शनिवार, 2 मई 2015

मैंने इंसां को बूतों में ढ़लते देखा....


                        मैंने इंसां को बूतों में ढ़लते देखा....    

                                       

                                        - विशाल 'सूर्यकांत' शर्मा - 
इन दिनों मूर्तियों का गज़ब चलन चल पड़ा है। कहीं भी, किसी भी चौराहे पर देख लो या किसी भी मूर्ति बनाने वाले की दुकान में झांक लो आपको भगवान की कम और इंसानों की मूर्ति ज्यादा नज़र आएंगी। बताईए ज़रा,... अच्छे खासे जिंदा इंसान की तो ठीक से कद्र नहीं कर पाते हम ... और उसके गुजरने के बाद चल पड़ते हैं एक मूरत बनवाने । एक दौर था जब मूर्तिकार सिर्फ भगवान की मूरत बनाते दिखते थे लेकिन लगता है कि अब तो भगवान से ज्यादा कीमती हो चली है इंसान की मूरत। भगवान को किसने देखा, कोई भी नाक-नक्श बना दो, बस मनभावन मूरत होनी चाहिए लेकिन इंसानों में नाक-नक्शे का खास ख्याल नहीं रखा तो मुश्किल होगी। नेताजी के समर्थक गुस्से में आ सकते हैं, गुरूजी के चेले भड़क सकते है । मूर्तिकारों के लिए ये काम तलवार की नोंक पर चलने से कम नहीं है। ख़ैर ये तो बात सिर्फ मुद्दे की शुरूआत करने के लिए थी। 

हंसी-मजाक की बात में मुद्दा जरा गंभीर निकल गया है...आजकल वाकई इंसानों की मूर्तियां ज्यादा बन रही है। इसे राजनीति का रंग कहें या फिर किसी को लेकर सम्मान प्रकट करने का आसान रास्ता ... लेकिन इंसानी मूर्तियां ज्यादा बन रही है। इंसानी मूर्तियों की पूछ तो इंसान से भी ज्यादा है।  67 सालों की राजनीति ने देश का शायद ही कोई ऐसा प्रमुख चौराहा छो़ड़ा होगा जहां किसी नेता की मूर्ति नहीं लगी होगी। गांधी चौराहा, पटेल चौराहा, अम्बेडकर चौराहा। ये शुरुआती दौर था जब राजनीति सिर्फ राजनीति के गलियारों से होकर गुजरती थी। एक वक्त बाद, समाज और धर्म की सियासत शुरु हुई तो गली-चौराहों पर ऐसे संत-साधूओं और समाजसेवियों की मूर्ति लगने लग गई जो नेताओं की धार्मिक और सामाजिक राजनीति का जरिया बन सकें। लेकिन आपको इस बात का अंदाजा है कि अब मूर्तियां बनाने का शौक किस हद तक जा पहुंचा है ??? भगवान से महा
पुरूषों तक और फिर आम पुरुषों को महापुरुष साबित करने तक, हर कोई चाहता है अपनी मूर्ति का लगवाने का सम्मान। इस होड़ में परिवार के लोग भी पीछे नहीं है।  

  जो मैं अब लिख रहा हूं शायद वो पहलू अब तक अनकहा है लेकिन सच्चाई की बुनियाद पर है। राजनीति और धर्म के गलियारे से निकली मूर्तियां स्थापित करने की परम्परा शहीद परिवारों तक भी चल पड़ी है। मैं शहीद मूर्ति लगाने का विरोधी नहीं हूं लेकिन ये भी इस मामले का व्यावहारिक पक्ष ये भी हैं कि जिन परिवारों में शहीद हुए, उनके बीच में ही मूर्ति लगाने की अनचाहा और अनकहा कम्पिटिशन शुरु हो गया है। शहीद परिवारों में सामाजिक दबाव का ऐसा ताना-बाना बुना गया कि जिससे शहीद परिवार के लिए शहादत के बाद एक ऐसी रस्म बन गई हैं कि अगर मूर्ति नहीं लगी तो ना जाने शहादत का कितना बडा अपमान हो जाएगा  ???  परिवार में कोई शहीद हो गया तो मातम के साथ ये भी जरूरी है कि वो अपनी जमीन का एक बड़ा हिस्सा मूर्ति लगाने के लिए दें, शहीद परिवार के लोग शहीद की महंगी मूर्ति बनाएं और फिर उसके अनावरण में बड़े से बड़े नेता को बुलाकर अनावरण कार्यक्रम करें और लाखों खर्च करें। जिस शहीद की प्रतिमा का अनावरण, जितने बड़े नेता से हुआ, जितनी बड़ी जमीन पर स्मारक बना, जितना ज्यादा खर्च हुआ, उसे शहीद के सम्मान और परिवार की भावना से जोड़ दिया। इससे दुखद बात और क्या होगी कि जिन शहीद परिवारों के साथ गांव के, बिरादरी के रसूखदार नहीं जुटे, उनकी मूर्तियां सालों तक अनावरण के लिए नेताजी के आने का इंतजार करती रही। अखबारों में ये रिपोर्ट खुलकर नहीं आई लेकिन किसी शहीद परिवार से पूछिए तो ये सच्चाई खुलकर सामने आ जाएगी।
लगी हुई मूर्तियों की सियासत का अब तो ये आलम हैं कि लगता है कि सही सलामत मूर्ति लाख की और खंडित हो जाए तो सवा लाख की....मूर्ति में कोई मामूली टूट-फूट कोई कर दे तो शहर की सोई पड़ी सियासत करवट लेने लगती है...अक्सर अखबारों में पढने में आता है कि कोई सिरफिरा पत्थर की मूर्ति को खंडित कर गया तो पूरे शहर भर में बवाल खड़ा होने लगा। आज भी प्रतिमाएं के साथ टूट-फूट होती है तो जाति, समाज या पार्टी के नेता अपनी बिखरी सियासत को संवारने में जुट जाते हैं। नए नेताओँ के लिए तो टूटी-फूटी मूर्तियां सियासी जमीन तैयार कर रही है।  चलिए अब बात करते हैं कि कैसे जिंदा इंसान की अनदेखी होती है और कैसे उनकी मौत के बाद बूत लगाने की मांग होने लगती है। इसकी बानगी आप राजस्थान के दौसा जिले के गजेन्द्र सिंह की कहानी में देखिए। दिल्ली के जंतर-मंतर में सरेअाम फांसी पर लटकने वाले गजेन्द्र सिंह की जीते जी भले ही ना पूछ हुई हो लेकिन मौत के बाद चर्चा में आते ही मूर्तियां बननी शुरु हो गई। ये संवेदनाओं के राजनीतिक इस्तेमाल की चरम अवस्था है। गजेन्द्र सिंह की मौत को लाखों में तौलते हुए एक के बाद एक कई राजनीतिक दल और पार्टियां परिवार को चैक थमा गई। ऐसा लगा कि मानों दुख जताने नहीं बल्कि गजेन्द्र सिंह के नाम सियासत करने की ठेकेदारी की एवज में कुछ रकम देने आए हों। परिवार से मिलने के बाद गजेन्द्र के अपने तो घर में सिमट गए और गजेन्द्र सिंह के नाम की सियासत देश-दुनिया में चल पड़ी।  गजेन्द्र की मौत एक हादसा था, मगर सियासत का रंग देखिए कि एक इंसान की मौत का ऐसा तमाशा बना दिया कि हर किसी को मौत में अपनी मरी पड़ी सियासत में जिंदगी नजर आ रही है।
गजेन्द्र की मौत पर ऐसा खुला नाच तो कभी सामने नहीं आया। सब के सब आमादा थे कि कैसे गजेन्द्र की मौत को भुनाया जा सके। टीवी चैनल्स टीआरपी बढ़ा ले गए, भाजपा वाले आप पार्टी को घेर गए, आप पार्टी वाले दिल्ली पुलिस को जिम्मेदार बना गए और अपनी जमीन तलाश रही कांग्रेस दोनों को गरिया रही है। गजेन्द्र की मौत का शो ऐसा पॉपुलर हुआ कि अब उनकी मौत के बाद उनकी भी मूर्ति बनाने की होड़ शुरु हो गई है।
 राजनीति में पतन की शुरुआत तो ऊपर से ही होती है, अपनी मूर्तियां बनाने का शगल सारे नेताओं में रहता है लेकिन कार्यकर्ताओं की भावनाओं की दलील देकर काम होता है लेकिन मायावती ने तो मूर्तियों की सियासत ही बदल दी। बसपा की प्रमुख, जिन्होंनें लखनऊ में बने अम्बेडकर पार्क में एक दो नहीं बल्कि पूरे 1200 करोड़ की तो मूर्तियां ही लगा दी। इनमें से कुछ मूर्तियां तो अम्बेडकर और कांशीराम जी की थी तो बाकी सारी या तो उनकी खुद की या फिर उनके चुनाव चिन्ह हाथी की... । 
1200 करोड़ को मायावती की ओर से मूर्तियां लगाने का खर्च भर है। चुनाव आयोग को चुनावों के दौरान हर बार इन्हें ढ़कने के लिए और चुनावों के बाद फिर से साफ करने का जो खर्च करना पड़ेगा वो बिल्कुल अलग है।  

अब बताईए, जिस मूल्क में बुनियादी सुविधाओं के लिए बड़ी आबादी तरस रही हो, जहां बिजली,पानी,सड़क, शिक्षा,स्वास्थ्य, कुपोषण के हालात हों, जिस देश के समाज में  महिलाओं की दयनीय स्थिति हो, सिस्टम में भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे देश के विकास को चुनौती दे रहे हों वहां महापुुरुषों की बात महत्वपूर्ण हैं या फिर उनकी मूर्ति ??? 
जरूरी चीज़ क्या है ??? किसी शख्स की प्रतिभा का बखान या फिर प्रतिमाओं के जरिए पहचान ??? आजादी के बाद से कई मूरत लगा ली, इसका असर क्या हुआ ???  देश में डेमोक्रेसी के इस दौर में जीता जागता इंसान और उसकी बदहाली सियासती मुद्दा होना चाहिए ना कि कोई पत्थर की मूरत...। ज़रा एक पल के लिए सोंचिए कि ; गली-चौराहों पर जहां-तहां लगी मूर्तियों को एक दिन का जीवन फिर से मिल जाए तो क्या कुछ नहीं कहेंगी वो अपने नाम पर रचे जा रहे स्वांग पर, अपने नाम पर हो रही सियासत पर ??? 


मूर्तियों की इतनी पूछ हो क्यों रही है ??? ये सवाल जेहन में आया तो जबाव मिला कि इंसान और बूत परस्ती में बुनियादी फर्क ये हैं कि इंसान पलट कर जबाव देता है, वो सवाल पूछता है, वो समर्थन के साथ विरोध भी कर सकता है, वो सही और गलत की पहचान रखता है। वो अपने और बेगाने मिजाज को समझता है, वो साजिश और प्यार की बांतों को जानता है ...इसीलिए इंसान से ज्यादा बूत की पूछ है, इंसान से ज्यादा बूत की परस्ती होती है...। आजकल तो हालात ये हो गए हैं कि जीता जागता इंसान पसंद नहीं आता, बात दिलचस्प हैं कि सब चाहते हैं कि दूसरा शख्स उनके सामने बूत बन जाए। ऐसा बूत जिसे जब चाहो माला पहना दो, जब चाहो वीरानगी में छोड़ दो। इंसान की क्रिया और प्रतिक्रिया का हक़ छिनना एक तरह से उसे बूत बनाना ही तो है। 

वक्त मिले तो यूट्यूब का ये लिंक भी देखिएगा, जिसमें आपको मिलेगी इस मुद्दे पर मूर्तिकारों की दिलचस्प राय.... https://www.youtube.com/watch?v=J0L3_1Ombec

ख़ैर, हिन्दुस्तानी समाज में मूर्तिय़ों की ये परम्परा पुरानी है, कुछ विवाद या राजनीति हो रही है तो वो इस दौर की है, नहीं तो देश का इतिहास मूर्तियों की कलात्मकता की कहानियों से भरा पड़ा है। चलिए चलते, चलते.... मेरी बहुत पुरानी क्रिएशन यहां लिखना चाहता हूं, सिर्फ आप लोगों के लिए.... जो अपनी व्यस्तता के बावजूद इतनी देर से मेरी लिखी इबारत पढ़ रहे है....


जिंदगी को इस क़दर बदलते देखा
हमनें इंसा को बूतो में ढ़लते देखा 
ग़ैरों से गिले-शिकवे क्या करें कोई 
हमनें अपनों को गैरों में बदलते देखा। 

अपने बदले इन हवाओं की तरह 
महक बदलती इन फिजाओं की तरह 
सूरज तो वहीं खड़ा रहा अपनी जगह पर 
हमनें किरणों को तपिश बदलते देखा।। 

जिंदगी को इस क़दर बदलते देखा...
हमनें इंसा को बूतो में ढ़लते देखा 

नए थे तेरे शहर में नन्हें परिन्दों की तरह 
मालूम ना ये यहां लोग हैं दरिन्दों की तरह 
बस यूं ही उड़ चले थे अपने आसमान पर 
  मगर हवाओं को मेरे पर कतरते देखा ।।।  

जिंदगी को इस क़दर बदलते देखा...
हमनें इंसा को बूतो में ढ़लते देखा 

सभी हैरान हैं मेरे किरदार के क़द से ... 
नहीं मिला ये क़द, सिर्फ दुआओ में रब से 
फख्र नहीं कि आज आसमान हूं मैं, तेरी नजर में 
      मैनें अपनी जमीं को आसमान से मिलते देखा ।।।। 

जिंदगी को इस क़दर बदलते देखा...
हमनें इंसा को बूतो में ढ़लते देखा 
                                              - विशाल सूर्यकांत शर्मा ( जर्नलिस्ट) 


सोमवार, 27 अप्रैल 2015

एक मुलाक़ात ... रणथम्भौर राजा के साथ

                     एक मुलाक़ात ... रणथम्भौर राजा के साथ

                                               - विशाल सूर्यकांत शर्मा                                                          

अलसुबह के वक्त हम निकल पड़े रणथम्भौर के जंगल में। कंकरीट के जंगलों की काली सड़क से निकल कर हम आगे बढ़ रहे हैं कुदरत के उन नजारों के बीच कच्ची पगडंडियों के सफ़र पर। यहां की ओर जाते हुए ही ये अहसास हुआ कि चाहे लाख सुख-सुविधाओं में हम रह ले, लेकिन कुदरत का दुलार अपने आप में अलग अनुभव है। जंगली पेड़-पौधे और खूबसूरत बेल, तोरण की मानिंद मानों हमारी मेहमान नवाज़ी में लगाई गई हों। शहरों में पिंजरों में कैद पड़े परिन्दों की आवाज सुनने के आदि हम लोगों के लिए ये अनूठा अहसास था जब बेफ्रिकी के माहौल में जगह-जगह बैठे परिन्दें अपनी मीठी तान छेड़े हुए दिखे। चीतल,नीलगाय, हिरण, खरगोश सब अपने-अपने तरीके से यहां-वहां घूम रहे थे। उनके लिए सब वही था, रोजमर्रा की जिंदंगी, लेकिन इसे देखने वाले यानि हम लोगों के लिए उनकी रोजमर्रा की जिंदगी को देखने का क्षण भी बेशकीमती लग रहा था।

ज्यादा दूर नहीं, राजस्थान के सवाई माधोपुर की रणथम्भौर टाइगर सफारी में चंद मिनटों का ही सफर हुआ और अचानक ...हमारा पूरा काफिला रुक गया...आपस में हंसी-ठिठोली करते साथियों को एक कड़ी फटकार ने खामोश कर दिया। कोई कुछ समझ पाता, इससे पहले ड्राइवर की आवाज़ गरजी कि आवाज मत करो...आपके दाहिनी ओर दो टाइगर बैठे हैं। अनायास मिली इस जानकारी से सब कौतूहल भरी निगाहों से उन जीवों को तलाशने लगे जो रणथंभौर की पहचान है। एक जगह आंखें टिकी और गले से चिपकी एक धीमी आवाज निकली...ओह ! 'टाइगर...!!! उन्मुक्त माहौल, अलसाई सुबह में अंगडाई लेती बाधिन टी- १९ और बाघ टी- २८ के नज़ारों ने लोगों का मन मोह लिया।  टाईगर को करीब से जानने वाले ड्राइवर और अधिकारियों ने बताया कि टाईगर और टाइग्रेस को एक साथ देखना अपने आप में एक दुर्लभ नज़ारा है। यहां आने वाले देश-विदेश के सैलानी यहां के स्टाफ से ना जाने कितनी मिन्नतें करते हैं, ना जाने कितने दिनों तक इंतजार करते हैं, इस उम्मीद में कि एक ना एक दिन रणथंभौर का राजा यानि टाइगर, अपनी जिंदगी में उऩ्सेहें झांकने की इजाजत दे देगा। लेकिन राजा तो राजा ठहरा, हर किसी की मन चाही मुराद तो पूरी कर नहीं सकते। लेकिन हम उन खुशकिस्मत लोगों में से एक थे जिन्हें रणथम्भौर के राजा और रानी दोनों ने एक साथ दिखाया अपना रुबाब, अपना खास अंदाज। घूरती आंखें, दहाड़ और गज़ब की फूर्ती ...सब कुछ अनोखा और अब तक अनदेखा...

( फोटो बेवसाइट्स से)
चंद पलों तक टाइगर को निहार कर लगा कि ये अहसास डिस्कवरी चैनल में देखने से तो बिल्कुल नहीं आता‍ और ना ही अपने शहर के जू में जाकर आप ये रोमांच महसूस कर सकते हैं। चंद फीट के फासले पर अगर आपको टाइगर अपने सिर्फ दर्शन करवा रहा है तो इसे एक अहसान ही मानिए क्योंकि इतने फासले को तो ये पलक झपकते ही पार कर आपके सामने भी खड़ा हो सकता है। शायद इतनी देर में तो आप और हम टीवी का रिमोट बटन नहीं दबा सकते।
इन नजारों को देखकर अहसास हो गया कि क्यों लोग रणथम्भौर के जंगलों में दिन बीताना पसंद करते हैं ???
लोग कहते हैं रणथम्भौर में कई दिन बीताने के बाद भी टाइगर नहीं दिखता और दिख भी जाए तो वो कुदरती माहौल में नहीं दिखता। लेकिन इसे हमारी किस्मत ही कहिए कि एक नहीं बल्कि दो टाईगर दिखे। एक जो़ड़े में, एक जगह पर। कैमेरों की फ्लैश, गाड़ियों की आवाज, लोगों की खुसफुसाहट सब कुछ नजर अंदाज कर टाईगर ने दिखाई अपनी जिंदगी...अपने अंदाज में। रणथम्भौर जाएं तो जोगी महल में जाकर रणथम्भौर के पूरे नजारे को जरूर देखिए, हो सकता है कि पीछे बने तालाब में आपको कोई ना कोई जंगली जानवर फिर नज़र आ जाए या फिर किस्मत के धनी है तो टाइगर फिर दिख जाए !!! रणथम्भौर का रोमांच महसूस कर वापस घर की और लौेटे तो मन में ये बात जरूर सोंचिए कि टाइगर वास्तव में कहां होने चाहिए !!! सर्कस में इनका प्रर्दशन बंद करवा कर वन्यजीव संरक्षण का स्वांग रचने वाली सरकारों ने इन्हें जू में रखकर दिखाना शुरु कर दिया। क्या रणथम्भौर का राजा टाइगर दस बाई दस की कोटरी में आपको पसंद आएगा...??? क्यों ज़रूरी है कि हम टाइगर को अपने शहर में क़ैदियों की मानिंद रखें ??? क्या वाकई सिर्फ इन्हें देखने भर की जिद में हम इन्हें बंधक बनाकर रख सकते हैं ??? 
ऊपर वाले से सभी को कुछ ना कुछ नियामत दी है। रणथम्भौर में विचरण करते टाइगर की जिंदगी उसकी अपनी है, जीने का अंदाज अपना है। आपका बस सिर्फ इतना भर हक़ हो सकता है कि उन्हें उनके कुदरती माहौल में अगर ये खुद इजाजत दें तो पूरे सम्मान की भावना के साथ देखिए और फिर लौट आईए।
 और हां, रणथम्भौर जाएं तो टाइगरमैन फतह सिंह के बारे में जानना मत भूलिएगा ...!!! वो अब जिंदा तो नहीं, लेकिन जंगल की हलचल में आज भी फतह सिंह की जिंदादिली के किस्से सुनाने वालों की कमी नहीं है !!! 

    ( विशाल सूर्यकांत शर्मा, जर्नलिस्ट)  
                              -*- 

क़ुदरत का मज़ाक ...

                                     

  - विशाल .सूर्यकांत.शर्मा- 

खुदगर्ज़ी को मजबूरी का नाम देकर इंसान कब तक अपना काम चला सकता है ! कुदरत एक न एक दिन तो अहसास करवा ही देगी कि हक़ीकत क्या है ? हिमालय की गोद में बसे नेपाल में धरती ने दिखाया है अपना रौद्र रूप। चंद पलों के लिए धरती ने सिर्फ अंडगाई भर ही तो ली .... और देखिए एवरेस्ट तक का अहंकार टूट गया और... जमीं पर बसा एक पूरा मूल्क तबाह हो गया।  नेपाल के लोगों ने भूकंप में अपने अतीत की निशानियों को जमींदोज होते देखा। अतीत तो बर्बाद हुआ ही...मगर आज अपने वजूद की सबसे बड़ी अनचाही जंग भी लड़ रहा है नेपाल। ... यहां जिंदगियां सिसक रही है, क्योंकि जिनके रहते जिदंगी की जंग लड़ने का जज्बा था वो भूकंप के एक झटके से हमेशा के लिए दूर हो गए। भूकंप की विडम्बना देखिए कि जो बच गए वो लोग, ऊपर वाले को शुक्रिया तक नहीं कहना चाहते क्योंकि उनके अपने उनकी आंखों के सामने ही मौत की आगोश में सो गए। ना जाने कितनी आँखों ने देखा होगा, महसूस किया होगा कि वो मंजर, जब भूकंप की घबराहट में उऩ्हें पहले घर से बाहर भेजने की जिद में या तो किसी मां ने, या किसी बेटे ने या फिर किसी बाप ने, खुद को हजारो टन के मलबे के हवाले कर दिया।  ताकि उनके परिवार के बाकी लोगों की जिंदगियां चलती रहें। परिवार की आफत अपने सिर ओढ़ कर हमेशा के लिए  दफन हो गए हजारो लोग। नेपाल में लोगों को अब जमीन पर कदम रखने में भी हिचक हो रही होगी, एक कसक महसूस हो रही होगी कि पता नहीं किस मलबे में कितनी लाशों के ढ़ेर पर वो खड़े हो रहे हैं। 


अजीब बदकिस्मती है ये कि जो बच गए उन्हें खुशकिस्मत नहीं कह सकते और जो मारे गए उन्हें बदनसीब कैसे कह दें ? क्योंकि उन्होंनें तो एक तरह से बलिदान ही दिया है अपनों के खातिर....एक-एक कड़ी जोडकर परिवार बना, परिवार से समाज और समाज से एक मूल्क की नींव तैयार हुई लेकिन अब ये माला टूट गई, मोती बिखर गए, कोई किसी के पास नहीं, कोई किसी के साथ नहीं, सबकी अपनी अलग जंग, सबकी अपनी अलग कहानी। 

सोंचिए ज़रा, बिन मां-बाप के जिंदा बच गया इकलौता बच्चा अब ताउम्र अनाथ कहलाएगा, रोज़ जीने की मजबूरी में जिंदगी, ना जाने उससे, क्या और कितने समझौते करवाएगी,ना जाने कितने इम्तिहान लेगी ? बिन परिवार के अकेला बाप, सोचिए उसका मिजाज एक बार फिर किसी बच्चे की मानिंद हो गया होगा, क्योंकि सारी जिम्मेदारियां तो भूकंप एक झटके में उससे छीन कर ले गया, अब बचा क्या होगा उसके पास जिम्मेदारी के नाम पर बस अपने जिस्म के सिवाय ...??? ​​ इंसानी फितरत भले जैसी भी हो लेकिन कुदरत की मार तो कभी अमीर-गरीब नहीं देखती, ना ही वो देश,समाज,जाति या धर्म का भेद करती है। उसके लिए तो सभी एक समान है, कुदरत से छेड़छाड़ के लिए इस सिरे से उस सिरे तक हर कोई कसूरवार है। नेपाल की तस्वीरें देखिए, फुटपाथ पर रहने वाले और महलों में रहने वालों में अब कोई फर्क नहीं बचा। सारे के सारे एक खुले मैदान में, एक साथ, एक अदद तिरपाल के लिए जूझते नज़र आ रहे हैं। 

भूकंप की त्रासदी ये हैं कि इस तरह की घटना में इंसान की अपनी बनावट और बसाहट ही उसके लिए भारी पड़ जाती है। संकरी गलियों में आसमान छूती इमारतें, कभी लाखों की कमाई का जरिया थी लेकिन भूकंप के बाद खुद अपनों की ही मौत का जरिया भी बन गई। कहते हैं कि कुदरत अपना इंसाफ खुद करती है, बदलाव लाती है, इस सच्चाई से कौन भला इंकार कर सकता है ??? लेकिन ये तो कहना पड़ेगा कि कुदरत का ये तरीक़ा बेहद क्रूर है, अमानवीय है। कुदरत की मजबूरी ये हैं कि वो हम आम इंसानों की तरह खुली जुबान में आगाह नहीं कर सकती। ना जाने सदियों से दर्द झेलते-झेलते एक पल के लिए अपना आपा खो बैठती तो ये नेपाल,उत्तराखंड या सुनामी जैसी त्रासद घटनाएं हो जाती है। आपको और हमें सिर्फ इशारे भर समझने पड़ते हैं लेकिन सब कुछ हासिल करने को आमदा हम लोग,अपनी जुस्तजू में इस तरह लगे हैं कि खुद के अलावा परिवार को संभाल ले तो वो भी बहुत मान लिया जाता है। ऐसे में कुदरत को कौन पूछे, कौन समझे  कुदरत की हालत पर ग़ौर करने का चलन तो बस गोलमेज सम्मेलनों तक सीमित रह गया है, एनजीओ की फंडिंग में सिमट कर रह गया है।

 आज नेपाल तो... कल उत्तराखंड था, दोनों कुदरत की गोद में पले-बढ़े हैं, कुदरत ने दोनों जगहों पर अपनी रहमत खुद न्यौछावर की है। दोनों जगहों पर लेकिन केदारनाथ की वादियों में कंकरीट के जंगल बढ़ गए, नेपाल में भी सैलानियों की आमद के नाम पर हिमालय के साथ छेड़खानी हुई, जमीन को खोदा, पहा़ड़ों को काटा। हम पीढ़ियों से स्वार्थी जीवन के आदि हो गए तो क्या कुदरत कुछ ना करें ???  भूकंप को जायज तो नहीं कह सकते लेकिन भूकंप आने की संभावना वाले क्षेत्रों में कुछ तो कायदा बरतें, कोई तो नियम लागू हो। कुदरती इलाक़ों में हमें कुदरत की शर्तो के साथ ही रहना होगा। काठमांडू लकड़ी के मकानों की वजह से जाना जाता रहा...वहां कंकरीट के महल किसने और क्यों खड़े होने दिए ??? केदारनाथ धाम में बरसों पहले तक 14 किलोमीटर की चढ़ाई के बाद सीधे नीचे लौट आने का चलन था, आखिर वहां पर होटल,गेस्ट हाउस बनाकर आम लोगों को कई दिनों तक ठहरने की इजाजत किसने दे दी थी ??? हम कुदरत के साथ छेडछा़ड की आदत छोड़े, उसके साथ मज़ाक ना किया करें क्योंकि अगर कुदरत थोड़ा भी मज़ाक कर ले तो हमें नेपाल या उत्तराखंड की तरह ही इंसानियत की रूह कपां देने वाले नज़ारे दिख जाएंगे। बदलना हमें है, कुदरत को नहीं...। .
                                नेपाल और भारत में भूकंप से मारे गए लोगों को श्रद्दाजंलि के साथ !!!
                                                                                                                       - विशाल सूर्यकांत ( जर्नलिस्ट) 

मंगलवार, 4 जून 2013

कुदरत और इंसान की कश्मकश....ज़रा सोचिए !!!

हमारे शहरों का हो रहा विकास... किसी के लिए रोजगार की ज़रूरत है शहर ; तो किसी के लिए विलासिता का दूसरा नाम है शहर... शहर इसीलिए भी ज़रूरी है कि हम देश दुनिया से जुड़े रहे... यहां तक तो सब कुछ ठीक है लेकिन इससे आगे की कहानी परेशानी पैदा करने वाली है। शहर में रहने की चाह और आरजू अब इतनी बेकाबू हो चली है कि कस्बे, शहर बन रहे हैं और शहर, महानगरों में तब्दील हो रहे हैं। बढ़ती आबादी, यहां पहले से बसे लोगों से तो कुछ नहीं कहती लेकिन अपने पसरने के लिए वो क़हर ढ़ा रही है, बेजुबान पेड़ों और जंगलों पर, अपनी मौज में झूलती पेड़ों की ढ़हनियों पर, दरख्तों के पत्तों पर इंसान की कभी ख़त्म ना होने वाली तमन्नाओं का आशियाना बन रहा है...इस होड़ में खत्म हो रहे हैं हमारे जंगल, हमारे वन...
जहां कुदरत की बनाई गई कई और जिंदगियां बसती है, हम इंसानों के अलावा। ये वन कई जानवरों के आशियाने हैं लेकिन हमारी जरूरतों की इंतहा ही नहीं। शहरों की रफ्तार बढ़ाने के लिए हमनें दरख्तों को जमींदोज किया। देखते ही देखते विशाल अट्टालिकाओं के फेर में शहरों में खड़े हो रहे हैं कंकरीट के जंगल। हमारी अपनी जमीन, अब हमारी नहीं रही, इसके दामों ने वो छलांग मारी है कि जमीन भी अब आसमान होती दिख रही है। ऐसा आसमान जिसे छूने की ख्वाहिश तो सबकी लेकिन ...कामयाबी किसी बिरले के ही नसीब में हैं। ज़मीनों की बढ़ती मांग ने हमें फ्लैट्स रूपी दराजों में सिमटा दिया है और फिर भी हमारी चाहत ख़त्म होने का नाम नहीं लेती। शहरों के विकास की आ़ड़ में पहले शहर के आस-पास के जंगल ख़त्म हुए और फिर सरकारों वोटों के खातिर इंसानी जिद के आगे झुकते हुए जंगलों को ही शिफ्ट करने लगी है। मतलब ये कि आपको शहरों के वन क्षेत्र चाहिए तो सरकार मुहैया करवाएगी और उसके बदले में जहां पहले से जंगल है, उसी के ईर्द-गिर्द एक जमीन वन विभाग को दे दी जाएगी।

इससे ज्यादा स्वार्थी सोंच और क्या होगी कि हम जानते हैं कि जंगल एक दिन में नहीं बसता लेकिन इसे उजाड़ने की जिद करें तो चंद घंटों में ही इसे तबाह कर देने के सारे इंतजामात और मशीनरी हमारे पास है। हमारे आस-पास बसे पर्यावरण से ऐसा दोयम दर्जे का बर्ताव आखिर क्यों? क्यों लगता है कि विज्ञान और नई तकनीक का सारा इस्तेमाल कुरदती माहौल को खत्म करने के लिए है। क्यों हम ऐसी मिसाल बहुत कम कायम कर पाए हैं जिसमें विज्ञान और नई तकनीक का इस्तेमाल हमनें कुदरत को संवारने के लिए किया हो। राजस्थान, देश का सबसे बड़ा राज्य हैं लेकिन हम उन राज्यों में शामिल हैं जहां वन क्षेत्र लगातार कम हो रहा है। हरित राजस्थान की सरकारी मुहिम का असर क्या हुआ, इसका आकलन करने की जहमत कौन उठाएं ? पर्यावरण की चुनौती मुंह बांये खड़ी है। पर्यावरण संतुलन के बिगड़ते हालात के लिए शहरीकरण,औद्योगिकीकरण और ना जाने किस-किस को दोष देते रहें हम, लेकिन असल हक़ीकत तो यह है कि हम नें खुद ने आंखे मूंद रखी हैं और दोष अंधेरे को दे रहे हैं। विकास की रफ्तार को कौन रोक सकता है। लेकिन पर्यावरण को लेकर संवेदनाएं चाहिए। ताकि वो वन्यजीव जिन्हें कुदरत ने जिदंगी बख्शी हैं...। इस जमीन पर रहने वाले हर जीव को ऊपर वाले ने उसके हिस्से की सांसों की नियामत दी है। वनों में रहने वाले जानवर शहरों में आकर हिंसक हो जाया करते हैं। लेकिन उनके अपने माहौल में आप जाईए तो बखूबी अपने शांत व्यवहार से आपका स्वागत करते नजर आएंगे। शहरीकरण से उपजी हास्यास्पद स्थिति देखिए कि हम पर्यावरण को खत्म कर अपनी जिंदगी को रफ्तार दे रहे हैं और फिर इसी जिंदगी की भाग-दौड़ से थक-हार कर इसी पर्यावरण की गोद में सुकुन  लेने चले जाते हैं। कुदरत से प्यार नहीं होता तो रणथम्भौर, सरिस्का,नाहरगढ़ के जंगलों के नजारे देखने वालों का टोटा पड़ जाता। यकीकन, हमें कुदरत चाहिए, हमें पर्यावरण चाहिए लेकिन हमारी अपनी शर्तों पर...लेकिन कुदरत के आगे कोई शर्त नहीं चलती। बल्कि कुदरत हमें चलाती है अपनी शर्तों पर । अगर पर्यावरण महफूज़ रखोगे तो कई आपदा-विपदाओं से बच जाओगे वरना को कुदरत तो अपनी जगह बना लेगी। कुदरत अभी तो हमें जगह दे रही, खुद सिमट रही है ताकि आपकी-हमारी हसरतें परवान चढ़ सकें। लेकिन संभलना ज़रूरी हैं क्योकि पता नहीं कब हमारे पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक जाए और हम विकास की खोखली जमीन में जमीदोंज होकर अपना वजूद ही खो बैठें। मौक़ा विश्व पर्यावरण दिवस है, अपील बस इतनी सी है कि ... ज़रा सोचिएं...!!! – विशाल शर्मा