सोमवार, 27 अप्रैल 2015

क़ुदरत का मज़ाक ...

                                     

  - विशाल .सूर्यकांत.शर्मा- 

खुदगर्ज़ी को मजबूरी का नाम देकर इंसान कब तक अपना काम चला सकता है ! कुदरत एक न एक दिन तो अहसास करवा ही देगी कि हक़ीकत क्या है ? हिमालय की गोद में बसे नेपाल में धरती ने दिखाया है अपना रौद्र रूप। चंद पलों के लिए धरती ने सिर्फ अंडगाई भर ही तो ली .... और देखिए एवरेस्ट तक का अहंकार टूट गया और... जमीं पर बसा एक पूरा मूल्क तबाह हो गया।  नेपाल के लोगों ने भूकंप में अपने अतीत की निशानियों को जमींदोज होते देखा। अतीत तो बर्बाद हुआ ही...मगर आज अपने वजूद की सबसे बड़ी अनचाही जंग भी लड़ रहा है नेपाल। ... यहां जिंदगियां सिसक रही है, क्योंकि जिनके रहते जिदंगी की जंग लड़ने का जज्बा था वो भूकंप के एक झटके से हमेशा के लिए दूर हो गए। भूकंप की विडम्बना देखिए कि जो बच गए वो लोग, ऊपर वाले को शुक्रिया तक नहीं कहना चाहते क्योंकि उनके अपने उनकी आंखों के सामने ही मौत की आगोश में सो गए। ना जाने कितनी आँखों ने देखा होगा, महसूस किया होगा कि वो मंजर, जब भूकंप की घबराहट में उऩ्हें पहले घर से बाहर भेजने की जिद में या तो किसी मां ने, या किसी बेटे ने या फिर किसी बाप ने, खुद को हजारो टन के मलबे के हवाले कर दिया।  ताकि उनके परिवार के बाकी लोगों की जिंदगियां चलती रहें। परिवार की आफत अपने सिर ओढ़ कर हमेशा के लिए  दफन हो गए हजारो लोग। नेपाल में लोगों को अब जमीन पर कदम रखने में भी हिचक हो रही होगी, एक कसक महसूस हो रही होगी कि पता नहीं किस मलबे में कितनी लाशों के ढ़ेर पर वो खड़े हो रहे हैं। 


अजीब बदकिस्मती है ये कि जो बच गए उन्हें खुशकिस्मत नहीं कह सकते और जो मारे गए उन्हें बदनसीब कैसे कह दें ? क्योंकि उन्होंनें तो एक तरह से बलिदान ही दिया है अपनों के खातिर....एक-एक कड़ी जोडकर परिवार बना, परिवार से समाज और समाज से एक मूल्क की नींव तैयार हुई लेकिन अब ये माला टूट गई, मोती बिखर गए, कोई किसी के पास नहीं, कोई किसी के साथ नहीं, सबकी अपनी अलग जंग, सबकी अपनी अलग कहानी। 

सोंचिए ज़रा, बिन मां-बाप के जिंदा बच गया इकलौता बच्चा अब ताउम्र अनाथ कहलाएगा, रोज़ जीने की मजबूरी में जिंदगी, ना जाने उससे, क्या और कितने समझौते करवाएगी,ना जाने कितने इम्तिहान लेगी ? बिन परिवार के अकेला बाप, सोचिए उसका मिजाज एक बार फिर किसी बच्चे की मानिंद हो गया होगा, क्योंकि सारी जिम्मेदारियां तो भूकंप एक झटके में उससे छीन कर ले गया, अब बचा क्या होगा उसके पास जिम्मेदारी के नाम पर बस अपने जिस्म के सिवाय ...??? ​​ इंसानी फितरत भले जैसी भी हो लेकिन कुदरत की मार तो कभी अमीर-गरीब नहीं देखती, ना ही वो देश,समाज,जाति या धर्म का भेद करती है। उसके लिए तो सभी एक समान है, कुदरत से छेड़छाड़ के लिए इस सिरे से उस सिरे तक हर कोई कसूरवार है। नेपाल की तस्वीरें देखिए, फुटपाथ पर रहने वाले और महलों में रहने वालों में अब कोई फर्क नहीं बचा। सारे के सारे एक खुले मैदान में, एक साथ, एक अदद तिरपाल के लिए जूझते नज़र आ रहे हैं। 

भूकंप की त्रासदी ये हैं कि इस तरह की घटना में इंसान की अपनी बनावट और बसाहट ही उसके लिए भारी पड़ जाती है। संकरी गलियों में आसमान छूती इमारतें, कभी लाखों की कमाई का जरिया थी लेकिन भूकंप के बाद खुद अपनों की ही मौत का जरिया भी बन गई। कहते हैं कि कुदरत अपना इंसाफ खुद करती है, बदलाव लाती है, इस सच्चाई से कौन भला इंकार कर सकता है ??? लेकिन ये तो कहना पड़ेगा कि कुदरत का ये तरीक़ा बेहद क्रूर है, अमानवीय है। कुदरत की मजबूरी ये हैं कि वो हम आम इंसानों की तरह खुली जुबान में आगाह नहीं कर सकती। ना जाने सदियों से दर्द झेलते-झेलते एक पल के लिए अपना आपा खो बैठती तो ये नेपाल,उत्तराखंड या सुनामी जैसी त्रासद घटनाएं हो जाती है। आपको और हमें सिर्फ इशारे भर समझने पड़ते हैं लेकिन सब कुछ हासिल करने को आमदा हम लोग,अपनी जुस्तजू में इस तरह लगे हैं कि खुद के अलावा परिवार को संभाल ले तो वो भी बहुत मान लिया जाता है। ऐसे में कुदरत को कौन पूछे, कौन समझे  कुदरत की हालत पर ग़ौर करने का चलन तो बस गोलमेज सम्मेलनों तक सीमित रह गया है, एनजीओ की फंडिंग में सिमट कर रह गया है।

 आज नेपाल तो... कल उत्तराखंड था, दोनों कुदरत की गोद में पले-बढ़े हैं, कुदरत ने दोनों जगहों पर अपनी रहमत खुद न्यौछावर की है। दोनों जगहों पर लेकिन केदारनाथ की वादियों में कंकरीट के जंगल बढ़ गए, नेपाल में भी सैलानियों की आमद के नाम पर हिमालय के साथ छेड़खानी हुई, जमीन को खोदा, पहा़ड़ों को काटा। हम पीढ़ियों से स्वार्थी जीवन के आदि हो गए तो क्या कुदरत कुछ ना करें ???  भूकंप को जायज तो नहीं कह सकते लेकिन भूकंप आने की संभावना वाले क्षेत्रों में कुछ तो कायदा बरतें, कोई तो नियम लागू हो। कुदरती इलाक़ों में हमें कुदरत की शर्तो के साथ ही रहना होगा। काठमांडू लकड़ी के मकानों की वजह से जाना जाता रहा...वहां कंकरीट के महल किसने और क्यों खड़े होने दिए ??? केदारनाथ धाम में बरसों पहले तक 14 किलोमीटर की चढ़ाई के बाद सीधे नीचे लौट आने का चलन था, आखिर वहां पर होटल,गेस्ट हाउस बनाकर आम लोगों को कई दिनों तक ठहरने की इजाजत किसने दे दी थी ??? हम कुदरत के साथ छेडछा़ड की आदत छोड़े, उसके साथ मज़ाक ना किया करें क्योंकि अगर कुदरत थोड़ा भी मज़ाक कर ले तो हमें नेपाल या उत्तराखंड की तरह ही इंसानियत की रूह कपां देने वाले नज़ारे दिख जाएंगे। बदलना हमें है, कुदरत को नहीं...। .
                                नेपाल और भारत में भूकंप से मारे गए लोगों को श्रद्दाजंलि के साथ !!!
                                                                                                                       - विशाल सूर्यकांत ( जर्नलिस्ट) 

2 टिप्‍पणियां:

  1. Nothing is immortal in this world...Everything is destined to end at some point of time...What matters is how does it end? Is it happening naturally or we are forcing to the end....Natural trajedies are beyond our controls but it surely calls for a serious introspection....Nature blesses us with life....That is why it is called MOTHER NATURE.... Kedarnath Tsunami or Nepal tragedies are just a trailors....We do not own this earth...We owe it to our future generations...for our kids and for their kids....Thoughts in the blog are impressively kneated.....Would like to read more on this....Keep Posting.... :)

    जवाब देंहटाएं

ये आर्टिकल आपको कैसा लगा, कमेंट बॉक्स में जरूर लिखें,