सोमवार, 27 अप्रैल 2015

एक मुलाक़ात ... रणथम्भौर राजा के साथ

                     एक मुलाक़ात ... रणथम्भौर राजा के साथ

                                               - विशाल सूर्यकांत शर्मा                                                          

अलसुबह के वक्त हम निकल पड़े रणथम्भौर के जंगल में। कंकरीट के जंगलों की काली सड़क से निकल कर हम आगे बढ़ रहे हैं कुदरत के उन नजारों के बीच कच्ची पगडंडियों के सफ़र पर। यहां की ओर जाते हुए ही ये अहसास हुआ कि चाहे लाख सुख-सुविधाओं में हम रह ले, लेकिन कुदरत का दुलार अपने आप में अलग अनुभव है। जंगली पेड़-पौधे और खूबसूरत बेल, तोरण की मानिंद मानों हमारी मेहमान नवाज़ी में लगाई गई हों। शहरों में पिंजरों में कैद पड़े परिन्दों की आवाज सुनने के आदि हम लोगों के लिए ये अनूठा अहसास था जब बेफ्रिकी के माहौल में जगह-जगह बैठे परिन्दें अपनी मीठी तान छेड़े हुए दिखे। चीतल,नीलगाय, हिरण, खरगोश सब अपने-अपने तरीके से यहां-वहां घूम रहे थे। उनके लिए सब वही था, रोजमर्रा की जिंदंगी, लेकिन इसे देखने वाले यानि हम लोगों के लिए उनकी रोजमर्रा की जिंदगी को देखने का क्षण भी बेशकीमती लग रहा था।

ज्यादा दूर नहीं, राजस्थान के सवाई माधोपुर की रणथम्भौर टाइगर सफारी में चंद मिनटों का ही सफर हुआ और अचानक ...हमारा पूरा काफिला रुक गया...आपस में हंसी-ठिठोली करते साथियों को एक कड़ी फटकार ने खामोश कर दिया। कोई कुछ समझ पाता, इससे पहले ड्राइवर की आवाज़ गरजी कि आवाज मत करो...आपके दाहिनी ओर दो टाइगर बैठे हैं। अनायास मिली इस जानकारी से सब कौतूहल भरी निगाहों से उन जीवों को तलाशने लगे जो रणथंभौर की पहचान है। एक जगह आंखें टिकी और गले से चिपकी एक धीमी आवाज निकली...ओह ! 'टाइगर...!!! उन्मुक्त माहौल, अलसाई सुबह में अंगडाई लेती बाधिन टी- १९ और बाघ टी- २८ के नज़ारों ने लोगों का मन मोह लिया।  टाईगर को करीब से जानने वाले ड्राइवर और अधिकारियों ने बताया कि टाईगर और टाइग्रेस को एक साथ देखना अपने आप में एक दुर्लभ नज़ारा है। यहां आने वाले देश-विदेश के सैलानी यहां के स्टाफ से ना जाने कितनी मिन्नतें करते हैं, ना जाने कितने दिनों तक इंतजार करते हैं, इस उम्मीद में कि एक ना एक दिन रणथंभौर का राजा यानि टाइगर, अपनी जिंदगी में उऩ्सेहें झांकने की इजाजत दे देगा। लेकिन राजा तो राजा ठहरा, हर किसी की मन चाही मुराद तो पूरी कर नहीं सकते। लेकिन हम उन खुशकिस्मत लोगों में से एक थे जिन्हें रणथम्भौर के राजा और रानी दोनों ने एक साथ दिखाया अपना रुबाब, अपना खास अंदाज। घूरती आंखें, दहाड़ और गज़ब की फूर्ती ...सब कुछ अनोखा और अब तक अनदेखा...

( फोटो बेवसाइट्स से)
चंद पलों तक टाइगर को निहार कर लगा कि ये अहसास डिस्कवरी चैनल में देखने से तो बिल्कुल नहीं आता‍ और ना ही अपने शहर के जू में जाकर आप ये रोमांच महसूस कर सकते हैं। चंद फीट के फासले पर अगर आपको टाइगर अपने सिर्फ दर्शन करवा रहा है तो इसे एक अहसान ही मानिए क्योंकि इतने फासले को तो ये पलक झपकते ही पार कर आपके सामने भी खड़ा हो सकता है। शायद इतनी देर में तो आप और हम टीवी का रिमोट बटन नहीं दबा सकते।
इन नजारों को देखकर अहसास हो गया कि क्यों लोग रणथम्भौर के जंगलों में दिन बीताना पसंद करते हैं ???
लोग कहते हैं रणथम्भौर में कई दिन बीताने के बाद भी टाइगर नहीं दिखता और दिख भी जाए तो वो कुदरती माहौल में नहीं दिखता। लेकिन इसे हमारी किस्मत ही कहिए कि एक नहीं बल्कि दो टाईगर दिखे। एक जो़ड़े में, एक जगह पर। कैमेरों की फ्लैश, गाड़ियों की आवाज, लोगों की खुसफुसाहट सब कुछ नजर अंदाज कर टाईगर ने दिखाई अपनी जिंदगी...अपने अंदाज में। रणथम्भौर जाएं तो जोगी महल में जाकर रणथम्भौर के पूरे नजारे को जरूर देखिए, हो सकता है कि पीछे बने तालाब में आपको कोई ना कोई जंगली जानवर फिर नज़र आ जाए या फिर किस्मत के धनी है तो टाइगर फिर दिख जाए !!! रणथम्भौर का रोमांच महसूस कर वापस घर की और लौेटे तो मन में ये बात जरूर सोंचिए कि टाइगर वास्तव में कहां होने चाहिए !!! सर्कस में इनका प्रर्दशन बंद करवा कर वन्यजीव संरक्षण का स्वांग रचने वाली सरकारों ने इन्हें जू में रखकर दिखाना शुरु कर दिया। क्या रणथम्भौर का राजा टाइगर दस बाई दस की कोटरी में आपको पसंद आएगा...??? क्यों ज़रूरी है कि हम टाइगर को अपने शहर में क़ैदियों की मानिंद रखें ??? क्या वाकई सिर्फ इन्हें देखने भर की जिद में हम इन्हें बंधक बनाकर रख सकते हैं ??? 
ऊपर वाले से सभी को कुछ ना कुछ नियामत दी है। रणथम्भौर में विचरण करते टाइगर की जिंदगी उसकी अपनी है, जीने का अंदाज अपना है। आपका बस सिर्फ इतना भर हक़ हो सकता है कि उन्हें उनके कुदरती माहौल में अगर ये खुद इजाजत दें तो पूरे सम्मान की भावना के साथ देखिए और फिर लौट आईए।
 और हां, रणथम्भौर जाएं तो टाइगरमैन फतह सिंह के बारे में जानना मत भूलिएगा ...!!! वो अब जिंदा तो नहीं, लेकिन जंगल की हलचल में आज भी फतह सिंह की जिंदादिली के किस्से सुनाने वालों की कमी नहीं है !!! 

    ( विशाल सूर्यकांत शर्मा, जर्नलिस्ट)  
                              -*- 

क़ुदरत का मज़ाक ...

                                     

  - विशाल .सूर्यकांत.शर्मा- 

खुदगर्ज़ी को मजबूरी का नाम देकर इंसान कब तक अपना काम चला सकता है ! कुदरत एक न एक दिन तो अहसास करवा ही देगी कि हक़ीकत क्या है ? हिमालय की गोद में बसे नेपाल में धरती ने दिखाया है अपना रौद्र रूप। चंद पलों के लिए धरती ने सिर्फ अंडगाई भर ही तो ली .... और देखिए एवरेस्ट तक का अहंकार टूट गया और... जमीं पर बसा एक पूरा मूल्क तबाह हो गया।  नेपाल के लोगों ने भूकंप में अपने अतीत की निशानियों को जमींदोज होते देखा। अतीत तो बर्बाद हुआ ही...मगर आज अपने वजूद की सबसे बड़ी अनचाही जंग भी लड़ रहा है नेपाल। ... यहां जिंदगियां सिसक रही है, क्योंकि जिनके रहते जिदंगी की जंग लड़ने का जज्बा था वो भूकंप के एक झटके से हमेशा के लिए दूर हो गए। भूकंप की विडम्बना देखिए कि जो बच गए वो लोग, ऊपर वाले को शुक्रिया तक नहीं कहना चाहते क्योंकि उनके अपने उनकी आंखों के सामने ही मौत की आगोश में सो गए। ना जाने कितनी आँखों ने देखा होगा, महसूस किया होगा कि वो मंजर, जब भूकंप की घबराहट में उऩ्हें पहले घर से बाहर भेजने की जिद में या तो किसी मां ने, या किसी बेटे ने या फिर किसी बाप ने, खुद को हजारो टन के मलबे के हवाले कर दिया।  ताकि उनके परिवार के बाकी लोगों की जिंदगियां चलती रहें। परिवार की आफत अपने सिर ओढ़ कर हमेशा के लिए  दफन हो गए हजारो लोग। नेपाल में लोगों को अब जमीन पर कदम रखने में भी हिचक हो रही होगी, एक कसक महसूस हो रही होगी कि पता नहीं किस मलबे में कितनी लाशों के ढ़ेर पर वो खड़े हो रहे हैं। 


अजीब बदकिस्मती है ये कि जो बच गए उन्हें खुशकिस्मत नहीं कह सकते और जो मारे गए उन्हें बदनसीब कैसे कह दें ? क्योंकि उन्होंनें तो एक तरह से बलिदान ही दिया है अपनों के खातिर....एक-एक कड़ी जोडकर परिवार बना, परिवार से समाज और समाज से एक मूल्क की नींव तैयार हुई लेकिन अब ये माला टूट गई, मोती बिखर गए, कोई किसी के पास नहीं, कोई किसी के साथ नहीं, सबकी अपनी अलग जंग, सबकी अपनी अलग कहानी। 

सोंचिए ज़रा, बिन मां-बाप के जिंदा बच गया इकलौता बच्चा अब ताउम्र अनाथ कहलाएगा, रोज़ जीने की मजबूरी में जिंदगी, ना जाने उससे, क्या और कितने समझौते करवाएगी,ना जाने कितने इम्तिहान लेगी ? बिन परिवार के अकेला बाप, सोचिए उसका मिजाज एक बार फिर किसी बच्चे की मानिंद हो गया होगा, क्योंकि सारी जिम्मेदारियां तो भूकंप एक झटके में उससे छीन कर ले गया, अब बचा क्या होगा उसके पास जिम्मेदारी के नाम पर बस अपने जिस्म के सिवाय ...??? ​​ इंसानी फितरत भले जैसी भी हो लेकिन कुदरत की मार तो कभी अमीर-गरीब नहीं देखती, ना ही वो देश,समाज,जाति या धर्म का भेद करती है। उसके लिए तो सभी एक समान है, कुदरत से छेड़छाड़ के लिए इस सिरे से उस सिरे तक हर कोई कसूरवार है। नेपाल की तस्वीरें देखिए, फुटपाथ पर रहने वाले और महलों में रहने वालों में अब कोई फर्क नहीं बचा। सारे के सारे एक खुले मैदान में, एक साथ, एक अदद तिरपाल के लिए जूझते नज़र आ रहे हैं। 

भूकंप की त्रासदी ये हैं कि इस तरह की घटना में इंसान की अपनी बनावट और बसाहट ही उसके लिए भारी पड़ जाती है। संकरी गलियों में आसमान छूती इमारतें, कभी लाखों की कमाई का जरिया थी लेकिन भूकंप के बाद खुद अपनों की ही मौत का जरिया भी बन गई। कहते हैं कि कुदरत अपना इंसाफ खुद करती है, बदलाव लाती है, इस सच्चाई से कौन भला इंकार कर सकता है ??? लेकिन ये तो कहना पड़ेगा कि कुदरत का ये तरीक़ा बेहद क्रूर है, अमानवीय है। कुदरत की मजबूरी ये हैं कि वो हम आम इंसानों की तरह खुली जुबान में आगाह नहीं कर सकती। ना जाने सदियों से दर्द झेलते-झेलते एक पल के लिए अपना आपा खो बैठती तो ये नेपाल,उत्तराखंड या सुनामी जैसी त्रासद घटनाएं हो जाती है। आपको और हमें सिर्फ इशारे भर समझने पड़ते हैं लेकिन सब कुछ हासिल करने को आमदा हम लोग,अपनी जुस्तजू में इस तरह लगे हैं कि खुद के अलावा परिवार को संभाल ले तो वो भी बहुत मान लिया जाता है। ऐसे में कुदरत को कौन पूछे, कौन समझे  कुदरत की हालत पर ग़ौर करने का चलन तो बस गोलमेज सम्मेलनों तक सीमित रह गया है, एनजीओ की फंडिंग में सिमट कर रह गया है।

 आज नेपाल तो... कल उत्तराखंड था, दोनों कुदरत की गोद में पले-बढ़े हैं, कुदरत ने दोनों जगहों पर अपनी रहमत खुद न्यौछावर की है। दोनों जगहों पर लेकिन केदारनाथ की वादियों में कंकरीट के जंगल बढ़ गए, नेपाल में भी सैलानियों की आमद के नाम पर हिमालय के साथ छेड़खानी हुई, जमीन को खोदा, पहा़ड़ों को काटा। हम पीढ़ियों से स्वार्थी जीवन के आदि हो गए तो क्या कुदरत कुछ ना करें ???  भूकंप को जायज तो नहीं कह सकते लेकिन भूकंप आने की संभावना वाले क्षेत्रों में कुछ तो कायदा बरतें, कोई तो नियम लागू हो। कुदरती इलाक़ों में हमें कुदरत की शर्तो के साथ ही रहना होगा। काठमांडू लकड़ी के मकानों की वजह से जाना जाता रहा...वहां कंकरीट के महल किसने और क्यों खड़े होने दिए ??? केदारनाथ धाम में बरसों पहले तक 14 किलोमीटर की चढ़ाई के बाद सीधे नीचे लौट आने का चलन था, आखिर वहां पर होटल,गेस्ट हाउस बनाकर आम लोगों को कई दिनों तक ठहरने की इजाजत किसने दे दी थी ??? हम कुदरत के साथ छेडछा़ड की आदत छोड़े, उसके साथ मज़ाक ना किया करें क्योंकि अगर कुदरत थोड़ा भी मज़ाक कर ले तो हमें नेपाल या उत्तराखंड की तरह ही इंसानियत की रूह कपां देने वाले नज़ारे दिख जाएंगे। बदलना हमें है, कुदरत को नहीं...। .
                                नेपाल और भारत में भूकंप से मारे गए लोगों को श्रद्दाजंलि के साथ !!!
                                                                                                                       - विशाल सूर्यकांत ( जर्नलिस्ट)