राहुल गांधी हो चुका अहसास, दरकती दीवारों पर नहीं बनते किले ...
विशाल सूर्यकांत
याद कीजिए जब चुनाव के बाद राहुल गांधी ने नैतिकता की दुहाई देकर कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया. इस उम्मीद में, कि पूरे देश में कांग्रेस के लोग अपने पदों से इस्तीफे की पेशकश कर राहुल गांधी के पीछे खड़े हो जाएंगे. लेकिन उस वक्त की राजनीति का सच ये है कि ऐसा हुआ नहीं . तब सवाल राहुल गांधी के सामने यकीकन आया होगा कि ऐसा कैसे हुआ ? अध्यक्ष पद को छोड़ने का असर व्यापक होना चाहिए था. इसका अर्थ ये है कि राजनीतिक रुप से राहुल गांधी या गांधी परिवार को एक चेहरे के रूप में आगे कर कांग्रेस के भीतर एक अलग राजनीतिक खेल चल रहा है. जिसमें सारे नेता उन्हें आगे तो रख रहे हैं लेकिन उनके फैसलों पर अमल करना जरूरी नहीं समझ रहे. अंदरुनी रूप से पार्टी में हो रहे इस घटनाक्रम में कई लोग ग्रुप-23 जैसे समूहों का हिस्सा बन गए तो कुछ पार्टी छोड़कर भाजपा व अन्य पार्टियों में जा बैठे. राहुल गांधी कांग्रेस के संगठन में जो आमूलचूल परिवर्तन करना चाह रहे थे. उस पर सभी अपनी-अपनी सहूलियतों से अमल कर रहे थे. एक तरफ भाजपा का आक्रमण, दूसरी और विपक्षी खेमे की एकता में कांग्रेस की लीडरशीप को स्थापित करना, तीसरी और परिवारवाद का आरोप और चौथी और कांग्रेस की अंदरुनी खींचतान जिसमें सीनियर-जूनियर्स की महत्वाकांक्षाओं ने कांग्रेस को खोखला कर रखा है. बारिशों में जिस तरह कमजोर दीवारें ढह कर बंद कमरों को खुला कर देती है, ठीक वैसे ही एक के बाद एक जाते नेताओं की फेहरिस्त ने कांग्रेस के बंद कमरों की राजनीति को एक्पोज कर दिया.
चौतरफा घिरे राहुल गांधी की हालत ये हो गई कि सत्ता में लाना उनकी जिम्मेदारी लेकिन रणनीति और सिपाहेसालार तय करने का अधिकार नहीं . राहुल गांधी इसीलिए इस राजनीति से अलग होकर भारत यात्रा के रूप में अपनी राजनीतिक कड़ियां जोड़ने में लग गए. उन्हें पता है कि अगर वो चुनाव में खड़े होंगे तो उनके सामने कोई भी कद्दावर नेता नहीं आएगा, कांग्रेस के अंदरुनी खेमेबाजी फिर असर दिखाएगी. कहते हैं कि अगर आप आपकी ख्वाहिशें, सबके सामने आ जाएं तो दुनिया लाख चुनौतियां खड़ी कर देती है और अगर आप सारी ख्वाहिशें छोड़कर निवृत्ति दिखाएं तो सत्ता भी आपके चरणों में आ बिछती है. राहुल गांधी भी इसी राह पर हैं. जब पद पर थे तो कोई सुनता और समझना नहीं था और जब पद पर नहीं हैं तो उन्हें पदासीन करने के लिए एक के बाद एक कई प्रदेश कांग्रेस कमेटियां प्रस्ताव पास कर रही हैं. एक तरह से ये राहुल गांधी के लिए उनके नेतृत्व का लिटमस टेस्ट भी है और कांग्रेस के भीतर गुटबाजी को भांपने का अपना तरीका भी. ये राहुल गांधी भी जानते हैं कि उनका चुनाव लड़ना या न लड़ने के मुद्दे से कांग्रेस में फिलहाल तो उनके भविष्य पर असर नहीं डालेगा. हां अगर वो संगठन चुनाव नहीं लड़ कर नेता बने रहते हैं तो फिर एक तरह से कांग्रेस में उनकी वही मॉरल ऑर्थोरिटी स्थापित हो जाएगी जो कि सोनिया गांधी की है. याद कीजिए एक वक्त में सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए सारे कांग्रेसी एकजुट थे, सारी कोशिशें और कयासबाजियां शुरु हो गई लेकिन ऐन वक्त पर सोनिया गांधी ने पेशकश ठुकरा कर कांग्रेसियों के लिए त्याग की मिसाल कायम कर दी. कांग्रेस में गांधी परिवार के वफादार नेता राहुल गांधी के लिए कुछ ऐसी ही स्क्रिप्ट तैयार कर रहे हैं. ऐसी भूमिका जिसमें राहुल गांधी का अध्यक्ष बनना या न बनना गौण हो जाए, उनका नैतिक अधिकार इतना बड़ा हो जाए कि कम से कम उनके राजनीतिक काल में कोई ग्रुप 23 जैसा समूह तैयार न हो, कोई ऐसा नेता न हो जो उनकी मंशा की नाफरमानी कर सके.