मंगलवार, 12 जून 2018

सोशल मीडिया : सच बनाम वायरल झूठ की जंग


"मुझे मत मारो... प्लीज़ मुझे मत मारो,,मैं असमिया हूं...मेरा विश्वास करो, मैं सच बोल रहा हूँ....मेरे पिता का नाम गोपाल चंद्र दास है और मां का नाम राधिका दास है...प्लीज़ मुझे जाने दो."

                                                                फोटो - दिवंगत- नीलोत्पल,असम ( भीड़ के हाथों मारा गया शख्स)


- विशाल 'सूर्यकांत'

..बस इन्हीं आखिरी शब्दों के साथ,असम के नीलोत्पल का ये आखिरी वीडियो घूम रहा है। क्योंकि इसके बाद भीड़ ने कुछ नहीं सुना। ...नीलोत्पल और उसके साथी को पीट-पीट कर भीड़ ने मार डाला और फिर सरे राह शवों की बेकद्री की गई।

ये दर्दनाक दास्तान, सोशल मीडिया पर बच्चा चोरी की अफवाह के फेर में, असम में भीड़ के हाथों मारे गए दो निर्दोष युवकों की है। लोग मानते हैं कि सोशल मीडिया सिर्फ हमारी जिंदगी से जुड़ चुका है...मगर भीड़ के हाथों नृशंस हत्याओं के मामले बताते हैं कि सोशल मीडिया,मौत के कारणों से भी जुड़ रहा है। मोबाइल टू मोबाइल डर ,नफरत,हिंसा और एक तरफा नजरिया, परोसा जा रहा है। असम की इस घटना के चंद दिन पहले बैंगलुरू में भी ऐसी ही घटना हुई । राजस्थान के पाली के निमाज गांव का  25 साल का युवक कालूराम मेघवाल बैंगलुरू में भीड़ के हाथों मारा गया। किसी ने कालूराम को बैंगलुरू में एक बच्चे से बात करता देख लिया, बस  एक आदमी का शक,भीड़तंत्र में इस तरह बदला कि लोग एक युवक पर टूट पड़े।

कालूराम को इतना मारा,इतना पीटा और घसीटा गया कि जान चली गई। यहां भी जानलेवा पिटाई का वीडियो बनाया गया। बच्चा चोरी की ये अफवाह कैसे बैंगलुरू और असम तक पहुंची ये जानने और समझने का कोई सिस्टम सरकार के पास नहीं है। बैंगलुरू और असम की घटनाओं के वीडियो न जाने कितने सालों तक घूमते रहेंगे हमारे समाज में..?  न जाने कौन कब इसे हिन्दू-मुस्लिम का एंगल देकर वायरल करेगा, कौन इसे दलित-सवर्ण बताएगा और न जाने कौन इसे उत्तर भारतीय-दक्षिण भारतीय या नॉर्थ ईस्ट की तकरार का रंग डाल कर परोसेगा, किसी को नहीं पता।  ये नृशंस हत्याएं न जाने, किस शक्ल में फिर लौटेंगी क्योंकि ये कंटेट,वीडियो देश के करोड़ों मोबाइल में सेव हो चुका है। आज,कल या पता नहीं...दस सालों बाद, कोई सरफिरा ये जूनन फिर फैलाएगा और हमारे बच्चे, सिर्फ अफवाह और शक की बिनाह पर,अपने ही लोगों के हाथों इसी तरह मारे जाते रहेंगे।

सोचिए जरा, सोशल मीडिया के जरिए कैसा समाज तैयार कर रहे हैं हम ? सोशल कनेक्टिविटी के नाम पर बनें एप्स, समाज को तोड़ने का जरिया बनते जा रहे हैं। हमारे लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलते जा रहे हैं।

राजस्थान के राजसमंद में शंभू रैगर ने किस तरह अफराजुल नाम के शख्स की नृशंस हत्या की,कैसे शव को जलाया और इसके बाद कैसे राष्ट्र के नाम संबोधन दिया, देश के करोड़ों मोबाइल में ये वीभत्स वीडियो उस वक्त वायरल हुआ और आज भी सेव होगा।  शंभू रैगर जोधपुर जेल में बंद है,फिर भी उसके वीडियो मैसेज वायरल हो रहे हैं ।  देश में कहीं न कहीं, किसी कोने में नया शंभू रैगर तैयार करने के समर्थन में या अफराजुल की मौत का बदला लेने वाले मैसेज यकीनन वायरल हो रहे होंगे। देश में ऐसे एक दो नहीं बल्कि कई मामले हैं।  कथित गोरक्षकों का न्याय,दलित अत्याचार,पश्चिम बंगाल में हिन्दूओं पर अत्याचार की तस्वीरें, सीरिया में जुल्म,रोहिंग्या का जुल्म, राम मंदिर, कश्मीर की पत्थरबाजी, अरब में अपराधी को फांसी के फंदे पर लटका कर जनता के सामने न्याय, यूपी के किसी शहर में मोहर्रम के जुलुस पर हिन्दुओं पथराव, राम नवमीं के धार्मिक जूलुस पर मुस्लिमों का पथराव, गुरमीत राम रहीम से लेकर आसाराम समर्थक और विरोधियों का टकराव, किसी मासूम बच्ची से बलात्कार, किसी युवती को ब्लैकमेल कर वीडियो तैयार कर वायरल करना, नेताओं के बयानों में आलू से सोना बनाने की फैक्ट्री से लेकर पानी में करंट निकाल देने वाले बयान और उस पर साइन्टिस्ट गहलोत जैसे जुमलों का ट्रेडिंग में आना। राजनीति से लेकर नफरत तक सब कुछ  घर बैठे आपके मोबाइल पर परोसा जा रहा है। कहीं  उन्माद है तो कहीं उपहास, लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रुप में स्वच्छंदता परोसी जा रही है।


सोशल मीडिया के अनगिनत फायदे हैं मगर कायदे भी टूटते जा रहे हैं। सोशल मीडिया पर युवाओं की सक्रियता को देखकर देश में मानों एक फेक इण्डस्ट्री तैयार हो चुकी है। जो सोशल मीडिया पर सभी तरह का कंटेट परोस रही है। अभिव्यक्ति की आजादी का मामला है तो आईटी कानून को छोड़कर सोशल मीडिया के लिए न तो कोई पुख्ता नियम है, न ही कोई सेंसरशिप। कोई सामाजिकता बंधन नहीं न कोई बंदिश। सब कुछ कहने और ओरों को फॉर्वर्ड करने का खुला मंच है सोशल मीडिया..। संदर्भ देश के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की फेक फोटो वायरल करने से जु़ड़ रहा है। कौन हैं जो लोग ऐसा कर रहे हैं..? राजनीतिक मैसेज वायरल होते हैं और नेताओं से इसके बारे में पूछिएगा तो अक्सर जबाव आएगा कि "ये तो जनभावनाएं है,जनता स्वेच्छा से कर रही है" ..। सोशल मीडिया यूजर से पूछिए तो कहेंगें कि भई,डेमोक्रेसी है,हमारी अभिव्यक्ति की आजादी है। पुलिस से पूछिए तो कहेंगे कि बताइए कौन मैसेज फैला रहा है, अभी तुरंत उठाकर अंदर किए देते हैं। यानि हम सोशल मीडिया को ऐसा माध्यम बना चुके हैं जिसके कंटेट पर अतिवादी हो चले हैं। जी हां,अतिवादी...या तो अति सहज या अति संवेदनशील...

वर्चुअल वर्ल्ड का नाम है लेकिन हम वर्चुअल को एक्चुअल वर्ल्ड मान बैठे हैं। जिस तेजी से आइडिया आता है,उससे कई गुना तेजी से वायरल हो जाता है। वाकिया होने के बाद पता चलता है कि मामला जिसे सहजता से ले रहे थे वो तो अतिसंवेदनशील हो गया, किसी शहर में अराजकता फैल गई,फसाद हो गया या कोई नामी शख्सियत का फेक कंटेट पर जबर्दस्त ट्रोल हो गया। दरअसल,सहज और संवेदनशीलता के बीच समझदारी का रास्ता न सरकारों ने बनाया और न ही हमारी सोसायटी अपना रही है। सस्ते होते मोबाइल और डेटा के कारोबार ने देश ने अभिव्यक्ति की आजादी में वाकई क्रांति ला दी है और इस क्रांति की आड़ में फेक और आपत्तिजनक कंटेट,फोटो की फेक इण्डस्ट्री भी तैयार हो चुकी है। फेक इण्डस्ट्री का नतीजा ये कि लोगों के लिए मानहानिकारक,चरित्रहनन से लेकर जानलेवा तक साबित हो रहा है।


लोकतंत्र की सुविधा कैसे दुविधा ये बन जाती है इसका उदाहरण भी लीजिए,अगर आप कंटेट पर सख्ती करेंगे तो पुलिस,प्रशासन की अतिवादिता सामने आ जाती है। सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक कंटेंट या तंज कसने भर का मामला अगर सत्ता के ईर्द-गिर्द बैठे लोगों के खिलाफ तो पुलिस की अतिसक्रियता सामने आ जाती है। कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को याद कीजिएगा या शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे के निधन पर दो दिन के राजकीय अवकाश पर सवाल उठाने वाली मुंबई की दो बच्चियों पर हुई कार्रवाई को याद कर लीजिएगा। ये तो सिर्फ उदाहरण है,ऐसे कई मामले हैं जिनमें कौन 'एंटी सोशल एलीमेंट्स' है, ये सत्ता और रसूखदारों के हिसाब से पुलिस तय करने लगती है और अगर कार्रवाई न हो तो देश के प्रधानमंत्री,पूर्व प्रधानमंत्री,राष्ट्रपति,पूर्व राष्ट्रपति के फोटो की भी मॉर्फिंग होकर गलत कंटेट और इनफोर्मेंशन भी चल पड़ती है।


 राष्ट्रपिता महात्मा गांधी या देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू,सोनिया गांधी राहुल गांधी या आडवाणी और प्रधानमंत्री मोदी जैसी शख्सियतों का चरित्र हनन,मान-मर्दन कर रोज वायरल हो रहा है। व्यक्ति ही नहीं संस्थाएं भी नकारी जा रही हैं।  मीडिया को भांड, बिकाऊ मीडिया कहना, जजों को  बिकाऊ,राष्ट्रवादी,गैरराष्ट्रवादी कहने तक में गुरेज नहीं।  जज या  पत्रकार, सरकार, पुलिस, नौकरशाही कोई ऐसी संस्था नहीं है जिस पर अविश्वास को बढ़ाने वाली टिप्पणियां न हो रही हों, कंटेट वायरल न हो रहे हों। ऐसी टिप्पणियां हो रही हैं, जिसमें गोया हर शख्स, हर संस्था, हर सरकार अविश्वास के अतिरेक की चुनौती से रुबरू है।


यकीकन, लोकतंत्र है कुछ भी कहा जा सकता है, कुछ भी लिखा जा सकता है लेकिन आने वाली नस्लों में जाने-अनजाने हम देश की संस्थाओं के प्रति 'आशावाद' को  खत्म कर रहे हैं। आने वाली नस्ले, एक-दूसरे को कोसती हुई, उपहास करती हुई पैदा करने जा रहे हैं हम। जो सुधार नहीं बल्कि मोबाइल पर खामियों को गिनाती हुई बड़बड़ाती रहेगी। क्योंकि न्याय और विश्वास के सारे प्रतिमान तो हम तब तक ध्वस्त कर चुके होंगे। चंद गलत उदाहरण और खामियां होंगी मगर आप परसेप्शन ही अगर गलत बना लीजिएगा तो कहां और किससे उम्मीद बचेगी ?  नेताओंं के खिलाफ टिप्पणी तो लोकतंत्र में फिर भी एक हद तक स्वीकारी जा सकती है, मगर धर्म विशेष को लेकर कंटेट तैयार कर वायरल होना इस देश में आम घटनाओं में शामिल हो चुका है। अभी कैराना में नव निर्वाचित सांसद तबस्सुम ने सांसद बनते ही पहला मामला ये दर्ज करवाया है कि उनकी जीत के बाद कुछ लोगों ने राम पर अल्लाह की जीत का मैसज बनाकर वायरल कर ड़ाला है। इसी तरह इस्लाम और राम पर कोई मैसेज अचानक वायरल हो जाता है।


सोशल मीडिया का आर्थिक पहलू 

समस्या कितनी बड़ी है ये आर्थिक पहलू से भी समझ लीजिए। आर्थिक मामलों की संस्था आईसीआरआईईआर (ICRIER) की एक स्टडी का उदाहरण दे रहा हूं। भारत में सोशल मीडिया और इंटरनेट कोई कंटेट वायरल होते ही साम्प्रदायिक तनाव और कानून-व्यवस्था का मुद्दा बन जाता है। पुलिस,प्रशासन को इंटरनेट शटडाउन के सिवाय कोई रास्ता नहीं सूझता। 2012 से 2015 तक की स्टडी में सामने आया कि भारत में 'नेटबंदी' के चलते साल 2012 से 2015 तक 3 बिलियन डॉलर का अनुमानित घाटा हुआ। साल 2012 से साल 2017 के दौरान भारत में 16,315 घंटे के इंटरनेट शटडाउन की इकोनॉमी में कुल लागत 3.04 बिलियन डॉलर रही है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 12,615 घंटे के मोबाइल इंटरनेट शट डाउन की भारतीय अर्थव्यवस्था को कुल लागत लगभग 2.37 अरब अमेरिकी डॉलर थी और वहीं 3,700 घंटे के लिए मोबाइल एवं फिक्स्ड लाइन इंटरनेट के शटडाउन से भारतीय अर्थव्यवस्था को साल 2012 से 2017 के दौरान 678.4 मिलियन डॉलर का नुकसान हुआ।


मामूली तनाव से लेकर राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के मामले में जिस तेजी से पुलिस-प्रशासन इंटरनेट बंदी का फैसला ले लेते हैं, वो भारत की डिजीटल इंडिया मुहिम को भी करारा आर्थिक तमाचा जड़ रहा है। ऐसे मामलों से देश की छवि का क्या बन रही है ? तस्वीर का एक और रुख आप यूनेस्को की रिपोर्ट में देखिए 'दक्षिण-एशियाई प्रेस फ्रीडम रिपोर्ट 2017-18 में यूनेस्को की ओर से जारी रिपोर्ट के मुताबिक दक्षिणी एशियाई देशों में इंटरनेट बैन के कुल 97 मामले सामने आए हैं जिनमें से 82 मामले अकेले भारत में हैं। जबकि पाकिस्तान में सिर्फ 12 मामले हैं। भारत के इन 82 मामलों में आधे से ज्यादा मामले कश्मीर घाटी में सामने आए हैं। जहां सेना ने आतंकवादी गतिविधियों के चलते कई शहरों में लगातार इंटरनेट बैन करने का निर्णय लिया। पिछले साल घाटी में आतंकवदी और अन्य नागरिकों के मारे जाने के बाद होने वाले दंगों पर लगाम लगाने के लिए कई बार इंटरनेट बैन किया गया। कश्मीर का मामला वाकई राष्ट्र से जुड़ा हुआ है, ये समझ में आता है लेकिन क्या राजस्थान,बिहार,पश्चिम बंगाल,पंजाब,हरियाणा जैसे राज्यों में कश्मीर जैसा संकट होता है।


ये सवाल इसीलिए क्योंकि सबसे ज्यादा इंटरनेट बैन वाले राज्यों में इन राज्यों का नाम भी शामिल है। वीभत्स वीडियो,फोटो और कंटेट पर उदासीनता बरतना अाश्चर्यजनक सहजता के उदाहरण हैं और मामूली तनाव की स्थिति में इंटरनेट बैन जैसे ब्रम्हास्त्र का उपयोग हमारे सिस्टम की अति संवेदनशीलता को उजागर कर रहा है। सोशल मीडिया अब मनोरंजन और सोशल कनेक्टिविटी नहीं बल्कि ओपनियन मेकिंग यानि मत निर्माण का प्रभावी टूल बन चुका है। मगर न देश की संसद में कोई सवाल, न विधानसभाओं में इस पर कोई चिंता सामने आई है। देश में जितनी विविधता है उतनी ही विशालता भी है लेकिन वायरल कंटेट दोनों दायरों को लांघता हुआ चंद मिनटों में उत्तर,दक्षिण,पूरब,पश्चिम का सफर तय कर रहा है। कोई रोकने वाली एजेंसी नहीं,कोई टोकने वाले लोग नहीं। देश के पूर्व प्रधानमंत्री से लेकर मौजूदा तक पूर्व राष्ट्रपति से लेकर मौजूदा राष्ट्रपति तक सब ट्रोलिंग और फेक न्यूज के दायरे में है...। सरकारी सिस्टम कार्रवाई के मामले में या तो अतिवादी है या अति सहज...

तो फिर क्या होना चाहिए ..? 

ऐसा नहीं कि सोशल मीडिया की सिर्फ स्याह तस्वीर ही है, यकीकन वीवीआईपी कल्चर वाले इस देश में आम आदमी को सेलेब्रिटी बनने का हक सरकारों ने नहीं बल्कि सोशल मीडिया ने ही दिया है। देश के दूर-दराज में बैठा युवा सीधे पीएमओ से जुड़ रहा है। सरकार के काम-काज सोशल मीडिया के जरिए निपटाए जा रहे हैं। देश की रेल सेवाओं में खामियों का मुद्दा हो या विदेश में फंसे भारतीय की दास्तान...देश में सोशल मीडिया ने कई मामलों में कमाल कर रखा है।

1. इसका उपयोग पर पाबंदी लगाना कतई जायज नहीं...लेकिन फेक कंटेट,फोटो शॉप,मॉर्फिंग से ओपनियन बनाने और बिगाड़ने की प्रवृत्ति बंद होनी चाहिए। इसमें पहल आम जनता की नहीं बल्कि राजनीतिक दलों को करनी है। अपने-अपने आईटी सेल को सख्त निर्देश दे कि योजनाओं का प्रचार-प्रसार खूब करें लेकिन किसी विरोधी की छवि बिगाड़ने या झूठे कंटेट को वायरल न करें।

 2.  सरकारों की छोड़िए, आप खुद तय कीजिए कि आपकी ओर से सोसायटी को, दोस्तों ऐसे मैसेज नहीं भेजे जो धर्म,सम्प्रदाय पर चोट करते हों, देश के एक कोने में हुई घटना देश की समस्या नहीं है। इसे आप भी समझें और अपने बच्चों को भी बताएं कि वायरल मैसेज और भीड़तंत्र से देश नहीं चलाया जा सकता। सरकार,राजनीतिक दल,मीडिया,न्यायपालिका,कार्यपालिका पर टिप्पणी करना अलग बात है लेकिन उनके वजूद को नकारने की कोशिश का मतलब  लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं में अविश्वास जगाना है। अगर आप जिम्मेदार ओहदे पर है, सामाजिक प्रतिष्ठापूर्ण भूमिका में हैं, तो विशेष रुप से ध्यान रखें कि कौनसा मैसेज आगे फॉर्वर्ड करना है और कौनसा रोकना है। याद रखिए, आपसे समाज सीख रहा है।

3. एक सुझाव है ये भी है कि जब सब कुछ आधार पर निर्भर हो चला है तो क्यों न फेसबुक,वॉट्सएप को निर्देशित किया जाए कि देश के सभी सोशल मीडिया अकाउंट फेरिफाइड ही हों।

4.  ऐसी व्यवस्था हो जिसमें आपके मोबाइल पर मैसेज आने के साथ ही सबसे पहले मैसेज भेजने वाले या यानि कंटेट क्रिएटर का नाम और नंबर चस्पा हो। अगर ऐसा करेंगे कि तो एक फायदा ये भी होगा कि सोशल मीडिया अच्छे क्रिएटिव लोगों को उनकी वाजिब पहचान भी मिलेगी।


5. सबसे अहम बात ये कि सरकार ये तय करे कि देश में वो ही चेटिंग एप्स और सोशल मीडिया चलेंगी जिनके सर्वर देश में ही हो। ताकि संकट के समय हमें विदेश में बैठे ऑपरेटर्स से गुहार न लगानी पड़े। मुझे यकीन है कि दुनिया का कोई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म,चेटिंग एप इतनी बड़ी आबादी और यूजर्स वाले देश की सरकार के इन फैसलों को मानने से इंकार कर पाएगा...। सोशल मीडिया लोगों को जोड़ता है या नहीं, ये अलग बहस हो सकती है। लेकिन इस बहस की आड़ में समाज में विभेद, टकराव और अविश्वास की कोशिशों को कतई स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए...

बुधवार, 31 जनवरी 2018

#Budget वोट बैंक की उम्मीदों वाला या आर्थिक मजबूती वाला....जेटली के पिटारे से कैसा निकलेगा बजट ?

 बजट सत्र में 'वोट बैंक' खातों में घोषणाएं भरेगी मोदी सरकार ...!!!


 - विशाल 'सूर्यकांत'

प्रधानमंत्री के खास सिपाहेसालार और देश के वित्त मंत्री अरुण जेटली के लिए ये मौक़ा किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं...। वजह कई हैं मसलन, 2018 -2019 का बजट,मोदी सरकार के इस कार्यकाल का आखिरी पूर्ण बजट होगा। इस माहौल में मोदी सरकार को वोट बैंक भी साधना है और देश की तरक्की के लिए मजबूत आर्थिक फैसले भी लेने हैं। प्रधानमंत्री मोदी जरुर संकेत दे चुके हैं कि जरुरी नहीं कि देश को लोक लुभावन बजट मिले। लेकिन राजनीतिक परिस्थितियां ऐसी है कि वोट बैंक के खातों में मोदी सरकार को कुछ न कुछ राजनीतिक वादे और घोषणाएं भरनी होंगी। वित्त मंत्री अरुण जेटली जो बजट लाएंगे वो देश में जीएसटी लागू होने के बाद का पहला बजट होगा और सरकार का आखिरी संपूर्ण बजट। चुनौती ये भी है कि 2018 में आठ राज्यों में चुनाव होने हैं और ज्यादातर राज्य बीजेपी या एडीए शासित सरकारों वाले हैं। अगर बजट लुभावना नहीं हुआ तो यहां वोट बैंक को साधने में मुश्किल होगी। इस बजट और बजट सत्र में राजनीति रुप से मोदी सरकार को कुछ वोट बैंक के खातों को भरना होगा। कुछ अहम तबकों के लिए, बड़ी घोषणाएं करनी होंगी। आइए आपको बताते हैं कौनसे है वो वोटबैंक के खाते, जिनमें घोषणाएं और वादे भरने हैं मोदी सरकार को...



वोट बैंक खाता नंबर -1

आम उपभोक्ता, छोटे व्यापारियों की आस

वोट बैंक का पहला खाता आम उपभोक्ता,गृहस्थ और छोटे व्यापारियों का है। जीएसटी लागू होने के बाद,आम गृहस्थ के लिए अब महंगा,सस्ता की कोई अलग से फेहरिस्त नहीं आने वाली है। जीएसटी में सब कुछ समाहित है इसीलिए अलग-अलग वस्तुओं पर राहत, रियायत या टैक्स की अलग से कोई घोषणा नहीं होगी। एक्साइज जैसे तमाम इनडायरेक्ट टैक्स जीएसटी काउंसिल के हवाले हैं,इसलिए जेटली के बजट में ज्यादा कुछ करने की गुंजाइश नहीं। लेकिन पेट्रोल और डीजल के आसमान छूते दाम,रसोई गैस के दाम आसमान छूते रहे हैं। क्या इन्हें जीएसटी में शामिल किया जाएगा ? इस पर सभी की नजर रहेगी...सरकार की परेशानी ये है कि जीएसटी को लेकर कोई भी फैसला जीएसटी काउंसिल में होता है और डीजल,पेट्रोल पर राज्य सरकारें हैवी टैक्स कलेक्शन का हथियार केन्द्र को देने के लिए तैयार नहीं। बिना आम सहमति के ये काम हो नहीं सकता लेकिन पेट्रोल के रोज बढ़ते दामों पर आम जनता मोदी सरकार की ओर आस भरी नजर से देख रही है। ये काम मोदी सरकार के लिए अग्निपरीक्षा से कम नहीं।



वोट बैंक खाता नंबर -2

 नौकरी पेशा,बेरोजगार तबका  
मोदी सरकार के लिए इस बार के बजट में दूसरा बड़ा इम्तिहान, नौकरीपेशा और बेरोजगार तबका होगा। देश में तेजी से सर्विस सेक्टर बढ़ रहा है। वो बजट में सीधे रुप से दो चीजें बारिकी से देखेंगे कि इनकम टैक्स के स्लैब,पीएफ की दरों को लेकर मोदी सरकार अपने आखिरी पूर्ण बजट में क्या सौगात देने जा रही है। अगर इस दिशा में कुछ काम नहीं हुआ तो नौकरीपेशा तबका ना-उम्मीद हो सकता है,क्योंकि इसके बाद इस कार्यकाल में सरकार को ऐसा दूसरा मौका नहीं मिलने वाला। दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है रोजगार के अवसर पैदा करना। मोदी सरकार का मैक इन इंडिया कन्सेप्ट फिलहाल करिश्मा नहीं दिखा पाया है। इस पहलू को आप नकार नहीं सकते कि नोटबंदी, जीएसटी ने रोजगार की व्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया और रोजगार के मामले में मोदी सरकार अपने चुनावी वायदे के मुताबिक अब तक परफोर्म नहीं कर पाई है। आखिरी बजट में रोजगार सृजन की योजना क्या तैयार होगी और कैसे एक साल की अवधि में अमल में लाया जाएगा, ये दूसरी बडी अग्निपरीक्षा होगी क्योंकि पिछले चुनावों में, ये तबका मोदी सरकार के लिए पुख्ता वोटबैंक बना था।




वोट बैंक खाता नंबर -3
खेती और किसान

मोदी सरकार, सत्ता में आने के बाद जिस मुद्दे पर सबसे ज्यादा घिरी है वो खेती और किसानी है। भूमि अधिग्रहण से लेकर किसानों की कर्ज़ माफ़ी की मांग छाई रही। किसान आत्महत्या के मामले आते रहे हैं और राज्यों में किसान आंदोलन प्रभावी तरीके से उठे हैं। बीजेपी ने अपनी प्रयोगशाला कहे जाने वाले गुजरात में विधानसभा चुनावों के दौरान ग्रामीण अंचल में अपना जनाधार खोया और चंद सीटों के फासले पर सरकार बना पाई। मध्यप्रदेश,महाराष्ट्र,राजस्थान,तमिलनाडू समेत कई राज्यों में किसान आंदोलन की आंच हिंसक हुई।  सरकारी आंकड़ों के जरिए उजली तस्वीर बनाने की कोशिश हुई, किसान आंदोलन में विपक्षी पार्टियों पर आरोप लगाकर
सरकार अपना बचाव करती आई है लेकिन आखिरी पूर्ण बजट में किसानों के लिए क्या होगा, ये देखने लायक बात होगी। ख़ासकर तब जब मोदी सरकार 2022 में किसानों की आमदनी दोगुनी करने का वादा करती आई है। कांग्रेस यूपीए टू में किसानों का देशव्यापी 72 हजार करोड़ कर्ज माफ कर चुकी है। मोदी सरकार के दौर में 19 राज्यों में बीजेपी की सरकार है और किसानों को राहत देने के मामले में हर राज्य ने अपनी राजनीति के मुताबिक निर्णय किए हैं। ये बजट ऐसा होगा जिसमें केन्द्र सरकार की किसानों के प्रति खुली मंशा सामने आएगी। मोदी सरकार को किसान और ग्रामीण विकास की योजनाओं पर आखिरी बजट में जरूर कुछ करना होगा। ताकि शहरी और अमीर तबके की पार्टी के दुष्प्रचार का जवाब दिया जा सके। ये मुद्दा भी सरकार के लिए बड़ी अग्निपरीक्षा है।



वोट बैंक खाता नंबर - 4

महिलाओं की स्थिति

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी महिलाओं में खासे लोकप्रिय हैं। लेकिन देश में तीस सालों बाद आई पूर्ण बहुमत की सरकार ने महिला आरक्षण बिल को लेकर कोई पहल नहीं की है। प्रधानमंत्री मोदी महिला वोट बैंक को साधने का जतन करते रहे है। रसोई गैस को लेकर चलाई गई उज्जवला योजना की भी ब्रांडिंग भी महिलाओं को केन्द्र में रखते हुए की गई है। निर्भया फंड में राशि का उपयोग ही नहीं हो पाना भी महिला सुरक्षा को सरकारों की गंभीरता पर सवाल खड़े करता आया है।महिला स्वयं सहायता समूह, महिलाओं की आर्थिक समृद्धि के लिए मोदी सरकार को इस बजट में कुछ न कुछ ज़रूर देना होगा। ट्रिपल तलाक पर मुस्लिम महिलाओं को राहत देने का कदम उठाया लेकिन मुस्लिम महिलाओं के लिए फंड बनाए जाने की मांग सरकार के सामने उठती रही है। ट्रिपल तलाक की शिकार महिलाओं के भरण-पोषण को लेकर बजट में क्या सरकार क्या कुछ कहती है। सभी की नजर इस पर भी टिकी होगी।

वोट बैंक खाता नंबर -5


कोर इश्यू पॉलिटिक्स
2018 -2019 का आम बजट राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है। बीजेपी राम मंदिर,ट्रिपल तलाक,धारा 370,कॉमन सिविल कोड जैसे मुद्दों पर कोर्ट में मामले चलते रहे हैं लेकिन मोदी सरकार अब तक सीधे कुछ करने से बचती रही है। ट्रिपल तलाक में कुछ पहल की है लेकिन मामला राज्यसभा में जाकर अटक गया है।  मोदी सरकार का 2019 के चुनाव से पहले मोदी सरकार का यह आखिरी पूर्ण बजट सत्र है। जेटली के बजट में भले कुछ हो न हो लेकिन इस बजट सत्र में मोदी सरकार को अपने कोर इश्यू वाले पॉलिटिकल मुद्दो पर पहल करनी होगी। अप्रेल में राज्यसभा  की तस्वीर कुछ बदलने वाली है। राज्यसभा में 55 सदस्यों का कार्यकाल खत्म होगा। देश में बीजेपी और यूपीए शासित ज्यादातर राज्यों में राज्यसभा की सीटें रिक्त होने वाली है।  यूपी,हरियाणा,मध्यप्रदेश, राजस्थान,हिमाचल प्रदेश आंध्रप्रदेश,कर्नाटक,गुजरात, छत्तीसगढ़,बिहार,हिमाचल प्रदेश,ओडिसा की सीटों के बाद राज्यसभा में हर हाल में बीजेपी अपने समीकरण साधना चाहेगी। ताकि कोर इश्यू पर मोदी सरकार बड़े राजनीतिक फैसले ले सके। हाल ही में कुछ चैनल्स को दिए इंटरव्यू में, मन की बात में  खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहल की और देश में राष्ट्रपति अभिभाषण में दूसरा मौका था जब एक देश,एक चुनाव को लेकर मोदी सरकार की सक्रियता सामने आई। अगर ऐसा है तो ये भी संभावनाएं है कि 2019 की बजाए 2018 मे या उसके तुरंत बाद आम चुनाव हो जाएं। ऐसे में कोर पॉलिटिकल इश्यू वाले वोट बैंक के खाते में भी मोदी सरकार को इस बजट सत्र में कुछ न कुछ देना होगा

मंगलवार, 30 जनवरी 2018

क्या सच में बच्चों के लिए 'हानिकारक' बापू बन रहे हैं 'बाप' ..! घरेलू हिंसा के शिकार बच्चों की दास्तान..जरूर पढ़ें ...

       'बचपन' पर घरेलू हिंसा करते 'हानिकारक बापू '...!!!

 

- विशाल 'सूर्यकांत'

बचपन,अगर घर में महफूज़ नहीं होगा,तो और कहां होगा..? लेकिन आज का दौर ऐसा होने नहीं दे रहा।  चाहे-अनचाहे देश में अपने ही घरों में बच्चों के विरुद्ध 'घरेलू हिंसा' हो रही है। ताजा मामला राजस्थान के राजसमंद जिले में देवगढ़ थाना 'फूंकिया की थड़' गांव का है। यहां एक घर के भीतर बच्चों पर जुल्म का वीडियो वायरल हुआ है। दो मासूम बच्चों को,उनका पिता सिर्फ इसीलिए खूंटी से बांधकर पीट रहा है क्योंकि बच्चे मना करने के बावजूद बच्चे मिट्टी खाते थे और जहां-तहां गंदगी कर बैठते थे। बच्चों के चाचा ने वीडियो बनाया और वायरल कर दिया। मामला उठा तो पुलिस कार्रवाई हुई। बच्चों को पीटने वाला पिता गिरफ्तार हुआ, चाचा भी कार्रवाई की जद में आया। इस घटना की तरह ऐसा ही एक और मामला बेंगलूरु में भी सामने आया। 

 

देश के दो अलग-अलग मामले और घटनाक्रम एक जैसे ...। आप राजसमंद में बच्चों के साथ हुई मारपीट का पूरा 'वीडियो' देखें तो यकीकन सिंहर जाएंगे।  लेकिन बच्चों की मां,अब भी इसे सहज मामला बता कर पति पर कोई कार्रवाई नहीं चाहती। वो कह रही है - 'एक-दो थप्पड़ ही तो जड़े थे'। बच्चों पर घर में ही हो रही मारपीट के के मामलों में भारतीय परिवारों में  'मां' की क्या स्थिति होगी, ये अलग से समझाने की जरुरत नहीं। राजसमंद मामले में महिला आयोग के पंचायत स्तरीय सदस्यों ने मामला दर्ज करवाया तब पुलिस कार्रवाई हुई। गांव के लोगों का कहना है कि इन बच्चों का पिता, बच्चों के साथ ऐसे ही आदतन मारपीट करता रहा है। गांव के कुछ लोगों ने पुलिस को इसकी खबर भी की, लेकिन तब पुलिस वालों ने सुना नहीं, जब जब देश में ये वीडियो फैल गया तब पुलिस वालों को लगा कि कार्रवाई होनी चाहिए।

दरअसल, बच्चों के लिए 'हानिकारक बापू' के मामले नए नहीं है। देश में बच्चे, घरेलू हिंसा के शिकार होते रहे हैं। ये दीगर बात है कि इसका कोई ऑफिशियल आंकड़ा तब ही रिकॉर्ड होता है, जब शिकायत दर्ज होती है। गंभीर बात यह है कि आम तौर पर  परिवारों में बच्चों के साथ मारपीट को सामान्य रूप से लिया जाता है। ये धारणा बन गई है कि  बच्चों के साथ सख्ती न हो, तो वो बिगड़ जाते हैं। लाड़-प्यार के साथ थोड़ा डर बहुत जरूरी है। लेकिन 'डर' का दौर बढ़ता जा रहा है और घर वालों को ये अहसास तक नहीं कि उनके अपने बच्चे,अपने ही परिवार में, अपनों के ही हाथों, जाने-अनजाने 'घरेलू हिंसा' झेल रहे हैं। ये भी सच है कि देश में बच्चों के साथ घर में 'बुरे बर्ताव' का हर मामला,  राजसमंद या बेंगलुरु की तरह क्रूर और हिंसक हो लेकिन घर में किसी बच्चे की  उपेक्षा या उससे ज्यादा अपेक्षा हो या फिर बेटा-बेटी में फर्क या किसी एक पर अतिरिक्त दायित्व बोध थोपा जाए, बच्चों को अनावश्यक डर और धमकी भरे मिजाज का सामना करना पड़े। या फिर बच्चों के प्रति गैर जरूरी सख्ती बरती जाए, ये भी मामला घरेलू हिंसा से जुड़ता है।

अगर बच्चों को वक्त नहीं देते हैं तो भी आप जाने-अनजाने बच्चों को घरेलू हिंसा का शिकार बना बैठते हैं। बच्चों के कोमल मन पर ऐसा है कि जिस्मानी चोट से ज्यादा मन की चोट ज्यादा घातक होती है। क्योंकि मन की चोट, सोच और नजरिया बदल कर रख सकती है।

इस पहलू से देखें तो भारत में औसतन घरों में बचपन उस स्थिति में नहीं हैं, जिस स्थिति में होना चाहिए। अच्छी पेरेन्टिंग के लिए हमारा समाज,हमारे परिवार, अभी भी तैयार नहीं और न सरकारें देश की नई पीढ़ी के लिए सचेत है।

चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट्स डॉ.अखिलेश जैन के मुताबिक ऐसे बच्चे, जो घर में शारीरिक,मानसिक प्रताड़ना के शिकार होते हैं वो आगे चल कर या तो बहुत निम्न आत्मविश्वास और कमजोर निर्णय क्षमता के साथ जीते हैं या फिर परिवार के प्रति दुराव इतना हो जाता है कि वो समाज में भी सहज नहीं रह पाते और अापराधिक मामलों में लिप्त हो सकते हैं। जिन घरों में बच्चे प्रताड़ना के शिकार होते हैं,उन बच्चों के डीएनए तक में इसका प्रभाव रहता है। देश में वाकई ऐसे मामले बढ़ रहे हैं। 

एनसीआरबी के सरकारी आंकडे बताते हैं कि देश में हर घंटे एक बच्चा आत्महत्या कर रहा है। 2011 से 2015 के बीच पांच सालों में देश भर में करीब 40 हजार बच्चों ने आत्महत्या कर ली। क्या इसके पीछे घरेलू परिस्थितियों को आप नकार सकते हैं ? बच्चों के बर्ताव से जुड़ा दूसरा पहलू देखिए, देश में बाल अपराध की संख्या में तेजी से इज़ाफ़ा हो रहा है। चाहे चर्चित निर्भया मामला हो या दिल्ली के एक निजी स्कूल में साथी की हत्या का मामला, गंभीर मामलों में किशोर बच्चों के शामिल होने की घटनाएं बढ़ रही हैं। बाल अपराध के मामले इतने गंभीर माने गए कि देश की संसद में भी नए 'जुवेनाइल कानून' पारित किया गया जिसमें गंभीर अपराधों के मामले में 16 से 18 साल की उम्र के नाबालिग को वयस्क मान कर मुकदमा चलाने की मंजूरी दी है। चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट की राय में बच्चों के अतिवादी बर्ताव में घरेलू कारण सबसे प्रमुख है। निर्धन परिवारों के बच्चों की समस्याएं अलग और मध्यमवर्गीय परिवारों में कहानी अलग...आज के दौर की चुनौती है घर में मां-बाप,डिजीटल और वर्चुअल,सोशल मीडिया में  मशगुल हैं और बच्चे घर में अकेले हो चले हैं। अक्सर मां-बाप अगर परेशान हैं, तो उनके वक्ती गुस्से का खामियाजा अक्सर बच्चों पर ही निकल जाया करता है।  सवाल ये है कि क्या मां-बाप होने की जिम्मेदारी का मतलब बच्चों के साथ मारपीट का अधिकार है ? क्या हम अपनी उम्मीदों की गठरी, अपने बच्चों के सिर रखकर चलते हैं ? क्यों हम ये मान कर चलते हैं कि बच्चा दुनिया में आए और पैदा होते ही हमारी उम्मीदों पूरा करने का जरिया बन जाए ? आपकी तरक्की और आपकी जरूरतों की राह में  बच्चों का, मासूम बचपन पीछे छूट रहा है। घर के अलावा कहीं और ज्यादा वक्त बीतता है तो वो स्कूल है मगर यहां भी हालात कहां अलग हैं ?

देश में करीब 10 करोड़ बच्चे स्कूल का रास्ता नहीं जानते जबकि देश में शिक्षा का अधिकार लागू है। जो स्कूल जाते हैं वो कहां और कौनसा बचपन जीते है ? हमारे एजुकेशन सिस्टम में प्रोफेशनल अप्रोच के नाम पर टीचर और स्टूडेंट्स के संबंधों के मायने बदल चुके हैं। सरकारी सिस्टम में सुधार के नाम पर नए प्रयोग ही चलते आए हैं और निजी संस्थानों में  'टास्क बेस्ड टीचर्स' हैं। ज्यादातर टीचर्स के लिए अच्छा होमवर्क  और रिजल्ट देने वाले और न देने वालों की केटेगरी में बच्चे बंटते जा रहे हैं। फिर बस्तों का बोझ ऐसा कि मानों  पूरा स्कूल कंधे पर टांग दिया हो। स्कूल से  कुछ राहत मिली तो कोचिंग की टेंशन शुरु..। बचपन से उसका 'मलंग' अंदाज और 'बेफिक्री' छिन लेंगे तो कहां और कैसे बचपन सुरक्षित रह गया बच्चों का ?

 देश में बचपन की ही बात हो रही है तो ये आंकड़ा भी जान लीजिए कि कुपोषण से हर साल दस लाख से ज्यादा बच्चों की मौतें हो जाती है भारत में 5 साल से कम आयु के 21 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। 1998-2002 के बीच भारत में बाल कुपोषण 17.1 प्रतिशत था, विकसित होते भारत में 2012 से 2016 के दौरान बच्चों में कुपोषण के मामले बढ़कर 21 प्रतिशत हो गए। चाहे वो गरीबी हो,अज्ञानता हो या अनदेखी वजह हो, लेकिन हमारे बच्चे कुपोषण का दंश झेल रहे हैं। देश के कई हिस्सों में बच्चों की कुल आबादी का आधा हिस्सा बाल मजदूर है। देश में 5 से 18 साल की उम्र के तीन करोड तीस लाख से ज्यादा बच्चे बाल-मजदूरी कर रहे हैं। इन आंकड़ों को देखें तो लगता है कि बच्चों का बचपन हम बड़ों ने अपने जीवन से भी ज्यादा 'दुरुह' बना लिया है। देश में बचपन के सामने कई चुनौतियां खड़ी हैं। 

 

बचपन के सामने चुनौतियां घर और बाहर कम नहीं। आज भी बड़ी आबादी बच्चों को अस्पताल तक नहीं आने देती। घरेलू नुस्खों से इलाज या अंधविश्वासी तरीके अजमाए जाते हैं। बेटी हो तो इलाज के खर्च में हाथ रोकने की अमानवीय परिपाटी पीढ़ियों से चली आई और आज नया भारत बनाने की घोषणाओं में भी तस्वीर नहीं बदली है।  राजस्थान को ही लीजिए यहां कई हिस्सों में निमोनिया जैसी बीमारी का इलाज बच्चों को गर्म सलाखों से दाग कर किया जाता है। भीलवाड़ा और राजसमंद में ऐसे एक नहीं कई मामले हैं। बनेड़ा में दो साल की मासूम बच्ची पुष्पा को निमोनिया होने पर इतना दागा गया कि दर्द से तड़पते हुए उसकी सांसे टूट गई। तीन महीने की परी को निमोनिया हुआ तो आधा दर्जन जगहों पर गर्म सलाखें चिपका दी गई। 

कहने तो बच्चों का बचपन का हक़ दिलाने सरकारी सिस्टम में 'बाल-अधिकार संरक्षण आयोग' बने हैं, सरकारी विभाग भी काम कर रहे हैं मगर 'आती-जाती' सरकारों में सिस्टम जबावदेह कहां बन पाया है ? बाल आयोगों में राजनीतिक दखल भी कम नहीं। राजनीतिक नियुक्तियों की भरमार वाले आयोग में जब बच्चों के विरुद्ध अपराध को सवाल पूछे जाते हैं तो जबाव किसी सरकारी संस्था की मानिंद ही आता है। इन संस्थाओं का व्यावहारिक पक्ष है,राजनीतिक स्थितियों के मुताबिक इन संस्थाओं का असर घटता-बढ़ता रहता है।

देश में बच्चे परेशान हैं क्योंकि हमनें बचपन की परिभाषा बदल दी है। राजसमंद की ये घटना भारतीय परिवारों में बच्चों की स्थिति पर सोचने के लिए मजबूर करती है कि क्या अपने ही घर में असुरक्षित होता जा रहा है बचपन ? कौन है इन परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार ?

सबसे जरुरी बात ये कि हमनें बच्चों की देख-रेख,बच्चों की परवरिश को पूरी तरह 'पारिवारिक मामला' बना रखा है। विकसित देशों में सरकारें मॉनिटर करती है कि घर में बच्चे के साथ क्या सलूक होता है...हमें ये बात अजीब लगती है कि बच्चों को कैसे रखना है ये कोई सरकार कैसे सीखा सकती है ? मगर नार्वे की घटना को याद कीजिए जिसमें एक भारतीय दंपत्ति से  बच्चा इसीलिए नार्वे की सरकार ने छीन लिया क्योंकि वहां के नियमों के मुताबिक वो उसके सोने के लिए अलग से व्यवस्था नहीं कर रहे थे।  भारतीय समाज में बच्चों के लालन-पालन का 'अपना विशिष्ट चलन' है। सरकारें ज्यादा दखल नहीं दे सकती । भारत में भी बच्चे के कानूनी हक़ तो गर्भ में आते ही शुरु हो जाते हैं और घरेलू हिंसा समेत बाकी सारे मामले तो दुनिया में आने के बाद की समस्याएं है। देश में बाल अधिकार संरक्षण के पुख्ता कानून हैं पर कार्रवाई की कोई नजीर लोगों को याद नहीं।

दरअसल, मासूम बच्चे वोटर नहीं, इसीलिए 18 साल से पहले उनकी सुध लेना जनप्रतिनिधियों को भी नहीं सुहाता। संसद, विधानसभा में बच्चों के मामले में कुपोषण से मौत के मामले गूंजते हैं या फिर बेरोजगारी पर शोर-शराबा,हंगामा होता है। मगर इन दो मसलों के बीच एक बच्चा किन चुनौतियों को पार कर बचपन बीता रहा है, कैसे बड़ा हो रहा है ? ये पहलू राजनीतिक दलों को मुद्दा नहीं लगते। 

 

बच्चों की घरेलू हिंसा और प्रताड़ना का मुद्दा, न सामाजिक मंच पर सामने आता है और न ही धर्म,जाति की जटिलताओं में मुद्दे खोजती राजनीति इस ओर झांकती है। ये बात आखिर में जरुर रेखांकित की जानी चाहिए कि ऐसा नहीं है कि भारतीय परिवारों को बच्चों से प्यार नहीं, मुद्दा सिर्फ हम बच्चों के लिए भविष्य की दुनिया आज बनना चाहते हैं जबकि बचपन को चाहिए, अपने दौर की अपनी दुनिया । 

परवरिश के लिए जरुरी नहीं कि बच्चों को अपनी बनाई दुनिया में खींच लाएं, कभी आप भी बच्चों की दुनिया में चले जाया कीजिए.  

 

 -  विशाल 'सूर्यकांत'

  पत्रकार, लेखक

Please send your valuable Feedback on  Email - vishal.suryakant@gmail.com; Contact  - 09001092499

सोमवार, 29 जनवरी 2018

#Farmer 22 सालों में साढ़े तीन लाख से भी ज्यादा किसानों की आत्महत्या वाले देश में 2022 में कैसे तस्वीर बदलेगी...पढ़िए सरकार के दावों से अलग, देश के किसानों का प्रतिनिधि पक्ष इस लेख में ..


दोगुना कमाऊ किसान : कितनी हकीकत, कितना फसाना ?  

 - विशाल 'सूर्यकांत' 

​​​​देश की संसद में पेश आर्थिक सर्वे में एक बार फिर 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के वायदा दोहराया गया है। सरकार के इस दावे पर बात करें इससे पहले ये जान लीजिए कि अगर सरकार ऐसा करने में कामयाब हो जाती है तो देश के किसान की जिंदगी में क्या बदलाव आएगा ...बीते सालों के नेशनल सर्वे में दर्ज है कि देश में किसानों की आमदनी  2012-13 के सर्वे के मुताबिक 6,426 रूपए है। यानि रोज़ाना 214 रुपया।  उसमें भी सिर्फ खेती-किसानी से वो सिर्फ 102 रुपए कमा रहा है। गौर कीजिएगा ये किसान 'परिवार' की औसत आमदनी है। इस तस्वीर को बदलने का दावा अगर सौ फीसदी पूरा भी हो जाए तो 400 रुपए दैनिक,12 हजार रुपए मासिक और 80 हजार रुपए किसान परिवार की सालाना आमदनी होगी। जिन्हें 2022 में भारत विकसित होता दिख रहा है वो अमेरिका के किसान की सालाना आमदनी जरुर जान लें , अमेरिका में किसान, भारत के किसान से 70 गुना ज्यादा कमाता है। अब बताइए ज़रा कि दोगुना करके भी क्या वाकई देश में किसानों की तस्वीर बदल जाएगी ? आमदनी बढ़ेगी तो क्या 2022 तक खर्च न बढ़ने की कोई गारंटी दे रही है सरकार ?

सरकार ने 13 अप्रेल 2016 को किसानों की आय के मसले पर एक कमेटी भी बनाई। कृषि मंत्रालय के एक अधिकारी अशोक दलवाई की अगुवाई में इस कमेटी ने सुझाया कि 2022 का लक्ष्य हासिल करना है तो उत्पादकता लाभ,फसल के मूल्य में कमी और लाभकारी मूल्य पर काम करने की जरूरत है। लेकिन रिपोर्ट में ये बात कहीं सामने नहीं आई कि किसानों की आमदनी के लिए संसाधन कहां से आएंगे और कैसे सीधे किसानों तक पहुंचाए जाएंगे। देश के खेती-किसानी से जुड़े बाजार का हाल किसान जानते हैं लेकिन आप और हम सिर्फ इतना समझ लें कि देश में टमाटर और प्याज के दाम क्यों कभी सौ रूपए तक पहुंच जाते हैं और कैसे वापस एक रूपए प्रति किलो तक आ जाते हैं। सवाल ये भी है कि मंडी कारोबार में हमारे किसान की भूमिका क्या है , किसान की फसल को सुरक्षित रखने के क्या इंतजाम किए ?

सिर्फ आमदनी बढ़ाने के दावों से क्या होगा, जब नुकसान की भरपाई का सिस्टम लचर है। हम भले ही चांद और मंगल पर उपलब्धियां हासिल कर रहे हों,अपनी सैटेलाइट टेक्नोलॉजी की तारीफ करते नहीं थक रहे हों लेकिन ये सच्चाई भी जान लीजिए कि देश में किसानों के नुकसान के आकलन का तरीका आज भी वही है जो सरकारी सिस्टम में पीढ़ियों से चला आ रहा है। आज भी फसल की बरबादी की गिरदावरी रिपोर्ट आंखों देखे हाल के मुताबिक तय होती है। इसीलिए गिरदावर,पटवारी, गांव के किसानों की किस्मत तय करते हैं। सेटेलाइट से नुकसान का आकलन करने का तरीका अभी एक्सपेरिमेंट के दौर में ही है...। किसानों की व्यावहारिक समस्याएं बहुत है लेकिन किसान राजनीति और सरकारी दावों के शोर में इन पहलुओं को कोई देख तक नहीं पाता। किसानों की आमदनी कोई सरकार कैसे तय कर सकती है जब खेती एक निजी व्यवसाय है। सरकार सिर्फ नीतियां बना रही है, कृषि में सुविधाएं बढ़ाने की बात हो रही है, बाजार विकसित हो रहे हैं लेकिन ये भी जान लीजिए कि आपका वास्तविक किसान नहीं , बल्कि कॉर्पोरेट खेती इन सुविधाओं का ज्यादा फायदा ले रही है।

सीधी सी बात ये है कि आमदनी बढ़ानी है तो उत्पादन बढ़ाना होगा, निवेश बढ़ाना होगा। क्या देश के किसान में भारी निवेश की क्षमता है ? अगर नहीं तो फिर क्यों ये न मान लिया जाए कि कृषि क्षेत्र में रियायतों का फायदा किसानों से ज्यादा कंपनियां उठा रही है। क्या आज किसान अपनी नई पीढ़ी के लिए खेती-किसानी को सुरक्षित व्यावसाय मान रहा है...अगर नहीं तो फिर देश में भविष्य की तस्वीर क्या होगी...बड़ी कंपनियां खेती करेंगी और आपका परम्परागत किसान खेतिहर मजदूर बनकर काम करेगा। किसानों की माली हालात क्या है और परेशानी की इंतहा क्या है वो यूं समझिए कि देश में 1995 से लेकर 1995 से 2014 की अवधि में करीब तीन लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली। 2014 में सरकार ने एनसीआरबी के आंकड़ों में और वर्गीकरण कर लिया जिसमें आत्महत्या के मामलों में किसानों की केटेगरी से खेतीहर मजदूरों को अलग से चिन्हित करना शुरु कर दिया। 2014 में आंकडे देखेंगे तो राजस्थान में किसान आत्महत्या के आंकड़े सिर्फ तीन है और खेतीहर मजदूरों को जोड़ेंगे तो आंकड़ा 73 पार मिलेगा। हैरान करने वाला तथ्य है कि सिर्फ किसान हित के मुद्दों पर ही नहीं बल्कि आत्महत्या के आंकड़ो पर सरकारी तंत्र लीपापोती करता दिख रहा है। 

  किसान को अपनी जमीन का मालिक भी कहां रहने दे रही हैं सरकारें ? भूमि अधिग्रहण का साया किसान के सिर पर हमेशा मंडराता रहता है। हर बार समर्थन मूल्य पर खरीद की घोषणा ज्यादा और अमल चुनिंदा लोगों तक सीमित रह जाता है। किसान कतार में इंतजार करता रहता है और समर्थन मूल्य पर खरीद में भी मंत्री या किसी नेता का रसूख आड़े आ जाता है। राजस्थान में सहकारिता मंत्री अजय सिंह किलक पर ये आरोप लग चुके हैं कि हजारों को दरकिनार कर मंत्री जी के खास जानकारों की फसल खरीद ली गई। बाद में मंत्रीजी की सफाई आई कि मैंनें किसी को वरीयता तोड़ने के लिए नहीं कहा। कृषि में नए रिसर्च के काम देश में कम हो रहे हैं और इस्राइल या अन्य किसी देश में किसान प्रतिनिधिमंडल जाता है तो आम किसान नहीं बल्कि प्रगतिशील किसान के नाम पर राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हवाई सैर ज्यादा होती है। इन हालात में किसानों की आमदनी दोगुनी कैसे होगी और हो भी जाए तो किसान की कितनी तकदीर बदलेगी ? किसान आमदनी बढ़ाने का सियासी बयान हकीकत से दूर फसाना ज्यादा है। किसान हित नहीं, किसान राजनीति के हितों से सरकारों को सरोकार है।

रविवार, 28 जनवरी 2018

#DataPrivacyDay हमारा डेटा और हमसे ही वसूली ...! .ये जुल्म रोको सरकार ...

#DataPrivacyDay
 
हमारा डेटा और हमसे ही वसूली ...! .ये जुल्म रोको सरकार ...



 
- विशाल 'सूर्यकांत'

आज डेटा प्राइवेसी डे है...आप सोच रहे होंगे तो इस दिन का हमसे क्या वास्ता...ये बात सही भी लगती है क्योंकि अब तक सुनते आए हैं कि रोटी,कपड़ा और मकान हमारी पहली जरूरत है...बड़ी आबादी को डेटा का मतलब ही नहीं पता तो डेटा की सुरक्षा को लेकर क्या बात कीजिएगा...लेकिन जरा रूकिए मुद्दा जितना सोच रहे हैं शायद उससे कहीं ज्यादा बड़ा है। डेटा प्राइवेसी पहले आपका निजी मामला हो सकता था,लेकिन अब सरकार आधार जैसी योजना लाकर बल्क में डेटा यानी आपकी निजी जानकारियां ले रही है, इसीलिए अब ये निजी मसला नहीं सार्वजनिक रूप से निजी जानकारियों लेने और उसे सुरक्षित रखने का मसला बन गया है। इस देश में जून 2017 का अनुमान था कि करीब 420 मिलियन लोग इंटरनेट के उपभोक्ता हो चुके हैं, 229.24 मिलियन स्मार्ट फोन यूजर है। इनका डेटा सीधे हैकर्स और आवांछनीय गतिविधियों की जद में कभी भी आ सकता है, क्योंकि इंटरनेट के उपयोग का चलन ज्यादा है, उपयोग को लेकर सतर्कता और जागरूकता नहीं के बराबर है।

आधार को ही लीजिए, आप अपना डेटा सरकार को दे रहे हैं, ई-मित्र या कियोस्क वाला न जाने किस तरह से उसका उपयोग कर रहा है। आनन-फानन में गलत बन जाए तो कौन जिम्मेदार है ? उपर से सुधार के बदले सौ से पांच सौ रूपए तक लिए जा रहे हैं। हर योजना को आधार से लिंक करवाने के नाम पर कितनी राशि ली जा रही है, ये अंदाजा लगाना हो तो अपना आधार सुधरवाने चले जाइए, पडोस के किसी ई-मित्र सेंटर पर । आज की तारीख में मोहल्ले में सबसे ज्यादा वीआईपी स्टेटस आधार सुधार,आधार लिंक करवाने वाले दुकान मालिक का है।  पैन कार्ड और आधार में नाम में एक अक्षर, पता संशोधन,ई-मेल संशोधन के लिए उसकी अपनी एक रेट लिस्ट है। शहरों में तो फिर भी मोल-भाव की गुंजाइश आप ले सकते हैं। गांवों में तो व्यक्ति को पता नहीं कि क्या,क्यों और कैसे हो रहा है। उसे बस इतना भर पता है कि सरकार ने जरूरी कर दिया है आधार नहीं तो आपका मानों वजूद ही नहीं...सही वजूद हासिल करने के लिए न जाने कितने खर्च होंगे...ये नहीं पता। जीडीपी बढ़ाने में लगी सरकार ये नहीं पता लगाने की जहमत नहीं उठा रही कि 98 करोड से भी ज्यादा आधार कार्ड को लिंक करवाने में, उनमें संशोधन करवाने में कितनी रकम का लेन-देन हो रहा है, क्योंकि इसकी न तो रसीद है या डिजीटल पेमेंट का कोई मॉडल...जहां जितनी भीड़, उतनी ही लूट ...सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक देश में 98 करोड़ से ज्यादा लोग अपना आधार बना चुके हैं। स्मार्ट फोन या अन्य किसी डिवाइस से इंटरनेट यूजर और देश में जरूरी सेवाओं का उपभोक्ता होना, दोनों डेटा सुरक्षा के खतरे के मामले में एक ही पायदान पर खड़े हैं। आपको याद होगा कि चंद दिनों पहले देश में लाखों लोगों का आधार का डेटा लीक करने की खबर आई थी। उस वक्त आधार को देख रही सरकारी एजेंसी यूआईडीएआई ने इसे खारिज किया था। लेकिन चंद दिनों पहले वित्त मामलों की संसदीय कमेटी की रिपोर्ट आई, उसमें भी आधार की प्राइवेसी पर चिंता जताई गई। संसदीय समिति ने आधार समेत अन्य योजनाओं में देश में डेटा सुरक्षा के लिए एक पुख्ता कानून की वकालत की है। संसदीय कमेटी ने माना कि देश तेजी से डिजिटल कॉलोनी में तब्दील होता जा रहा है और ऐसे में डेटा की सुरक्षा के लिए इसरो और परमाणु ऊर्जा की तर्ज पर एक अलग से महकमा बनाने की जरूरत है। जिसकी रिपोर्टिंग सिर्फ प्रधानमंत्री के पास हो। 



बीते दिनों में आपने रेनसमवेयर जैसे वायरस के हमले की खबरें भी पढ़ी होंगी। डेटा यूजर्स बढ़े हैं तो हैकर्स की तादाद भी बढ़ी है। इंटरनेट सेवा प्रदाताओं का कारोबार बढ़ा है तो आपकी निजी पसंद और नापसंद को मार्केट में बेचने का कारोबार यानी डेटा का बिजनेस भी बढा है। आसान शब्दों में इतना भर जान लीजिए कि आप गूगल पर मेडिकल इन्श्योरेंस के लिए कुछ सर्च करते हैं और आपको चंद पलों में इसी से जुड़े विज्ञापन मेल और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर मिलने लगते हैं। कई दफा हो सकता है कि आपको बकायदा कंपनियों से फोन आने लगें कि आपने इस बारे में सर्च किया था, बताइए किस तरह से आपकी सहायता कर सकता हूं। इंटरनेट पर इस तरह के मामले व्यक्तिगत खोज का असर भर हैं, सोचिए जरा जब सरकार में दर्ज लाखों-करोड़ों जानकारियां ऐसे कारोबारी, हैकर्स या सर्विस प्रोवाइडर्स के हाथ लग जाएंगी तो क्या-क्या हो सकता है। फोन कर आपसे ओटीपी नंबर मांग कर बैंक से रुपए ले उड़ने का मामले लगातार सामने आते रहते हैं। 



देश में आधार कार्ड की अनिवार्यता होती दिख रही है, हालांकि अभी मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है लेकिन कई मामलों में अनिवार्यता लगभग हो ही चुकी है। आपके हक का मुनाफा,आपकी निजी जानकारी, आपकी जमा रकम में सेंधमारी, आपके पर्सनल प्रोफाइल पर नजर...न जाने कितने खतरे समाए हुए हैं डेटा सिक्यूरिटी के इश्यू में। भले ही ये आंकड़ा दस फीसदी हो लेकिन ये सच है कि देश में 10 फीसदी लोगों के लिए रोटी, कपड़ा आैर मकान के साथ डेटा भी जीने की अनिवार्य जरूरतों में शुमार हो चला है। जो इंटरनेट उपभोक्ता नहीं थे वो आधार जैसी सरकारी योजनाओं के लिए जरिए अपना डेटा शेयर कर रहे हैं।   दुनिया भर 'आधार' की चर्चा का क्या माहौल है, ये इस बात से समझ लीजिए कि दुनियाभर में मशहूर अंग्रेजी डिक्शनरी ओक्सफोर्ड ने पहली बार अंग्रेजी की तरह 2017 के हिंदी शब्द की घोषणा की है।

 मुद्दा ये कि क्या देश के राजनीतिज्ञों का इस पर ध्यान है ? क्या धर्म और जातिवादी राजनीति में मशगूल देश के नेताओं का ध्यान देश की आवाम के सामने आ रही इन भविष्य की चुनौतियों पर हैं ? क्या हमारे नेता डेटा सिक्यूरिटी के मामले में कुछ जानते हैं ? इस देश को राजनीति ही चलाती है...क्या हमारी राजनीति की दिशा इन खतरों को देख पा रही है ? सवाल इसीलिए हैं क्योंकि आधार लीक मामले में पहले खबर को पूरी तरह खारिज कर दिया जाता है। इसके बाद खबर आई है कि अब आधार के बजाय वर्चुअल आईडी का उपयोग होगा। आपका आधार नंबर, किसी और शक्ल में बदल जाएगा। इसे वीआईडी यानी वर्चुअल आईडी कहा जा रहा है। एक मार्च से आधार की सारी मुहिम वीआईडी में शिफ्ट हो जाएगी। क्या इन बातों पर पहले गौर नहीं हो सकता था। देश में हालात ये हैं कि लखनऊ जैसे शहर में रैन बसरों में कंबल के लिए एक अदद टेंट के निजी ठेकेदार स्वघोषित रूप से आधार को अनिवार्य कर दिया गया। हैकर्स और डेटा के कारोबारियों की नजर कहां और किस रूप में हैं, कंबल मामले से समझ लीजिए। अब वक्त का तकाजा है कि सरकारें डेटा सुरक्षा पर अपना ध्यान फोकस करें। सिर्फ आतंकी घटनाओं और अपराधों की रोकथाम में ही नहीं , नागरिकों की रोजमर्रा की जिंदगी में अनावश्यक दखल को रोकने जिम्मेदारी भी सरकारों को उठानी होगी।

गुरुवार, 25 जनवरी 2018

#Padmavat :रिलीज पद्मावत,सिस्टम दंडवत्

 

- विशाल 'सूर्यकांत'
आज पद्मावत की रिलीज डे है और नेशनल वोटर्स डे भी है। वोटबैंक की राजनीति के नाम पर इस देश में जो कुछ होता आया है,पद्मावती मामला इसी के आगे की कड़ी भर है। अब ये मुद्दा तो रहा ही नहीं कि पद्मावत फिल्म में क्या दिखाया गया है और क्या नहीं...मुद्दा ये बन रहा है कि अलग-अलग राज्यों की सड़कों पर हंगामे और बवाल की ये कौनसी फिल्म बन रही है और किसका डायरेक्टर,प्रोड्यूसर,स्क्रिप्ट राइटर कौन है ? हंगामे और बवाल की इस फिल्म का सेंसर बोर्ड कहां है...? नेशनल वोटर्स डे पर नेताओं के खूब ट्वीट आ रहे हैं, लेकिन क्या कोई ऐसा नेता है जो देश की जनता को, देश के वोटर को ये समझा रहा है कि लोकतंत्र में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के क्या मायने होने चाहिए ? जबाव सोचते वक्त ये जरूर ध्यान रखिएगा कि देश में सुप्रीम कोर्ट से बड़ी कोई न्यायिक संस्था हमने इजाद नहीं कर रखी है।

जनता को सही राह दिखाने वाले नेता, जब वोटबैंक की सियासत में उलझी पार्टी बन जाएं तो सड़कों पर वही होता है जो आज देश के कई हिस्सों में दिन भर हुआ। गुरुग्राम की घटना को ही लीजिए,बच्चों की बस पर पथराव हो गया। इसे एक घटना भर मत मान लीजिएगा क्योंकि बच्चों के जेहन में इस घटना ने भी देश की एक छवि उकेर दी है। ..डर के साए में, इन बच्चों ने सीखा है कि अपनी मांगों को मनवाने का क्या तरीका होना चाहिए ? ये बात ज्ञान की किताबी बातों से बिल्कुल अलग है...जिसे उन्होंने आज जिदंगी की पाठशाला से सीखा है। बच्चों की बस पर हमले के मामले में करणी सेना कह रही है कि इस घटना में उनका हाथ नहीं। तो फिर ये भी मान लीजिए कि आंदोलन पर अब उनका भी नियंत्रण नहीं रहा।


इस पूरे मामले में नेताओं की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगा लीजिए कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल करने का एक भी बयान नहीं आता मगर एक फिल्म को न लगाने के मल्टीप्लेक्स मालिकों के ट्विट खूब रिट्वीट किए जा रहे हैं। नेता और उनकी सरकारें मानो बता रही हों कि देखिए सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा वो कहा,लेकिन हमने किस हद तक जाकर, सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की धज्जियां उड़ा दी, आदरणीय वोटर,ये बात अपने वोट बैंक के खाते में जरूर लिख लीजिएगा।

मुद्दा एक संजय लीला भंसाली नहीं, मुद्दा एक फिल्म भी नहीं है। लिखी गई बातों को किसी फिल्म की पैरोकारी या विरोध के रूप में कतई मत लीजिएगा। मुद्दा सिर्फ ये है कि लोकतंत्र चलेगा कैसे ? लोकतंत्र में कोई मांग करता है तो सरकारों को क्या करना चाहिए ? सरकारों का पक्ष सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट कोई आदेश देता है तो उस पर क्या होना चाहिए ?  विरोध और आदेश के बीच संतुलन साधने में क्यों जानबूझकर नाकाम होती दिखती हैं सरकारें...?
ऐसा लगता कि उच्चतम आदेशों को भी ये दिखाने की जुर्रत हो रही है कि देखिए, हमने जो कहा था वो मान लेते तो ये न होता...हमने तो पहले से कह दिया था....संवैधानिक संस्थाएं एक-दूसरे के आदेशों का महत्व कम करती नजर आएं तो चिंता होना लाजिमी है। आज पदमावत है तो कल कोई और मुद्दा होगा...हर समूह अपनी मांगों और जरूरतों के साथ जीता है हिन्दुस्तान में...

सबकी मांगों को सुनने के लिए जनप्रतिधि हैं, उसके अनुरूप काम करने के लिए सरकारें हैं और काम संवैधानिक रूप से सही है या नहीं ये बताने के लिए अदालतें हैं। लोकतंत्र में इससे अलग कोई राह निकलती हैं तो इसका मतलब क्या है ? ...और इस राह पर चलने की अाजादी किस हद तक दी जा सकती है ? किस हद तक स्वीकारी जा सकती है। गुरुवार सुबह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अभी तक चार ट्वीट किए हैं, लेकिन पद्मावत को लेकर हिंसा का कोई ज़िक्र नहीं।



कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पदमावत को लेकर सीधे तौर पर कुछ नहीं लिखा है, लेकिन बुधवार रात उन्होंने गुरुग्राम में बच्चों से भरी बस पर पथराव की आलोचना करते हुए ट्वीट किया है। केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने अभी तक इस मामले पर चुप्पी साधी हुई है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल बहुत दिनों बाद बोल रहे हैं। ट्वीट मार्क्सवादी पार्टी के भी आए हैं।

 गुजरात चुनावों के वक्त खुल कर पदमावत का विरोध करने वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने राज्य में हो रही हिंसा पर चुप्पी साध रखी है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी खामोश हैं। पदमावत को राष्ट्रीय मां का दर्जा देने वाले शिवराज सिंह चौहान भी पद्मावत हिंसा पर कुछ नहीं बोल रहे। राजस्थान की मुख्यमंत्री मल्टीप्लेक्स मालिकों के फैसले को रिट्वीट कर रही हैं। इन सारे घटनाक्रम का क्या मतलब है...राष्ट्रीय वोटर्स डे पर तमाम वोटर्स को सोचना होगा...समझना होगा...मुद्दा एक अदद फिल्म के विरोध या समर्थन से परे ...कुछ और हैं....वोटर्स को इस लिहाज से दूरदर्शी होना पड़ेगा...किस नेता ने क्या किया, मुद्दों को कैसे सामने रखा, कैसे जिम्मेदारी से बचे...नेशनल वोटर्स डे पर वोटर्स अपने चुनावी बही खाते में जरूर लिखकर रखना चाहिए। गणतंत्र को महफूज रखना ज़रूरी है....