मंगलवार, 12 जून 2018

सोशल मीडिया : सच बनाम वायरल झूठ की जंग


"मुझे मत मारो... प्लीज़ मुझे मत मारो,,मैं असमिया हूं...मेरा विश्वास करो, मैं सच बोल रहा हूँ....मेरे पिता का नाम गोपाल चंद्र दास है और मां का नाम राधिका दास है...प्लीज़ मुझे जाने दो."

                                                                फोटो - दिवंगत- नीलोत्पल,असम ( भीड़ के हाथों मारा गया शख्स)


- विशाल 'सूर्यकांत'

..बस इन्हीं आखिरी शब्दों के साथ,असम के नीलोत्पल का ये आखिरी वीडियो घूम रहा है। क्योंकि इसके बाद भीड़ ने कुछ नहीं सुना। ...नीलोत्पल और उसके साथी को पीट-पीट कर भीड़ ने मार डाला और फिर सरे राह शवों की बेकद्री की गई।

ये दर्दनाक दास्तान, सोशल मीडिया पर बच्चा चोरी की अफवाह के फेर में, असम में भीड़ के हाथों मारे गए दो निर्दोष युवकों की है। लोग मानते हैं कि सोशल मीडिया सिर्फ हमारी जिंदगी से जुड़ चुका है...मगर भीड़ के हाथों नृशंस हत्याओं के मामले बताते हैं कि सोशल मीडिया,मौत के कारणों से भी जुड़ रहा है। मोबाइल टू मोबाइल डर ,नफरत,हिंसा और एक तरफा नजरिया, परोसा जा रहा है। असम की इस घटना के चंद दिन पहले बैंगलुरू में भी ऐसी ही घटना हुई । राजस्थान के पाली के निमाज गांव का  25 साल का युवक कालूराम मेघवाल बैंगलुरू में भीड़ के हाथों मारा गया। किसी ने कालूराम को बैंगलुरू में एक बच्चे से बात करता देख लिया, बस  एक आदमी का शक,भीड़तंत्र में इस तरह बदला कि लोग एक युवक पर टूट पड़े।

कालूराम को इतना मारा,इतना पीटा और घसीटा गया कि जान चली गई। यहां भी जानलेवा पिटाई का वीडियो बनाया गया। बच्चा चोरी की ये अफवाह कैसे बैंगलुरू और असम तक पहुंची ये जानने और समझने का कोई सिस्टम सरकार के पास नहीं है। बैंगलुरू और असम की घटनाओं के वीडियो न जाने कितने सालों तक घूमते रहेंगे हमारे समाज में..?  न जाने कौन कब इसे हिन्दू-मुस्लिम का एंगल देकर वायरल करेगा, कौन इसे दलित-सवर्ण बताएगा और न जाने कौन इसे उत्तर भारतीय-दक्षिण भारतीय या नॉर्थ ईस्ट की तकरार का रंग डाल कर परोसेगा, किसी को नहीं पता।  ये नृशंस हत्याएं न जाने, किस शक्ल में फिर लौटेंगी क्योंकि ये कंटेट,वीडियो देश के करोड़ों मोबाइल में सेव हो चुका है। आज,कल या पता नहीं...दस सालों बाद, कोई सरफिरा ये जूनन फिर फैलाएगा और हमारे बच्चे, सिर्फ अफवाह और शक की बिनाह पर,अपने ही लोगों के हाथों इसी तरह मारे जाते रहेंगे।

सोचिए जरा, सोशल मीडिया के जरिए कैसा समाज तैयार कर रहे हैं हम ? सोशल कनेक्टिविटी के नाम पर बनें एप्स, समाज को तोड़ने का जरिया बनते जा रहे हैं। हमारे लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलते जा रहे हैं।

राजस्थान के राजसमंद में शंभू रैगर ने किस तरह अफराजुल नाम के शख्स की नृशंस हत्या की,कैसे शव को जलाया और इसके बाद कैसे राष्ट्र के नाम संबोधन दिया, देश के करोड़ों मोबाइल में ये वीभत्स वीडियो उस वक्त वायरल हुआ और आज भी सेव होगा।  शंभू रैगर जोधपुर जेल में बंद है,फिर भी उसके वीडियो मैसेज वायरल हो रहे हैं ।  देश में कहीं न कहीं, किसी कोने में नया शंभू रैगर तैयार करने के समर्थन में या अफराजुल की मौत का बदला लेने वाले मैसेज यकीनन वायरल हो रहे होंगे। देश में ऐसे एक दो नहीं बल्कि कई मामले हैं।  कथित गोरक्षकों का न्याय,दलित अत्याचार,पश्चिम बंगाल में हिन्दूओं पर अत्याचार की तस्वीरें, सीरिया में जुल्म,रोहिंग्या का जुल्म, राम मंदिर, कश्मीर की पत्थरबाजी, अरब में अपराधी को फांसी के फंदे पर लटका कर जनता के सामने न्याय, यूपी के किसी शहर में मोहर्रम के जुलुस पर हिन्दुओं पथराव, राम नवमीं के धार्मिक जूलुस पर मुस्लिमों का पथराव, गुरमीत राम रहीम से लेकर आसाराम समर्थक और विरोधियों का टकराव, किसी मासूम बच्ची से बलात्कार, किसी युवती को ब्लैकमेल कर वीडियो तैयार कर वायरल करना, नेताओं के बयानों में आलू से सोना बनाने की फैक्ट्री से लेकर पानी में करंट निकाल देने वाले बयान और उस पर साइन्टिस्ट गहलोत जैसे जुमलों का ट्रेडिंग में आना। राजनीति से लेकर नफरत तक सब कुछ  घर बैठे आपके मोबाइल पर परोसा जा रहा है। कहीं  उन्माद है तो कहीं उपहास, लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रुप में स्वच्छंदता परोसी जा रही है।


सोशल मीडिया के अनगिनत फायदे हैं मगर कायदे भी टूटते जा रहे हैं। सोशल मीडिया पर युवाओं की सक्रियता को देखकर देश में मानों एक फेक इण्डस्ट्री तैयार हो चुकी है। जो सोशल मीडिया पर सभी तरह का कंटेट परोस रही है। अभिव्यक्ति की आजादी का मामला है तो आईटी कानून को छोड़कर सोशल मीडिया के लिए न तो कोई पुख्ता नियम है, न ही कोई सेंसरशिप। कोई सामाजिकता बंधन नहीं न कोई बंदिश। सब कुछ कहने और ओरों को फॉर्वर्ड करने का खुला मंच है सोशल मीडिया..। संदर्भ देश के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की फेक फोटो वायरल करने से जु़ड़ रहा है। कौन हैं जो लोग ऐसा कर रहे हैं..? राजनीतिक मैसेज वायरल होते हैं और नेताओं से इसके बारे में पूछिएगा तो अक्सर जबाव आएगा कि "ये तो जनभावनाएं है,जनता स्वेच्छा से कर रही है" ..। सोशल मीडिया यूजर से पूछिए तो कहेंगें कि भई,डेमोक्रेसी है,हमारी अभिव्यक्ति की आजादी है। पुलिस से पूछिए तो कहेंगे कि बताइए कौन मैसेज फैला रहा है, अभी तुरंत उठाकर अंदर किए देते हैं। यानि हम सोशल मीडिया को ऐसा माध्यम बना चुके हैं जिसके कंटेट पर अतिवादी हो चले हैं। जी हां,अतिवादी...या तो अति सहज या अति संवेदनशील...

वर्चुअल वर्ल्ड का नाम है लेकिन हम वर्चुअल को एक्चुअल वर्ल्ड मान बैठे हैं। जिस तेजी से आइडिया आता है,उससे कई गुना तेजी से वायरल हो जाता है। वाकिया होने के बाद पता चलता है कि मामला जिसे सहजता से ले रहे थे वो तो अतिसंवेदनशील हो गया, किसी शहर में अराजकता फैल गई,फसाद हो गया या कोई नामी शख्सियत का फेक कंटेट पर जबर्दस्त ट्रोल हो गया। दरअसल,सहज और संवेदनशीलता के बीच समझदारी का रास्ता न सरकारों ने बनाया और न ही हमारी सोसायटी अपना रही है। सस्ते होते मोबाइल और डेटा के कारोबार ने देश ने अभिव्यक्ति की आजादी में वाकई क्रांति ला दी है और इस क्रांति की आड़ में फेक और आपत्तिजनक कंटेट,फोटो की फेक इण्डस्ट्री भी तैयार हो चुकी है। फेक इण्डस्ट्री का नतीजा ये कि लोगों के लिए मानहानिकारक,चरित्रहनन से लेकर जानलेवा तक साबित हो रहा है।


लोकतंत्र की सुविधा कैसे दुविधा ये बन जाती है इसका उदाहरण भी लीजिए,अगर आप कंटेट पर सख्ती करेंगे तो पुलिस,प्रशासन की अतिवादिता सामने आ जाती है। सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक कंटेंट या तंज कसने भर का मामला अगर सत्ता के ईर्द-गिर्द बैठे लोगों के खिलाफ तो पुलिस की अतिसक्रियता सामने आ जाती है। कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को याद कीजिएगा या शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे के निधन पर दो दिन के राजकीय अवकाश पर सवाल उठाने वाली मुंबई की दो बच्चियों पर हुई कार्रवाई को याद कर लीजिएगा। ये तो सिर्फ उदाहरण है,ऐसे कई मामले हैं जिनमें कौन 'एंटी सोशल एलीमेंट्स' है, ये सत्ता और रसूखदारों के हिसाब से पुलिस तय करने लगती है और अगर कार्रवाई न हो तो देश के प्रधानमंत्री,पूर्व प्रधानमंत्री,राष्ट्रपति,पूर्व राष्ट्रपति के फोटो की भी मॉर्फिंग होकर गलत कंटेट और इनफोर्मेंशन भी चल पड़ती है।


 राष्ट्रपिता महात्मा गांधी या देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू,सोनिया गांधी राहुल गांधी या आडवाणी और प्रधानमंत्री मोदी जैसी शख्सियतों का चरित्र हनन,मान-मर्दन कर रोज वायरल हो रहा है। व्यक्ति ही नहीं संस्थाएं भी नकारी जा रही हैं।  मीडिया को भांड, बिकाऊ मीडिया कहना, जजों को  बिकाऊ,राष्ट्रवादी,गैरराष्ट्रवादी कहने तक में गुरेज नहीं।  जज या  पत्रकार, सरकार, पुलिस, नौकरशाही कोई ऐसी संस्था नहीं है जिस पर अविश्वास को बढ़ाने वाली टिप्पणियां न हो रही हों, कंटेट वायरल न हो रहे हों। ऐसी टिप्पणियां हो रही हैं, जिसमें गोया हर शख्स, हर संस्था, हर सरकार अविश्वास के अतिरेक की चुनौती से रुबरू है।


यकीकन, लोकतंत्र है कुछ भी कहा जा सकता है, कुछ भी लिखा जा सकता है लेकिन आने वाली नस्लों में जाने-अनजाने हम देश की संस्थाओं के प्रति 'आशावाद' को  खत्म कर रहे हैं। आने वाली नस्ले, एक-दूसरे को कोसती हुई, उपहास करती हुई पैदा करने जा रहे हैं हम। जो सुधार नहीं बल्कि मोबाइल पर खामियों को गिनाती हुई बड़बड़ाती रहेगी। क्योंकि न्याय और विश्वास के सारे प्रतिमान तो हम तब तक ध्वस्त कर चुके होंगे। चंद गलत उदाहरण और खामियां होंगी मगर आप परसेप्शन ही अगर गलत बना लीजिएगा तो कहां और किससे उम्मीद बचेगी ?  नेताओंं के खिलाफ टिप्पणी तो लोकतंत्र में फिर भी एक हद तक स्वीकारी जा सकती है, मगर धर्म विशेष को लेकर कंटेट तैयार कर वायरल होना इस देश में आम घटनाओं में शामिल हो चुका है। अभी कैराना में नव निर्वाचित सांसद तबस्सुम ने सांसद बनते ही पहला मामला ये दर्ज करवाया है कि उनकी जीत के बाद कुछ लोगों ने राम पर अल्लाह की जीत का मैसज बनाकर वायरल कर ड़ाला है। इसी तरह इस्लाम और राम पर कोई मैसेज अचानक वायरल हो जाता है।


सोशल मीडिया का आर्थिक पहलू 

समस्या कितनी बड़ी है ये आर्थिक पहलू से भी समझ लीजिए। आर्थिक मामलों की संस्था आईसीआरआईईआर (ICRIER) की एक स्टडी का उदाहरण दे रहा हूं। भारत में सोशल मीडिया और इंटरनेट कोई कंटेट वायरल होते ही साम्प्रदायिक तनाव और कानून-व्यवस्था का मुद्दा बन जाता है। पुलिस,प्रशासन को इंटरनेट शटडाउन के सिवाय कोई रास्ता नहीं सूझता। 2012 से 2015 तक की स्टडी में सामने आया कि भारत में 'नेटबंदी' के चलते साल 2012 से 2015 तक 3 बिलियन डॉलर का अनुमानित घाटा हुआ। साल 2012 से साल 2017 के दौरान भारत में 16,315 घंटे के इंटरनेट शटडाउन की इकोनॉमी में कुल लागत 3.04 बिलियन डॉलर रही है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 12,615 घंटे के मोबाइल इंटरनेट शट डाउन की भारतीय अर्थव्यवस्था को कुल लागत लगभग 2.37 अरब अमेरिकी डॉलर थी और वहीं 3,700 घंटे के लिए मोबाइल एवं फिक्स्ड लाइन इंटरनेट के शटडाउन से भारतीय अर्थव्यवस्था को साल 2012 से 2017 के दौरान 678.4 मिलियन डॉलर का नुकसान हुआ।


मामूली तनाव से लेकर राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के मामले में जिस तेजी से पुलिस-प्रशासन इंटरनेट बंदी का फैसला ले लेते हैं, वो भारत की डिजीटल इंडिया मुहिम को भी करारा आर्थिक तमाचा जड़ रहा है। ऐसे मामलों से देश की छवि का क्या बन रही है ? तस्वीर का एक और रुख आप यूनेस्को की रिपोर्ट में देखिए 'दक्षिण-एशियाई प्रेस फ्रीडम रिपोर्ट 2017-18 में यूनेस्को की ओर से जारी रिपोर्ट के मुताबिक दक्षिणी एशियाई देशों में इंटरनेट बैन के कुल 97 मामले सामने आए हैं जिनमें से 82 मामले अकेले भारत में हैं। जबकि पाकिस्तान में सिर्फ 12 मामले हैं। भारत के इन 82 मामलों में आधे से ज्यादा मामले कश्मीर घाटी में सामने आए हैं। जहां सेना ने आतंकवादी गतिविधियों के चलते कई शहरों में लगातार इंटरनेट बैन करने का निर्णय लिया। पिछले साल घाटी में आतंकवदी और अन्य नागरिकों के मारे जाने के बाद होने वाले दंगों पर लगाम लगाने के लिए कई बार इंटरनेट बैन किया गया। कश्मीर का मामला वाकई राष्ट्र से जुड़ा हुआ है, ये समझ में आता है लेकिन क्या राजस्थान,बिहार,पश्चिम बंगाल,पंजाब,हरियाणा जैसे राज्यों में कश्मीर जैसा संकट होता है।


ये सवाल इसीलिए क्योंकि सबसे ज्यादा इंटरनेट बैन वाले राज्यों में इन राज्यों का नाम भी शामिल है। वीभत्स वीडियो,फोटो और कंटेट पर उदासीनता बरतना अाश्चर्यजनक सहजता के उदाहरण हैं और मामूली तनाव की स्थिति में इंटरनेट बैन जैसे ब्रम्हास्त्र का उपयोग हमारे सिस्टम की अति संवेदनशीलता को उजागर कर रहा है। सोशल मीडिया अब मनोरंजन और सोशल कनेक्टिविटी नहीं बल्कि ओपनियन मेकिंग यानि मत निर्माण का प्रभावी टूल बन चुका है। मगर न देश की संसद में कोई सवाल, न विधानसभाओं में इस पर कोई चिंता सामने आई है। देश में जितनी विविधता है उतनी ही विशालता भी है लेकिन वायरल कंटेट दोनों दायरों को लांघता हुआ चंद मिनटों में उत्तर,दक्षिण,पूरब,पश्चिम का सफर तय कर रहा है। कोई रोकने वाली एजेंसी नहीं,कोई टोकने वाले लोग नहीं। देश के पूर्व प्रधानमंत्री से लेकर मौजूदा तक पूर्व राष्ट्रपति से लेकर मौजूदा राष्ट्रपति तक सब ट्रोलिंग और फेक न्यूज के दायरे में है...। सरकारी सिस्टम कार्रवाई के मामले में या तो अतिवादी है या अति सहज...

तो फिर क्या होना चाहिए ..? 

ऐसा नहीं कि सोशल मीडिया की सिर्फ स्याह तस्वीर ही है, यकीकन वीवीआईपी कल्चर वाले इस देश में आम आदमी को सेलेब्रिटी बनने का हक सरकारों ने नहीं बल्कि सोशल मीडिया ने ही दिया है। देश के दूर-दराज में बैठा युवा सीधे पीएमओ से जुड़ रहा है। सरकार के काम-काज सोशल मीडिया के जरिए निपटाए जा रहे हैं। देश की रेल सेवाओं में खामियों का मुद्दा हो या विदेश में फंसे भारतीय की दास्तान...देश में सोशल मीडिया ने कई मामलों में कमाल कर रखा है।

1. इसका उपयोग पर पाबंदी लगाना कतई जायज नहीं...लेकिन फेक कंटेट,फोटो शॉप,मॉर्फिंग से ओपनियन बनाने और बिगाड़ने की प्रवृत्ति बंद होनी चाहिए। इसमें पहल आम जनता की नहीं बल्कि राजनीतिक दलों को करनी है। अपने-अपने आईटी सेल को सख्त निर्देश दे कि योजनाओं का प्रचार-प्रसार खूब करें लेकिन किसी विरोधी की छवि बिगाड़ने या झूठे कंटेट को वायरल न करें।

 2.  सरकारों की छोड़िए, आप खुद तय कीजिए कि आपकी ओर से सोसायटी को, दोस्तों ऐसे मैसेज नहीं भेजे जो धर्म,सम्प्रदाय पर चोट करते हों, देश के एक कोने में हुई घटना देश की समस्या नहीं है। इसे आप भी समझें और अपने बच्चों को भी बताएं कि वायरल मैसेज और भीड़तंत्र से देश नहीं चलाया जा सकता। सरकार,राजनीतिक दल,मीडिया,न्यायपालिका,कार्यपालिका पर टिप्पणी करना अलग बात है लेकिन उनके वजूद को नकारने की कोशिश का मतलब  लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं में अविश्वास जगाना है। अगर आप जिम्मेदार ओहदे पर है, सामाजिक प्रतिष्ठापूर्ण भूमिका में हैं, तो विशेष रुप से ध्यान रखें कि कौनसा मैसेज आगे फॉर्वर्ड करना है और कौनसा रोकना है। याद रखिए, आपसे समाज सीख रहा है।

3. एक सुझाव है ये भी है कि जब सब कुछ आधार पर निर्भर हो चला है तो क्यों न फेसबुक,वॉट्सएप को निर्देशित किया जाए कि देश के सभी सोशल मीडिया अकाउंट फेरिफाइड ही हों।

4.  ऐसी व्यवस्था हो जिसमें आपके मोबाइल पर मैसेज आने के साथ ही सबसे पहले मैसेज भेजने वाले या यानि कंटेट क्रिएटर का नाम और नंबर चस्पा हो। अगर ऐसा करेंगे कि तो एक फायदा ये भी होगा कि सोशल मीडिया अच्छे क्रिएटिव लोगों को उनकी वाजिब पहचान भी मिलेगी।


5. सबसे अहम बात ये कि सरकार ये तय करे कि देश में वो ही चेटिंग एप्स और सोशल मीडिया चलेंगी जिनके सर्वर देश में ही हो। ताकि संकट के समय हमें विदेश में बैठे ऑपरेटर्स से गुहार न लगानी पड़े। मुझे यकीन है कि दुनिया का कोई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म,चेटिंग एप इतनी बड़ी आबादी और यूजर्स वाले देश की सरकार के इन फैसलों को मानने से इंकार कर पाएगा...। सोशल मीडिया लोगों को जोड़ता है या नहीं, ये अलग बहस हो सकती है। लेकिन इस बहस की आड़ में समाज में विभेद, टकराव और अविश्वास की कोशिशों को कतई स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए...