मंगलवार, 4 जून 2013

कुदरत और इंसान की कश्मकश....ज़रा सोचिए !!!

हमारे शहरों का हो रहा विकास... किसी के लिए रोजगार की ज़रूरत है शहर ; तो किसी के लिए विलासिता का दूसरा नाम है शहर... शहर इसीलिए भी ज़रूरी है कि हम देश दुनिया से जुड़े रहे... यहां तक तो सब कुछ ठीक है लेकिन इससे आगे की कहानी परेशानी पैदा करने वाली है। शहर में रहने की चाह और आरजू अब इतनी बेकाबू हो चली है कि कस्बे, शहर बन रहे हैं और शहर, महानगरों में तब्दील हो रहे हैं। बढ़ती आबादी, यहां पहले से बसे लोगों से तो कुछ नहीं कहती लेकिन अपने पसरने के लिए वो क़हर ढ़ा रही है, बेजुबान पेड़ों और जंगलों पर, अपनी मौज में झूलती पेड़ों की ढ़हनियों पर, दरख्तों के पत्तों पर इंसान की कभी ख़त्म ना होने वाली तमन्नाओं का आशियाना बन रहा है...इस होड़ में खत्म हो रहे हैं हमारे जंगल, हमारे वन...
जहां कुदरत की बनाई गई कई और जिंदगियां बसती है, हम इंसानों के अलावा। ये वन कई जानवरों के आशियाने हैं लेकिन हमारी जरूरतों की इंतहा ही नहीं। शहरों की रफ्तार बढ़ाने के लिए हमनें दरख्तों को जमींदोज किया। देखते ही देखते विशाल अट्टालिकाओं के फेर में शहरों में खड़े हो रहे हैं कंकरीट के जंगल। हमारी अपनी जमीन, अब हमारी नहीं रही, इसके दामों ने वो छलांग मारी है कि जमीन भी अब आसमान होती दिख रही है। ऐसा आसमान जिसे छूने की ख्वाहिश तो सबकी लेकिन ...कामयाबी किसी बिरले के ही नसीब में हैं। ज़मीनों की बढ़ती मांग ने हमें फ्लैट्स रूपी दराजों में सिमटा दिया है और फिर भी हमारी चाहत ख़त्म होने का नाम नहीं लेती। शहरों के विकास की आ़ड़ में पहले शहर के आस-पास के जंगल ख़त्म हुए और फिर सरकारों वोटों के खातिर इंसानी जिद के आगे झुकते हुए जंगलों को ही शिफ्ट करने लगी है। मतलब ये कि आपको शहरों के वन क्षेत्र चाहिए तो सरकार मुहैया करवाएगी और उसके बदले में जहां पहले से जंगल है, उसी के ईर्द-गिर्द एक जमीन वन विभाग को दे दी जाएगी।

इससे ज्यादा स्वार्थी सोंच और क्या होगी कि हम जानते हैं कि जंगल एक दिन में नहीं बसता लेकिन इसे उजाड़ने की जिद करें तो चंद घंटों में ही इसे तबाह कर देने के सारे इंतजामात और मशीनरी हमारे पास है। हमारे आस-पास बसे पर्यावरण से ऐसा दोयम दर्जे का बर्ताव आखिर क्यों? क्यों लगता है कि विज्ञान और नई तकनीक का सारा इस्तेमाल कुरदती माहौल को खत्म करने के लिए है। क्यों हम ऐसी मिसाल बहुत कम कायम कर पाए हैं जिसमें विज्ञान और नई तकनीक का इस्तेमाल हमनें कुदरत को संवारने के लिए किया हो। राजस्थान, देश का सबसे बड़ा राज्य हैं लेकिन हम उन राज्यों में शामिल हैं जहां वन क्षेत्र लगातार कम हो रहा है। हरित राजस्थान की सरकारी मुहिम का असर क्या हुआ, इसका आकलन करने की जहमत कौन उठाएं ? पर्यावरण की चुनौती मुंह बांये खड़ी है। पर्यावरण संतुलन के बिगड़ते हालात के लिए शहरीकरण,औद्योगिकीकरण और ना जाने किस-किस को दोष देते रहें हम, लेकिन असल हक़ीकत तो यह है कि हम नें खुद ने आंखे मूंद रखी हैं और दोष अंधेरे को दे रहे हैं। विकास की रफ्तार को कौन रोक सकता है। लेकिन पर्यावरण को लेकर संवेदनाएं चाहिए। ताकि वो वन्यजीव जिन्हें कुदरत ने जिदंगी बख्शी हैं...। इस जमीन पर रहने वाले हर जीव को ऊपर वाले ने उसके हिस्से की सांसों की नियामत दी है। वनों में रहने वाले जानवर शहरों में आकर हिंसक हो जाया करते हैं। लेकिन उनके अपने माहौल में आप जाईए तो बखूबी अपने शांत व्यवहार से आपका स्वागत करते नजर आएंगे। शहरीकरण से उपजी हास्यास्पद स्थिति देखिए कि हम पर्यावरण को खत्म कर अपनी जिंदगी को रफ्तार दे रहे हैं और फिर इसी जिंदगी की भाग-दौड़ से थक-हार कर इसी पर्यावरण की गोद में सुकुन  लेने चले जाते हैं। कुदरत से प्यार नहीं होता तो रणथम्भौर, सरिस्का,नाहरगढ़ के जंगलों के नजारे देखने वालों का टोटा पड़ जाता। यकीकन, हमें कुदरत चाहिए, हमें पर्यावरण चाहिए लेकिन हमारी अपनी शर्तों पर...लेकिन कुदरत के आगे कोई शर्त नहीं चलती। बल्कि कुदरत हमें चलाती है अपनी शर्तों पर । अगर पर्यावरण महफूज़ रखोगे तो कई आपदा-विपदाओं से बच जाओगे वरना को कुदरत तो अपनी जगह बना लेगी। कुदरत अभी तो हमें जगह दे रही, खुद सिमट रही है ताकि आपकी-हमारी हसरतें परवान चढ़ सकें। लेकिन संभलना ज़रूरी हैं क्योकि पता नहीं कब हमारे पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक जाए और हम विकास की खोखली जमीन में जमीदोंज होकर अपना वजूद ही खो बैठें। मौक़ा विश्व पर्यावरण दिवस है, अपील बस इतनी सी है कि ... ज़रा सोचिएं...!!! – विशाल शर्मा