमारी डेमोक्रेसी का ही है।


मैं, ये नहीं कहता कि इंडियन मीडिया बेदाग़ है। लेकिन हमारे सिस्टम में दूध का धुला हैं कौन ??? कम से कम मीडिया में जो गलत हैं या सही है वो आप समझ तो सकते हैं, आप महसूस तो कर सकते हैं। वरना तो देश की राजनीति कई ऐसे घोटालों से भरी पड़ी है जिनकी सच्चाई सामने आने में कितना वक्त लग जाए। मीडिया तो अपने एक कदम पर ही आपकी समीक्षा और पड़ताल का सामना करता है, उसे अगर झूठ भी दिखाना है तो सोंचिए आपके लिए सच के कितने मुलम्मे तैयार करने होंगे मीडिया को ??? 


आपको मालूम हैं कि इंडियन इलेक्ट्रोनिक मीडिया 90 के दशक में तैयार हुआ है और अभी 2015 चल रहा हैं यानि हमारी इलेक्ट्रोनिक मीडिया की उम्र  25 साल से ज्यादा नहीं। अब खुद आप अपने घर में 25 साल के नौजवान को देख लिजिए। वो जो कर रहा है, करना चाहता है ... वहीं है इलेक्ट्रोनिक मीडिया का चरित्र।आप आप अपने घर के नौजवान को उत्साही कह सकते हैं, जोशीला कह सकते हैं, रिस्क टेकर कह सकते हैं लेकिन गैरजिम्मेदार नहीं कह सकते क्योंकि उसे गैरजिम्मेदार कहने के लिेए आपको उसके और उम्रदराज़ होने का इंतजार करना होगा। देखना होगा कि वो जिंदगी के इम्तिहान से कैसे गुजरेगा ...। अगली बार टीआरपी के खेल पर खुल कर होगी बात...

...लेकिन अभी चलते-चलते इलेक्ट्रोनिक मीडिया को कोसने वालों के लिए गालिब का ये शेर.


                                                 हर बात पर कहते हो कि तू क्या है 

 तुम ही बताओ ये अंदाज-ए-गुफ्तगू क्या है ??

 

 - विशाल सूर्यकांत शर्मा

Contact_91-9001092499

ईमेल- vishal.suryakant@gmail.com

contact_vishal@rediffmail.com 

( लेखक पत्रकार - फर्स्ट इंडिया न्यूज़,राजस्थान में इनपुट हैड हैं) 


शनिवार, 2 मई 2015

मैंने इंसां को बूतों में ढ़लते देखा....


                        मैंने इंसां को बूतों में ढ़लते देखा....    

                                       

                                        - विशाल 'सूर्यकांत' शर्मा - 
इन दिनों मूर्तियों का गज़ब चलन चल पड़ा है। कहीं भी, किसी भी चौराहे पर देख लो या किसी भी मूर्ति बनाने वाले की दुकान में झांक लो आपको भगवान की कम और इंसानों की मूर्ति ज्यादा नज़र आएंगी। बताईए ज़रा,... अच्छे खासे जिंदा इंसान की तो ठीक से कद्र नहीं कर पाते हम ... और उसके गुजरने के बाद चल पड़ते हैं एक मूरत बनवाने । एक दौर था जब मूर्तिकार सिर्फ भगवान की मूरत बनाते दिखते थे लेकिन लगता है कि अब तो भगवान से ज्यादा कीमती हो चली है इंसान की मूरत। भगवान को किसने देखा, कोई भी नाक-नक्श बना दो, बस मनभावन मूरत होनी चाहिए लेकिन इंसानों में नाक-नक्शे का खास ख्याल नहीं रखा तो मुश्किल होगी। नेताजी के समर्थक गुस्से में आ सकते हैं, गुरूजी के चेले भड़क सकते है । मूर्तिकारों के लिए ये काम तलवार की नोंक पर चलने से कम नहीं है। ख़ैर ये तो बात सिर्फ मुद्दे की शुरूआत करने के लिए थी। 

हंसी-मजाक की बात में मुद्दा जरा गंभीर निकल गया है...आजकल वाकई इंसानों की मूर्तियां ज्यादा बन रही है। इसे राजनीति का रंग कहें या फिर किसी को लेकर सम्मान प्रकट करने का आसान रास्ता ... लेकिन इंसानी मूर्तियां ज्यादा बन रही है। इंसानी मूर्तियों की पूछ तो इंसान से भी ज्यादा है।  67 सालों की राजनीति ने देश का शायद ही कोई ऐसा प्रमुख चौराहा छो़ड़ा होगा जहां किसी नेता की मूर्ति नहीं लगी होगी। गांधी चौराहा, पटेल चौराहा, अम्बेडकर चौराहा। ये शुरुआती दौर था जब राजनीति सिर्फ राजनीति के गलियारों से होकर गुजरती थी। एक वक्त बाद, समाज और धर्म की सियासत शुरु हुई तो गली-चौराहों पर ऐसे संत-साधूओं और समाजसेवियों की मूर्ति लगने लग गई जो नेताओं की धार्मिक और सामाजिक राजनीति का जरिया बन सकें। लेकिन आपको इस बात का अंदाजा है कि अब मूर्तियां बनाने का शौक किस हद तक जा पहुंचा है ??? भगवान से महा
पुरूषों तक और फिर आम पुरुषों को महापुरुष साबित करने तक, हर कोई चाहता है अपनी मूर्ति का लगवाने का सम्मान। इस होड़ में परिवार के लोग भी पीछे नहीं है।  

  जो मैं अब लिख रहा हूं शायद वो पहलू अब तक अनकहा है लेकिन सच्चाई की बुनियाद पर है। राजनीति और धर्म के गलियारे से निकली मूर्तियां स्थापित करने की परम्परा शहीद परिवारों तक भी चल पड़ी है। मैं शहीद मूर्ति लगाने का विरोधी नहीं हूं लेकिन ये भी इस मामले का व्यावहारिक पक्ष ये भी हैं कि जिन परिवारों में शहीद हुए, उनके बीच में ही मूर्ति लगाने की अनचाहा और अनकहा कम्पिटिशन शुरु हो गया है। शहीद परिवारों में सामाजिक दबाव का ऐसा ताना-बाना बुना गया कि जिससे शहीद परिवार के लिए शहादत के बाद एक ऐसी रस्म बन गई हैं कि अगर मूर्ति नहीं लगी तो ना जाने शहादत का कितना बडा अपमान हो जाएगा  ???  परिवार में कोई शहीद हो गया तो मातम के साथ ये भी जरूरी है कि वो अपनी जमीन का एक बड़ा हिस्सा मूर्ति लगाने के लिए दें, शहीद परिवार के लोग शहीद की महंगी मूर्ति बनाएं और फिर उसके अनावरण में बड़े से बड़े नेता को बुलाकर अनावरण कार्यक्रम करें और लाखों खर्च करें। जिस शहीद की प्रतिमा का अनावरण, जितने बड़े नेता से हुआ, जितनी बड़ी जमीन पर स्मारक बना, जितना ज्यादा खर्च हुआ, उसे शहीद के सम्मान और परिवार की भावना से जोड़ दिया। इससे दुखद बात और क्या होगी कि जिन शहीद परिवारों के साथ गांव के, बिरादरी के रसूखदार नहीं जुटे, उनकी मूर्तियां सालों तक अनावरण के लिए नेताजी के आने का इंतजार करती रही। अखबारों में ये रिपोर्ट खुलकर नहीं आई लेकिन किसी शहीद परिवार से पूछिए तो ये सच्चाई खुलकर सामने आ जाएगी।
लगी हुई मूर्तियों की सियासत का अब तो ये आलम हैं कि लगता है कि सही सलामत मूर्ति लाख की और खंडित हो जाए तो सवा लाख की....मूर्ति में कोई मामूली टूट-फूट कोई कर दे तो शहर की सोई पड़ी सियासत करवट लेने लगती है...अक्सर अखबारों में पढने में आता है कि कोई सिरफिरा पत्थर की मूर्ति को खंडित कर गया तो पूरे शहर भर में बवाल खड़ा होने लगा। आज भी प्रतिमाएं के साथ टूट-फूट होती है तो जाति, समाज या पार्टी के नेता अपनी बिखरी सियासत को संवारने में जुट जाते हैं। नए नेताओँ के लिए तो टूटी-फूटी मूर्तियां सियासी जमीन तैयार कर रही है।  चलिए अब बात करते हैं कि कैसे जिंदा इंसान की अनदेखी होती है और कैसे उनकी मौत के बाद बूत लगाने की मांग होने लगती है। इसकी बानगी आप राजस्थान के दौसा जिले के गजेन्द्र सिंह की कहानी में देखिए। दिल्ली के जंतर-मंतर में सरेअाम फांसी पर लटकने वाले गजेन्द्र सिंह की जीते जी भले ही ना पूछ हुई हो लेकिन मौत के बाद चर्चा में आते ही मूर्तियां बननी शुरु हो गई। ये संवेदनाओं के राजनीतिक इस्तेमाल की चरम अवस्था है। गजेन्द्र सिंह की मौत को लाखों में तौलते हुए एक के बाद एक कई राजनीतिक दल और पार्टियां परिवार को चैक थमा गई। ऐसा लगा कि मानों दुख जताने नहीं बल्कि गजेन्द्र सिंह के नाम सियासत करने की ठेकेदारी की एवज में कुछ रकम देने आए हों। परिवार से मिलने के बाद गजेन्द्र के अपने तो घर में सिमट गए और गजेन्द्र सिंह के नाम की सियासत देश-दुनिया में चल पड़ी।  गजेन्द्र की मौत एक हादसा था, मगर सियासत का रंग देखिए कि एक इंसान की मौत का ऐसा तमाशा बना दिया कि हर किसी को मौत में अपनी मरी पड़ी सियासत में जिंदगी नजर आ रही है।
गजेन्द्र की मौत पर ऐसा खुला नाच तो कभी सामने नहीं आया। सब के सब आमादा थे कि कैसे गजेन्द्र की मौत को भुनाया जा सके। टीवी चैनल्स टीआरपी बढ़ा ले गए, भाजपा वाले आप पार्टी को घेर गए, आप पार्टी वाले दिल्ली पुलिस को जिम्मेदार बना गए और अपनी जमीन तलाश रही कांग्रेस दोनों को गरिया रही है। गजेन्द्र की मौत का शो ऐसा पॉपुलर हुआ कि अब उनकी मौत के बाद उनकी भी मूर्ति बनाने की होड़ शुरु हो गई है।
 राजनीति में पतन की शुरुआत तो ऊपर से ही होती है, अपनी मूर्तियां बनाने का शगल सारे नेताओं में रहता है लेकिन कार्यकर्ताओं की भावनाओं की दलील देकर काम होता है लेकिन मायावती ने तो मूर्तियों की सियासत ही बदल दी। बसपा की प्रमुख, जिन्होंनें लखनऊ में बने अम्बेडकर पार्क में एक दो नहीं बल्कि पूरे 1200 करोड़ की तो मूर्तियां ही लगा दी। इनमें से कुछ मूर्तियां तो अम्बेडकर और कांशीराम जी की थी तो बाकी सारी या तो उनकी खुद की या फिर उनके चुनाव चिन्ह हाथी की... । 
1200 करोड़ को मायावती की ओर से मूर्तियां लगाने का खर्च भर है। चुनाव आयोग को चुनावों के दौरान हर बार इन्हें ढ़कने के लिए और चुनावों के बाद फिर से साफ करने का जो खर्च करना पड़ेगा वो बिल्कुल अलग है।  

अब बताईए, जिस मूल्क में बुनियादी सुविधाओं के लिए बड़ी आबादी तरस रही हो, जहां बिजली,पानी,सड़क, शिक्षा,स्वास्थ्य, कुपोषण के हालात हों, जिस देश के समाज में  महिलाओं की दयनीय स्थिति हो, सिस्टम में भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे देश के विकास को चुनौती दे रहे हों वहां महापुुरुषों की बात महत्वपूर्ण हैं या फिर उनकी मूर्ति ??? 
जरूरी चीज़ क्या है ??? किसी शख्स की प्रतिभा का बखान या फिर प्रतिमाओं के जरिए पहचान ??? आजादी के बाद से कई मूरत लगा ली, इसका असर क्या हुआ ???  देश में डेमोक्रेसी के इस दौर में जीता जागता इंसान और उसकी बदहाली सियासती मुद्दा होना चाहिए ना कि कोई पत्थर की मूरत...। ज़रा एक पल के लिए सोंचिए कि ; गली-चौराहों पर जहां-तहां लगी मूर्तियों को एक दिन का जीवन फिर से मिल जाए तो क्या कुछ नहीं कहेंगी वो अपने नाम पर रचे जा रहे स्वांग पर, अपने नाम पर हो रही सियासत पर ??? 


मूर्तियों की इतनी पूछ हो क्यों रही है ??? ये सवाल जेहन में आया तो जबाव मिला कि इंसान और बूत परस्ती में बुनियादी फर्क ये हैं कि इंसान पलट कर जबाव देता है, वो सवाल पूछता है, वो समर्थन के साथ विरोध भी कर सकता है, वो सही और गलत की पहचान रखता है। वो अपने और बेगाने मिजाज को समझता है, वो साजिश और प्यार की बांतों को जानता है ...इसीलिए इंसान से ज्यादा बूत की पूछ है, इंसान से ज्यादा बूत की परस्ती होती है...। आजकल तो हालात ये हो गए हैं कि जीता जागता इंसान पसंद नहीं आता, बात दिलचस्प हैं कि सब चाहते हैं कि दूसरा शख्स उनके सामने बूत बन जाए। ऐसा बूत जिसे जब चाहो माला पहना दो, जब चाहो वीरानगी में छोड़ दो। इंसान की क्रिया और प्रतिक्रिया का हक़ छिनना एक तरह से उसे बूत बनाना ही तो है। 

वक्त मिले तो यूट्यूब का ये लिंक भी देखिएगा, जिसमें आपको मिलेगी इस मुद्दे पर मूर्तिकारों की दिलचस्प राय.... https://www.youtube.com/watch?v=J0L3_1Ombec

ख़ैर, हिन्दुस्तानी समाज में मूर्तिय़ों की ये परम्परा पुरानी है, कुछ विवाद या राजनीति हो रही है तो वो इस दौर की है, नहीं तो देश का इतिहास मूर्तियों की कलात्मकता की कहानियों से भरा पड़ा है। चलिए चलते, चलते.... मेरी बहुत पुरानी क्रिएशन यहां लिखना चाहता हूं, सिर्फ आप लोगों के लिए.... जो अपनी व्यस्तता के बावजूद इतनी देर से मेरी लिखी इबारत पढ़ रहे है....


जिंदगी को इस क़दर बदलते देखा
हमनें इंसा को बूतो में ढ़लते देखा 
ग़ैरों से गिले-शिकवे क्या करें कोई 
हमनें अपनों को गैरों में बदलते देखा। 

अपने बदले इन हवाओं की तरह 
महक बदलती इन फिजाओं की तरह 
सूरज तो वहीं खड़ा रहा अपनी जगह पर 
हमनें किरणों को तपिश बदलते देखा।। 

जिंदगी को इस क़दर बदलते देखा...
हमनें इंसा को बूतो में ढ़लते देखा 

नए थे तेरे शहर में नन्हें परिन्दों की तरह 
मालूम ना ये यहां लोग हैं दरिन्दों की तरह 
बस यूं ही उड़ चले थे अपने आसमान पर 
  मगर हवाओं को मेरे पर कतरते देखा ।।।  

जिंदगी को इस क़दर बदलते देखा...
हमनें इंसा को बूतो में ढ़लते देखा 

सभी हैरान हैं मेरे किरदार के क़द से ... 
नहीं मिला ये क़द, सिर्फ दुआओ में रब से 
फख्र नहीं कि आज आसमान हूं मैं, तेरी नजर में 
      मैनें अपनी जमीं को आसमान से मिलते देखा ।।।। 

जिंदगी को इस क़दर बदलते देखा...
हमनें इंसा को बूतो में ढ़लते देखा 
                                              - विशाल सूर्यकांत शर्मा ( जर्नलिस्ट)